Friday, March 28, 2008

कैसे मिलती थी शराब अहमदाबाद में

मैं 1989 से 1995 लगभग 75 महीने अहमदाबाद में रहा। ज्यादातर अकेले ही रहना हुआ। बेशक मैं उस मायने में पियक्कड़ या शराबी नहीं माना जा सकता जिस मायने में यार लोग मिल बैठते ही बोतलें खोल कर बैठ जाते हैं। मैं ठहरा 9 से 5 वाली नौकरी वाला बंदा इसलिए मुंबई में आठ बरस बिताने के बाद और उससे पहले हैदराबाद और दिल्‍ली में कई बरस अकेले रहने के बावजूद मैं देर रात तक चलने वाली मुफ्त की या पैसे वाली पार्टियों में कम ही शामिल हो पाया। हमेशा कभी कभार वाला मामला रहा। लेकिन अहमदाबाद आने के बाद जब पता चला कि यहां तो दारूबंदी है और बंबई (तब ये बंबई ही थी) से दारू लाना खतरे से खाली नहीं तो तय कर ही लिया कि हम इस शहर में दारू मिलने के सारे अड्डों का पता लगायेंगे और अपना इंतज़ाम खुद ही करेंगे।
तब मैं नारणपुरा में रहता था। एक दिन खूब तेज़ बरसात हो रही थी कि मूड बन गया कि आज कुछ हो जाये। छतरी उठायी और चल पड़ा सड़क पार दो सौ गज दूर बने पान के खोखे की तरफ। छोटी सी लालटैन जलाये वह मेरे जैसे ग्राहक का ही इंतज़ार कर रहा था। जाते ही एक सिगरेट मांगी, सुलगायी और पैसे देते समय उसके सामने सवाल दाग ही दिया- दारू चाहिये। कहां मिलेगी।
वह चौंका, तुरंत बोला- मुझे क्या पता, कहां मिलेगी। वो उधर पूछो।
किधर पूछूं - मेरा अगला सवाल।
- वो आगे चौराहे पर घड़े बेचने वाले की दुकान है। उधर मिलेगी।
मैं जिद पर आ गया - अब इस बरसात में वहां कहां जाऊं। कितना तो अंधेरा है और कीचड़ भी।
- कितनी चाहिये, उसने मुझ पर तरस खाया।
- क्वार्टर मिलेगी तो भी चलेगा। मैंने अपने पत्ते खोले।
- तीस रुपये लगेंगे।
- चलेगा।
- निकालो और उधर खड़े हो जाओ।
मैं हैरान कि इतनी जल्दी सौदा पट गया। मैंने पैसे थमाये, मुड़ने के लिए गर्दन मोड़ी, दो कदम ही चला कि उसकी आवाज़ आयी - ये लो। और व्हिस्की का क्वार्टर मेरे हाथ में था।
उस वक्त मैं किस रोमांच से गुज़रा होऊंगा, उसकी आप स्वयं कल्पना करें। और उस क्वार्टर ने मुझे कितनी सैकड़ों बोतलों का नशा दिया होगा, ये भी खुद ही कल्पना करें। ज्यादा मज़ा आयेगा।
अब तो सिलसिला ही चल निकला। झुटपुटा होते ही मैं अपनी यामाहा मोटर साइकिल उसके ठीये के पास खड़ी करता, उसे पैसे देता और दस मिनट बाद वापिस आता तो माल मेरी मोटरसाइकिल की डिक्की में रखा जा चुका होता।
एक बार जूनागढ़ से कथाकार शैलेश पंडित आये हुए थे तो प्रोग्राम बना। पान वाले को हाफ के पैसे दिये और जब वापिस आये तो उसने कहा कि आज फुल बाटल ले जाओ। बाकी पैसे बेशक बाद में दे देना। मैं हैरान - ये इतना उदार क्यों हो रहा है, आधे के बजाये पूरी ऑफर कर रहा है। बाद में उसने बताया था कि वह कई बार आधी रात को आ कर सप्लाई लेता है और बोतलें खोखे के पीछे जमीन में गाड़ कर देता है। आधी बोतल खोदने के बजाये पूरी हाथ में आ गयी तो वही सही।
इस तरीके से दारू लेते कुछ ही दिन बीते थे कि घर पर अखबार डालने वाला धर्मा एक दिन शाम को आया और बोला कि साब आप उस पान वाले से लेते हैं। घर तक लाने में रिस्‍क हो सकता है। मैं आपको घर पर ही सप्लाई कर दिया करूंगा। मैं हैरान, तो इसका मतलब हमारे मामले की खबर इसको भी है।
पूछा मैंने - लेकिन मैं तुम्हें ढूंढूंगा कहां, तो धर्मा ने कहा कि साब आप बाल्कनी में खड़े हो कर सामने सड़क पार देखें तो मैं आपको वहीं कहीं मिल जाऊंगा। आप बाल्कनी से भी इशारा करेंगे तो माल हाजिर हो जायेगा। बाद में धर्मा मेरे बहुत काम आया। फिलहाल एक और प्रसंग।
अब पान वाले की सप्लाई बंद और धर्मा की शुरू। कुछ ही दिन बीते थे और मुश्किल से उससे पांच सात बार ही खरीदी होगी कि मेरे घर पर सफाई करने वाला राजस्थानी लड़का रामसिंह एक दिन कहने लगा- साब जी आपसे एक बात कहनी है।
- बोलो भाई, क्या पैसे बढ़ाने हैं
- नहीं साब पैसे तो आप पूरे देते हैं। आप धर्मा से शराब खरीदते हैं। अगर मुझे कहें तो मैं ला दिया करूंगा। दो पैसे मुझे भी बच जाया करेंगे।
तो ये बात है। सप्लाई सब जगह चालू है। अब धर्मा बाहर और घरेलू नौकर रामसिंह चालू।
उस घर में मैं लगभग एक बरस रहा और कभी ऐसा नहीं हुआ कि अपने यार दोस्तों के लिए चाहिये हो और न मिली हो।
एक बार फिर धर्मा।
धर्मा ने एक बार बताया कि उसे बहुत नुक्सान हो गया है। बिल्डिंगों के बीच जिस खाली मैदान में उसने रात को पचास बोतलें जमीन में गाड़ कर रखी थीं, कोई रात को ही निकाल कर ले गया।
तभी मुझे नवरंगपुरा में मकान मिला। बेहतर इलाका और बेहतर लोग, बस एक ही संकट था- वहां दारू कैसे मिलेगी।
रास्ता सुझाया धर्मा ने - आपको एक फोन नम्बर देता हूं। फोन टाइगर उठायेगा। शुरू शुरू में आपको मेरा नाम लेना होगा। बाद में वो आपकी आवाज पहचान लेगा, क्या चाहिये, कितनी चाहिये, कब चाहिये और कहां चाहिये ही उसे बताना है। एक शब्द फालतू नहीं बोलना। माल आपके घर आ जायेगा। मैं निश्चिंत। इसका मतलब होम डिलीवरी वहां भी चालू रहेगी। शुरू शुरू में टाइगर की गुरू गंभीर आवाज सुन कर रूह कांपती थी। लगता था टाइगर नाम के किसी हत्यारे बात कर रहा हूं, लेकिन बाद में सब कुछ सहज हो गया।
नवरंग पुरा आने के बाद दारू बेचने वालों की एक नयी दुनिया ही मेरे सामने खुली। एक मील से भी कम दूरी पर गूजरात विश्वविद्यालय था। उसके एक गेट से सटी हुई लकड़ी की एक बहुत बड़ी लावारिस सी पेटी पड़ी हुई थी। शाम ढलते ही एक आदमी उस पेटी के अंदर से ऊपर की तरफ एक पल्ला खोल देता और भीतर जा कर बैठ जाता। अंदर ही एक मोमबत्ती जला कर खड़ी करता और शुरू हो जाता उसका कारेबार। वहां क्वार्टर या हाफ ही मिला करते। बस, एक एक करके वहां जाना होता। गुनगुने अंधेरे में।
ये तो मील भर दूर की बात हुई, हमारी कालोनी से नवरंग पुरा की तरफ जाओ तो सौ गज परे दो हॉस्टल थे। एक दृष्टिहीनों के लिए और दूसरा लड़कियों के लिए। थोड़ा आगे बढ़ो तो सामने की तरफ कुछ साधारण सी दुकानें और उनके पीछे एक गली में झोपड़ पट्टी। अंदर गली में देसी और विलायती शराब मिलने का बहुत बड़ा ठीया। वहां शाम ढलने से देर रात तक इतनी भीड़ हो जाती कि अंदर गली में स्कूटर या साइकिल ले जाना मुश्किल। किसी आदमी ने इसमें भी कारोबार की संभावना देखी और सड़क पर ही साइकिल स्टैंड बना दिया। शाम को वहां इतनी साइकिलें और स्‍कूटर नज़र आते कि राह चलना मुश्किल। एक और समस्‍या निकली इसमें से। आपने स्‍टैंड पर अपना वाहन खड़ा किया।. उसे पैसे दिये, आप भीतर गली में गये तो पता चला कि दारू खतम है तो मूड तो खराब होगा ही, समय भी बरबाद होगा। इसका रास्‍ता भी दारू वालों ने ही खोजा। गली के बाहर कोने में एक छोटा सा दोतल्‍ला मंदिर बना दिया। उसमें मूर्तियां तो क्‍या ही रही होंगी. वह ढांचा मिनी मंदिर जैसा लगता था। उसमें शाम के वक्‍त दो बल्‍ब जलते रहते। नीचे वाला बल्‍ब देसी दारू के लिए और ऊपर वाला विलायती के लिए। जब कोई भी दारू खतम हो जाती तो एक आदमी आ कर ऊपर या नीचे वाला बल्‍ब बुझा जाता। मतलब अपने काम की दारू खतम और स्‍कूटर स्‍टेंड पर पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं।
कुछ दिन बाद एक इलाके में एक ऐसे आदमी का पता चला जो साइकिल पर खूब सारे थैलों में दारू लाद कर धंधा करता था। साइकिल एक अंधेरे में एक पेड़ के नीचे खड़ी होती और वह दूसरे पेड़ के नीचे खड़ा होता। लेन एक पेड़ के नीचे और देन दूसरे पेड़ के नीचे। पकड़े जाने का कोई रिस्‍क नहीं।
यहां धर्मा का एक और किस्‍सा
एक बार मुंबई से पत्‍नी आयी हुई थी। उसे रात की गाड़ी से वापिस जाना था। हम स्‍‍टेशन के लिए निकलने ही वाले थे कि जूना गढ़ से शैलेश पंडित आ गये। इसका मतलब दारू की जरूरत पड़ेगी। मैंने शैलेश को एक बैग दिया और कहा कि जब तब मैं स्‍टेशन से वापिस आता हूं, वह नारणपुरा जा कर धर्मा को खोज कर माल ले आये।
जब मैं वापिस आया तो शैलेश पंडित का हॅंसी के मारे बुला हाल। बहुत पूछने पर उसने बताया- सरऊ, क्‍या तो ठाठ हैं। मैंने फिर पूछा- यार काम की बात करो, धर्मा मिला कि नहीं।
जो कुछ शैलेश ने बताया, उसे सुन कर हॅंसा ही जा सकता था। हुआ यूं कि जैसे ही नारणपुरा में मेरे पुराने घर के पास शैलेश ने धर्मा की खोजबीन शुरू की, एक भारी हाथ उनके कंधे पर आया – आप धर्मा को ढूंढ रहे हैं ना। शैलेश को काटो तो खून नहीं। वे मैं. . मैं . . ही कर पाये। घबराये, ये क्‍या हो गया। उस व्‍यक्ति ने दिलासा दी- घबराओ नहीं, आपके कंधे पर जो बैग है ना, वो सूरज प्रकाश साब का है और दारू ले जाने के काम ही आता है। बोलो कितनी चाहिये।
बाद में हमने मस्‍ती के लिए और खोज अभियान के नाम पर हर तरह के दुकानदार से शराब खरीदने का रिकार्ड बनाया। एक बार तो रेडिमेड कपड़े वाले के ही पीछे पड़ गये कि कहीं से भी दिलाओ, दोस्‍त आये हैं और चाहिये ही। और उसने दिलायी।
एक बार हम कुछ साथी आश्रम रोड पर लंच के वक्‍त टहल रहे थे। बंबई से एक नये अधिकारी ट्रांस्‍फर हो कर आये थे। कहने लगे- यार तुम्‍हारा बहुत नाम सुना है कि कहीं से भी पैदा कर लेते हो शराब। हम भी देखें तुम्‍हारा जलवा। मैंने भी शर्त रख दी- अभी यहीं पर खड़े खड़े आपको दिलाऊंगा, बस लेनी होगी आपको, बेशक थोड़ी महंगी मिलेगी। वे तैयार हो गये। हमारे सामने एक गरीब सा लगने वाला अनजान आदमी जा रहा था। मैंने उसे रोका, अपने पास बुलाया और बताया कि ये साब बंबई से आये हैं, इन्‍हें अभी दारू चाहिये। उस भले आदमी ने एक पल सोचा और बोला- लेकिन साब आपको आटो रिक्‍शे के आने जाने के पैसे और बक्‍शीश के दस रुपये देने होंगे। मैंने उसकी बात मान ली और अपने साथी को पैसे निकालने के लिए कहा। वे परेशान – राह चलते अनजान आदमी को इतने पैसे कैसे दे दें लेकिन मैंने समझाया – आपके पैसे कहीं नहीं जाते। ये गुजरात है। तय हुआ कि आधे घंटे बाद वह आदमी ठीक उसी जगह पर मिलेगा और माल ले आयेगा। और वह अनजान आदमी जिसका हमें नाम भी नहीं मालूम था, ठीके आधे घंटे बाद माल ले कर हाजिर था।
और भी कई तरीके रहे माल लेने के। एक बार तो होम डिलीवरी वाला सुबह दूध लाने वाले से भी पहले माल दे गया। हमारे यहां जितने भी सिक्‍यूरिटी वाले थे, सब भूतपूर्व सैनिक ही थे। वे अपने साथ अपनी एक आध बोतल रख कर कहीं भी आ जा सकते थे. मतलब पकड़े नहीं जा सकते थे। बस, काम हो गया। जो भूतपूर्व सैनिक नहीं पीते थे, उनका स्‍टॉक बेचने के लिए यही कैरियर का काम करते थे।
और अंत में
आपने कई शहरों में बर्फ के गोले खाये होंगे। अलग अलग स्‍वाद के। मुंबई में तो चौपाटी और जूहू में बर्फ के गोले खाने लोग दूर दूर से आते हैं लेकिन अगर आपको रम या व्हिस्‍की के बर्फ के गोले खाने हों तो आपको अहमदाबाद ही जाना होगा।
इस बार इतना ही, नहीं जो ज्‍यादा नशा हो जायेगा और . . . . ।

8 comments:

Ashok Pande said...

बहुत नशीली पोस्ट सूरज जी. मैं खुद अहमदाबाद में इस लुत्फ़ को लूट चुका हूं. आशा है आप जल्दी ही पूरी तरह स्वस्थ हो जाएंगे. शुभकामनाएं.

Unknown said...

वाह बहुत मजेदार लिखा है - क्या बात है - १९९० में मेरे ऑफिस वालों ने भी कुछ जुगाड़ किया था - लेकिन इतना रोचक नहीं रहा होगा - मनीष

नीरज गोस्वामी said...

हों जो दो चार शराबी तो तौबा कर लें
कौम की कौम है डूबी हुई मयखाने में
वाह सूरज जी मज़ा आगया. पोस्ट पढ़ के अंदाजा हो गया है की आप अब तन मन से पूर्ण रूप से स्वस्थ हैं.
नीरज

madhu said...

accha lekh hai surrajji.
sharab ke shodh ke liye badhai.

PD said...

बहुत नशीला पोस्ट था.. मजा आ गया.. अब हैंग ओवर होकर बैठा हूं.. देखिये कब तक उतरता है.. :D

Sanjeet Tripathi said...

मजा आ गया हिक्क, हिक्क, कसम से!!

vidooshak said...

itane saare log alag-alag ek hee kaam mein lage hain . koee co-operative naheen ban sakatee kheDaa district sahakaaree samiti kee tarz par . jaise 'Ahmedabad daaroo vitarak sahakaaree samiti' Type kuchh .

yah poorN nashaabandee ke peechhe kaa sach hai . apane aur mitron ke anubhavon se bhee vahaan kee yahee sthiti saamane aayee hai .

Rajesh Joshi said...

To phir yeh samajh mein nahi aaya ki dangaa karne wale kahan se aate hein. Sharaab bechne wale aur sharaabi bhala kyon danga karne lage?