Saturday, September 13, 2008

सीमेंट और सरिया: किसके पेट में गया?

इस तस्वीर को ग़ौर से देखिए. सावन की
घनघोर घटाएँ हवाओं के ज़ोर से एक निश्चित दिशा की ओर उड़ती दिखती हैं. घटाओं का ये सिलसिला दूर नज़र आने वाले पहाड़ों तक चला जाता है. उन पहाड़ों का ऊपरी हिस्सा उजास-सलेटी रंग से ढँका हुआ दिखता है.

और ग़ौर से देखें तो उन पहाड़ों के नीचे हरे पेड़ों की कतारें सी दिखती हैं. तस्वीर में नज़र नहीं आता पर उन पेड़ों के पीछे और पहाड़ की तलहटी में मेरा गाँव है. गौलापार खेड़ा. यानी गौला नदी के पार वाला खेड़ा.

इस गौला को आप इस तस्वीर में देख रहे होंगे. ये नदी गर्मियों और जाड़ों में सूखी रहती है. सिर्फ़ बरसात में कुपित होती है. जब ये नदी सूखी होती है तब इसे गौला का रौखड़ कहा जाता है जिसमें पहाड़ों से लुढ़ककर आए बड़े बड़े पत्थर, रेता, बजरी, रोड़ी और कंकड़ बिखरे रहते हैं.

मेरे माँ-बाप को अच्छी तरह याद है कि एक बार अकाल पड़ा था. खेतों में कुछ नहीं उगा था. ये वो साल था जब गौला नदी पर बना बहुत पुराना पुल टूट गया था. गाँव को हल्द्वानी से जोड़ने का एकमात्र रास्ता ख़त्म हो गया था. गाँव में लोग तेल-नमक को तरस गए थे.

कई बरस गुज़रे और फिर विकास हुआ.

काठगोदाम में गौला नदी पर बैराज बनाया गया. एक नया पुल बनाया गया. सड़क जो कच्ची थी, डामर की हो गई. विकास की ये आँधी रुकी नहीं. कुछ और साल गुज़रे और गाँव वाले कहने लगे – अब तो गौलापार भी शहर होने वाला है.

सरकारी हुकुम आया कि किसानों को अपनी ज़मीनों का सड़क वाला कुछ हिस्सा देना होगा क्योंकि और बड़ी, और चौड़ी सड़क बननी हैं. ये बाईपास बनेगा जिससे बड़े बड़े ट्रक माल लेकर पहाड़ों तक सप्लाई करेंगे. सड़कें बनीं.

फिर सुना कि तल्ली हल्द्वानी से गौलापार तक सरकार एक विशाल पुल बनवा रही है. लोग पुलकित हुए: “बस वो पुल बन जाए, फिर देखना. गौलापार का कायापलट हो जाएगा.”

फिर एक दिन बड़ी बड़ी मशीनें गौला नदी के किनारे इकट्ठा की गईं. सीमेंट, सरिया ख़रीदा गया. टैरीकॉट की पैंट, शर्ट, चमकदार जूते पहने इंजीनियर साहबों ने सर्वे किया. ओवरसियर को डाँटा, ठेकेदार का सलाम स्वीकार किया, मंत्री के सामने थोड़ा सा झुककर विनम्र मुस्कुराहट के साथ प्रगति आख्या प्रस्तुत की.

ख़बर थी कि भारी पैसा 'सैंकसन' हो गया है.

मंत्री जी उदघाटन करने आए होंगे, शामियाना भी लगा होगा शायद. ठंडे की क्रेटें खुली होंगी. कुछ समोसा पकोड़ी और गुलाब जामुन भी रखे होंगे. ये मैंने नहीं देखा. मैं वहाँ नहीं था. मैं ये देखने के लिए भी नहीं था कि उस शाम उत्तराखंड की पीडब्ल्यूडी विभाग की मंत्री ने अपने घर में पार्टी दी या नहीं. मुझे ये भी नहीं मालूम कि मंत्री के घर के बाहर उस दिन (या उस दिन को सेलेब्रेट करने के लिए बाद में कभी) कितने ड्राइवर अपने साहबों यानी बड़े बड़े ठेकेदारों, अफ़सरों और शहर के गणमान्य लोगों का इंतज़ार करते ऊँघे रहे होंगे.

मशीनों ने काम शुरू किया. गौला के रौखड़ में इस पार से उस पार तक बड़े बड़े गड्ढे बनाए गए. सरकारी पैसे से ख़रीदा गया सीमेंट और सरिया उनमें भरा गया. देखते ही देखते कंक्रीट के कई मज़बूत स्तंभ उभर कर सामने आ गए. फिर उनपर पुल बिछाने का काम शुरू हुआ.

पैसे की कोई कमी नहीं. फ़ाइलें अपनी सुस्त रफ़्तार छोड़ लगभग उड़ने लगीं. वाउचर पर दस्तख़त करवाने के लिए ठेकेदार साहब को बड़े साहब या छोटे साहब के दफ़्तर के बाहर इंतज़ार नहीं करना है. साहब कहते हैं कि रक़म अगर अगले हफ़्ते 'सैंकसन' होनी है तो मैं आज करता हूँ. काम नहीं रुकना चाहिए. मंत्री जी का मूलमंत्र विकास है. विकास नहीं रुकना चाहिए.

और फिर वो दिन भी आया जब चमचमाते काले डामर की पक्की सड़क इस पार से उस पार तक बिछ गई. आह, कितना सुबीता हो गया है. पंद्रह मिनट में पहुँच जाइए इस अंधेरे, जंगली गाँव गौलापार से उस पार हल्द्वानी शहर की चकाचौंध तक.

***

कुछ हफ़्ते पहले सुबह उठकर भारत की ख़बरों पर नज़र डालने के लिए इंटरनेट खोला. सबसे पहले इसी तस्वीर पर नज़र गई जिसे आप ऊपर देख चुके हैं. ख़बर थी: भारी बारिश में हल्द्वानी का पुल बहा.

अब उसी तस्वीर को फिर से देखिए और बताइए कि सीमेंट-सरिया किसके पेट में गया?

(अशोक पांडे उवाच: रॉयटर्स और एपी द्वारा जारी ध्वस्त पुल की फ़ोटू हमारे कबाड़ी कैमरामैन रोहित उमराव की है.)

10 comments:

अनामदास said...

थोड़ा-थोड़ा सबके पेट में गया, अगला सवाल है कि ये क्या बनकर, कहाँ से, और कैसे निकलेगा?

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

सरकारी क्षेत्र का डेलिवरी सिस्टम किस तरह नष्ट हो चुका है, इसकी सटीक बानगी आपने इस पोस्ट में पेश कर दी है। बधाई...।

दुःख होता है यह सब देखकर...।

Unknown said...

राजेश,
ये तो हिन्दुस्तान है प्यारे। तुम तो आन्दोलनकारी रह चुके हो। अब तो आन्दोलन की धारा भी कमजोर है। ऐसे तमाशे तो होते रहेंगे।
राजीव लोचन साह

एस. बी. सिंह said...

बरबाद गुलिस्ताँ कराने को बस एक ही उल्लू काफ़ी था , हर शाख पे उल्लू बैठे है अंजाम ए गुलिस्ताँ क्या होगा..... राजेश जी यह हर शहर हर गावं की कहानी है..

siddheshwar singh said...

यहां तक आते - सूख जाती हैं सभी नदियां,
मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा.

मुनीश ( munish ) said...

File RTI and u will get an answer. use this right friend, if u r really serious.

मुनीश ( munish ) said...

.....or join me in cursing the bhosdee ke bastards!

vipin dev tyagi said...

गौला के गिरे पुल को देखकर पूरी तरह यकीन हो गया कि..बेईमानी और घूसखोरी की कीड़ा मेरे शहर को भी पूरी तरह लग चुका है..यहां के ठेकेदार,अफसर,बाबू,नेता और मंत्री भी बेईमानी में किसी से पीछे नहीं रहना चाहते..आगे बढ़ना है..अच्छा है..ये भरोसा भी खत्म होता जा रहा है कि पहाड़ वाले..कुछ भी हो..कैसे भी हों... सीधे होते हैं..शाम को हाफ का जुगाड़ करने के लिये भले ही किसी को भी बुग्गा बनाना पड़े..लेकिन किसी का बुरा नहीं चाहते..लेकिन दोस्तों जब से दाजू की दुकान.कॉम्पलैक्स हो गयी..तो विश्वास का पुल टूटना लाजमी है...वैसे भी बेईमानी के सीमेंट...घूसखोरी की रोड़ी-बजरपुर..सिफारिशों के रेत...और मक्कारी की सरिया से बना गौला का पुल एक ना एक दिन तो गिरना ही था..जल्दी गिर गया..अच्छा है..ठेकेदार,इंजीनियर,अफसर,मंत्रीजी...सभी दलों के दबंग के छोटे-बड़े नेताजी.. एमबी पीजी कॉलेज के सम्मानित नेतागण..और शहर के सभी बड़े दाजू लोगों के लिये नोट का जुगाड़.जारी रहना चाहिए... फिर से पुल खड़ा करना है...जल्दी करो..भाई लोग..बजट पास करवाओ....कमाई का एक और पुल बनाओ...गौलापार..हल्द्वानी से दिल से जुड़ा है..जुडा रहेगा..उसकी चिंता मत करो...तुम नोट कमाओ..हाफ तुमने छोड़ दिया है...इंग्लिश भी नहीं..अब तो वाइन शूरू कर दी है..नोटों की ज्यादा जरूरत होगी..कमाओ यारो..
विपिन देव त्यागी

Ashok Pande said...

रॉयटर्स और एपी द्वारा जारी ध्वस्त पुल की फ़ोटू हमारे कबाड़ी कैमरामैन रोहित उमराव की है.

मुनीश ( munish ) said...

itz no mean achievement . I congratulate Rohit for good job done.