Tuesday, March 11, 2008

'कलकतवा से आवेला...' शारदा सिन्हा जी का एक यादगार गीत


आज एक पुराना वादा निभाने की कोशिश कर रहा हूं.अशोक से वादा था कि मैं 'कबाड़खाना 'पर अपनी पसंद के उस संगीत का एक नमूना पेश करूंगा जिसकी धूपछांही रंगत में मैंने किशोरावस्था को पार करते हुए वर्तमान की कंटीली डगर पर चलना सीखा और जब कभी चलते-चलते पांव थोड़े दुखने लगते हैं और दिमाग भन्नाने लगता है तब ऐसा ही संगीत कुछ सकून देता है साथ ही फिर से चलने की ताकत और प्रेरणा भी.प्रस्तुत है शारदा सिन्हा जी की आवाज में यह गीत इस लाजवाब गायिका के प्रति पूरे सम्मान ,आदर और आभार के साथ.साथ ही यह अपनी मातृभाषा भोजपुरी के प्रति आदर का इजहार भी है जो फिलहाल मेरे घर में कम ही बोली और सुनी जाती है.दो साल पहले गुजरी मां के जाने बाद तो और कम ,बेहद कम। तो सुनते हैं-


अवधि-४ मिनट,२३ सेकेंड

2 comments:

कंचन सिंह चौहान said...

bare din baad suna ye geet... kabhi bahut suna tha, parivar ke sath.

thanks

अजित वडनेरकर said...

सुंदर । शारदा जी की आवाज़ में अजीब सी कशिश है। करीब ढाई दशक से इस आवाज़ को सुन रहा हूं और मानता हूं कि वे बेमिसाल हैं।
प्रसंगवश, भोजपुरी गायकी की गमक और छोटी छोटी मुरकियां मैने बुंदेली गीतों में भी महसूस की है। इसकी वजह यही हो सकती है कि बुंदेलखंड का एक सिरा ब्रज को छूता है तो दूसरा मिर्ज़ापुर को जहां से भोजपुरी क्षेत्र । आप बताएं....वैसे तो लोक की अंतर्धारा कहीं न कहीं सदियों से एक दूसरे से घूलती-मिलती रही है।