Wednesday, October 1, 2008

अन्ना अख़्मातोवा की 'शाम'



सुबह मारीना स्वेतायेवा की कविता लगाने के बाद दिन भर रूस की एक और महान कवयित्री अन्ना अख़्मातोवा (२३ जून १८८९-५ मार्च १९६६) को पढ़ता रहा.

कोई पच्चीस साल पहले की बात है. घर में डाक से 'सोवियत लिटरेचर' आया करती थी. एक अंक में अन्ना अख़्मातोवा की 'शाम' कविता ने इस क़दर प्रभावित किया कि मैंने तुरन्त उसका अनुवाद कर डाला था. हालांकि कविता की समझ न तब थी न अब है, उस कविता में कुछ था जो समझ में न आते हुए भी समझ में आ रहा था.

आज मारीना स्वेतायेवा के बहाने अन्ना अख़्मातोवा की याद आई तो एक पुरानी डायरी को खोजने के के चक्कर सारा घर ज़मींदोज़ कर डाला. उसी में लिखा धरा था वह अनुवाद. मेरी अपनी याददाश्त में जाने-अनजाने किया गया वह पहला साहित्यिक अनुवाद था, सो ज़ाहिर है उसमें हज़ार खोट होंगे. मगर कुछ ऐसा नाता है इस से कि आपको पढ़वाने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा.

हो तो यह भी सकता है कि अगले दो-एक दिन लगातार आपको अन्ना की कुछेक और नायाब कविताएं पढ़वाऊं. अन्ना की विस्तृत जीवनकथा भी तभी.
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शाम

शॉल के पीछे अपने हाथों को मज़बूती से जकड़ लेती हूं मैं
इतनी ज़र्द क्यों दिख रही हूं आज की शान
... शायद मैंने ज़्यादा ही पिला दी थी उसे
दुःख और हताशा की कड़वी शराब

कैसे भूल सकती हूं! - वह बाहर चला गया था,
दर्द की रेखा में खिंचे हुए थे उसके होंठ
पगलाई सी मैं दौड़ती चली गई थी
सीढ़ियां उतर कर उसके पीछे, सड़क तक

मैं चिल्लाई: "मैं तो मज़ाक कर रही थी, सच्ची!
मुझे ऐसे छोड़कर मत जाओ, मैं मर जाऊंगी" - और
एक भयानक, ठण्डी मुस्कान अपने चेहरे पर लाकर
उसने हिदायत दी मुझे: "बाहर हवा में मत खड़ी रहो!"

7 comments:

Vivek Gupta said...

सुंदर कविता | कृपया आप हिन्दी राईटर भी अपने ब्लाग भी लगा दीजिए इससे आपके पाठकों को कमेंट्स लिखेने के लिए कहीं और नहीं जाना पड़ेगा | क्या आप रुसी भाषा जानतें हैं ?

सुशील छौक्कर said...

और हाँ जी इनकी फोटो ले जा रहा हूँ। इतनी सुन्दर कविता पढने के साथ साथ ही।

एस. बी. सिंह said...

अशोक जी मेरी समझ से कविता के लिए समझ-वमझ की जरूरत होती नहीं । बस सब कुछ समझ में न आते हुए भी समझ में आ जाता है । बहुत सुंदर कविता के लिए शुक्रिया।

शायदा said...

मैं चिल्लाई: "मैं तो मज़ाक कर रही थी, सच्ची!
मुझे ऐसे छोड़कर मत जाओ, मैं मर जाऊंगी" - और
एक भयानक, ठण्डी मुस्कान अपने चेहरे पर लाकर
उसने हिदायत दी मुझे: "बाहर हवा में मत खड़ी रहो!

इतना अच्‍छा अनुवाद....अब समझ आया कि एक साल में बारह किताबें कैसे पूरी की जा सकती हैं।
इस कविता को यहां लाने का शुक्रिया। बाक़ी के लिए इंतजार कर रहे हैं।

अमिताभ मीत said...

कमाल है .... बस कमाल है ...

Ek ziddi dhun said...

`दुःख और हताशा की कड़वी शराब`.....bahut achhi kavita, achha anuvad

ravindra vyas said...

बस ऐसी ही पोस्ट मांगता भिड़ू। ऐसी ही। मैं ऐसी ही कविताअों् को पढ़ते हुए मर जाना चाहता हूं...