Sunday, September 14, 2008

हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र


( १४ सितम्बर ... आज हिन्दी दिवस है. अखबारों,पत्रिकाओं और नेट-टीवी-ब्लाग सब जगह हिन्दी-हिन्दी दिखाई दे रहा है.आह हिन्दी (!) और वाह हिन्दी (!),हाय हिन्दी (!) और बाय हिन्दी (!) दोनो ही तरह की बातें हर साल सितम्बर महीने में सुनाई देती हैं. भारतेन्दु के जमाने में हिन्दी नई चाल में ढ़ली थी, उसके बाद भी ढ़ली और अब इक्कीसवीं सदी के इस शुरुआती दशक में हिन्दी लगातार नई चाल में ढ़ल रही है.जरुरत है कि खुद को 'हिन्दी हैं हम' कहने वाले लोग इसकी चाल को पहचानें और अप्नी चाल बिगड़ने न दें.स्यापा करने के मुकाबले सचेत रहना हमेशा मुफ़ीद होता है.

आज सोचा था कि हिन्दी दिवस के 'उपलक्ष्य' में कोई छोटा-सा लेख लिखूंगा , पर लिख न सका या यों कहें कि लिखने का मन न हुआ. बिना मन के कलम घिसाई करने से आटा कम चोकर अधिक निकलता है. आज सुबह से ही निराला बहुत याद आ रहे हैं. सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' - 'हिन्दी के हित का अभिमान वह'. हां वही निराला,हिन्दी का महान कवि और गद्यकार जिस जिसके लिए 'दु:ख ही जीवन की कथा रही'. आज प्रस्तुत है निराला की कविता -हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र।)


हिन्दी के
सुमनों के प्रति पत्र /
निराला

मैं जीर्ण - साज बहु छिद्र आज,
तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन
मैं हूं केवल पदतल - आसन,
तुम सहज विराजे महाराज .

ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे, यद्यपि
मैं ही वसंत का अग्रदूत,
ब्राह्मण - समाज में ज्यों अछूत
मैं रहा आज यदि पार्श्वच्छवि.

तुम मध्यभाग के महाभाग !
तरु के उर के गौरव प्रशस्त,
मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त
तुम अलि के नव रस - रंगराग.

देखो, पर, क्या पाते तुम 'फल'
देगा जो भिन्न स्वाद रस भर,
कर पार तुम्हरा भी अन्तर
निकलेगा जो तरु का सम्बल.

फ़ल सर्वश्रेष्ठ नायाब चीज
या तुम बांधकर रंगा धागा;
फल के भी उर का, कटु, त्यागा,
मेरा आलोचक एक बीज.

2 comments:

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

निराला जी को सादर प्रणाम्! आपको साधुवाद।

Ashok Pande said...

बाबा को नमन!