Wednesday, January 30, 2008

गांधी के घर में सबके लिये जगह है


वर्ष २००२ के नवंबर महीने में मुझे तीन दिन के लिए सेवाग्राम (वर्धा) में रहने का अवसर मिला था।यह महात्मा गांधी से जुड़ी जगह पर रहकर खुद की गढ़ी 'गांधी छवि' को परखने का एक खास मौका था ,जिसे मैंने कतई गवांया नहीं.

बचपन में पिताजी गांधीजी के कई किस्से सुनाया करते थे और हर किस्सा इस सिरे पर आकर पूर्णता प्राप्त करता था कि उन्होंने एक बार गांधी जी को देखा था।मेरे पिता सेवाग्राम नहीं गए थे,न ही किसी अन्य आश्रम या किसी और जगह ,न ही वह किसी दल-वल के चवन्निया-अठन्निया मेंबर थे जिससे कि सभा-सम्मेलनों में आना-जाना होता रहा हो बल्कि उन्होंने अपने गांव के निकटवर्ती रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में सवार गांधी जी को देखा था.पिताजी यह भी बताते थे कि उस दिन जैसे समूचा इलाका दिलदार नगर रेलवे स्टेशन पर उमड़ आया था,एक साधारण-से आदमी की एक झलक पाने के लिये.उस समय मुझे यह् सब अविश्वसनीय लगता था लेकिन अविश्वास की कोई ठोस वजह भी नहीं थी और न ही इतना सारा सोचने की उम्र ही थी.

सेवाग्राम में बापू कुटी के सामने वाले अतिथिशाला में हम लोग रुके थे।सामने वह जगह थी जहां कभी महात्मा गांधी रहा करते थे.शाम की प्रार्थना सभा में जाने का मन था, कौतूहल और जिज्ञासा भी.साथ के कई विद्वान प्रोफेसरों ने बताया कि वहां ऐसा कुछ नहीं है जिसको देखने के लिए तुम इतने उत्साहित हो,मत जाओ निराशा होगी.मैने कहा निराशा ही सही चलो देखते हैं.

प्रार्थना वैसे ही शुरू हुई जैसा कि सुन रखा था।एक फुटही लालटेन की मलगजी रोशनी में गांधीजी के कुछ प्रिय भजन और उनकी किसी पुस्तक के एक अंश का पाठ.सभा में लोग भी कम नहीं थे.बताया गया कि रोज ही इतने लोग तो आते ही हैं,आज विश्वविद्यालय वालों की वजह से थोड़े लोग अधिक हैं.थोड़ा अलग हटकर एक बूढा-सा आदमी जोर से बड़बड़ा रहा था -'गांधी को भगवान बना दिया, पूजा कर रहे हैं उसकी.भगवान तो बाबा अंबेदकर था-वह था भगवान'.ऐसा नहीं था कि उसकी बात किसी को सुनाई नहीं दे रही थी लेकिन कोई प्रतिवाद नहीं कर रहा था, न ही उस आदमी को वहां से चले जाने के लिये कोई कह रहा था.मैंने अपनी आंखों से देखा कि गांधी के घर में सबके लिये जगह है -गांधी के देश में भी.हां,अब तक गांधीजी को लेकर मुझे अपने पिता के सुनाये किस्सों के बाबत जो भी अविश्वास था वह धीरे-धीरे तिरोहित हो रहा था.

आज ३० जनवरी को महात्मा गांधी की 'पुण्य तिथि'पर प्रस्तुत है डा. राम कुमार वर्मा की एक कविता जो पहली बार मार्च १९४८ के 'आजकल' में प्रकाशित हुई थी-

बापू की विदा


आज बापू की विदा है!
अब तुम्हारी संगिनी यमुना,त्रिवेणी,नर्मदा है!

तुम समाए प्राण में पर
प्राण तुमको रख न पाए
तुम सदा संगी रहे पर
हम तुम्हीं को छोड़ आए
यह हमारे पाप का विष ही हमारे उर भिदा है!
आज बापू की विदा है!

सो गए तुम किंतु तुमने
जागरण का युग दिया है
व्रत किए तुमने बहुत अब
मौन का चिर-व्रत लिया है!
अब तुम्हारे नाम का ही प्राण में बल सर्वदा है!
आज बापू की विदा है!

1 comment:

Ashok Pande said...

सही दिन पर सही और बढ़िया पोस्ट लगाई सिद्धेश्वर बाबू! धन्यवाद.