Friday, October 17, 2008

यह कहानी अपने नए पाठ की दरकार तो जरूर करती है.

......आज करवा चौथ है.

आज सुबह- सुबह कई दफा फिल्म 'उमराव जान' ( नई वाली) का गीत सुना गया-


...अब जो किए हो दाता अइसा न कीजो
अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो...

.......यह गीत सुनकर मन भारी हो गया था. सुबह के उल्लास में उदासी का रंग घुल गया था जो दोपहर बाद बमुश्किल दूर हुआ. बाजार में पिछले कई दिनों से रौनक जारी थी. अब गली - गली मनिहार -चूड़ीहार फेरा नहीं लगाते सो चूड़ी -कंगन की दुकानें गुलजार थीं. शाम को फिल्म 'बाजार' का गाना सुना गया -

...चले आओ सैयां रंगीले मैं वारी रे
सजन मोहे तुम बिन भाये ना गजरा
जी भाये ना गजरा
ना मोतिया चमेली ना जूही ना मोगरा...

.......अभी कुछ देर पहले ही चाँद निकला है. अपनी छत से चाँद का दीदार कर अभी कमरे में आया हूं.इब्ने इंशा की नज्म 'उस आँगन का चाँद' की याद आ रही है-

....चाँद किसी का हो नहिं सकता , चाँद किसी का होता है;
चाँद की खातिर जिद नहीं करते ऐ मेरे प्यारे इंशा चाँद...

'प्रतिनिधि कवितायें' (इब्ने इंशा) खोज रहा हूँ , मिल नहीं रही है।अभी कल तक यहीं तो धरी थी. सचमुच कुछ चीजें हमारे निकट , हमारे आसपास ही होती हैं और हम परेशान - हलकान होकर उनकी तलाश में जुटे रहते हैं किन्तु वे कहीं , किसी कोने-आंतर में ऐसी बिलाई रहती हैं कि उनका होना अनुभवजगत के निकट प्राय: आ ही नहीं पाता. और यदि कभी अचानक वे संवेदना की सतह पर उतरा - सी जाती हैं तो लगता है कि यह किसी चमत्कार से कतई कम नहीं !

आज करवा चौथ पर बहुत सी बातें ,किस्से, कवितायें याद आ रही हैं लेकिन हिन्दी साहित्य के अनमोल खजाने से जो कहानी याद आ रही है, वह है - 'करवे का व्रत'. हिन्दी की प्रगतिशील / प्रगतिवादी कथाधारा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर यशपाल ( १९०३ - १९७६ ) की इस कहानी के पाठ पर कोई टिप्पणी न करते हुए यह कम पाठकों के जिम्मे, मगर एक बात- यह कहना जरूर है कि आज से आधी शताब्दी से अधिक समय पहले लिखी गई यह कहानी नए देश, काल ,वातावरण में अपने नए पाठ की दरकार तो जरूर करती है।
करवे का व्रत / यशपाल
कन्हैयालाल अपने दफ्तर के हमजोलियों और मित्रों से दो तीन बरस बड़ा ही था, परन्तु ब्याह उसका उन लोगों के बाद हुआ। उसके बहुत अनुरोध करने पर भी साहब ने उसे ब्याह के लिए सप्ताह-भर से अधिक छुट्टी न दी थी। लौटा तो उसके अन्तरंग मित्रों ने भी उससे वही प्रश्न पूछे जो प्रायः ऐसे अवसर पर दूसरों से पूछे जाते हैं और फिर वही परामर्श उसे दिये गये जो अनुभवी लोग नवविवाहितों को दिया करते हैं।

हेमराज को कन्हैयालाल समझदार मानता था। हेमराज ने समझाया-बहू को प्यार तो करना ही चाहिए, पर प्यार से उसे बिगाड़ देना या सिर चढ़ा लेना भी ठीक नहीं। औरत सरकश हो जाती है, तो आदमी को उम्रभर जोरू का गुलाम ही बना रहना पड़ता है। उसकी जरूरतें पूरी करो, पर रखो अपने काबू में। मार-पीट बुरी बात है, पर यह भी नहीं कि औरत को मर्द का डर ही न रहे। डर उसे ज़रूर रहना चाहिए... मारे नहीं तो कम-से-कम गुर्रा तो ज़रूर दे। तीन बात उसकी मानो तो एक में ना भी कर दो। यह न समझ ले कि जो चाहे कर या करा सकती है। उसे तुम्हारी खुशी-नाराजगी की परवाह रहे। हमारे साहब जैसा हाल न हो जाये। ...मैं तो देखकर हैरान हो गया। एम्पोरियम से कुछ चीजें लेने के लिये जा रहे थे तो घरवाली को पुकारकर पैसे लिये। बीवी ने कह दिया-' कालीन इस महीने रहने दो। अगले महीने सही', तो भीगी बिल्ली की तरह बोले ' अच्छा!' मर्द को रुपया-पैसा तो अपने पास में रखना चाहिये। मालिक तो मर्द है।

कन्हैया के विवाह के समय नक्षत्रों का योग ऐसा था कि ससुराल वाले लड़की की विदाई कराने के लिये किसी तरह तैयार नहीं हुये। अधिक छुट्टी नहीं थी इसलिये गौने की बात ' फिर' पर ही टल गई थी। एक तरह से अच्छा ही हुआ। हेमराज ने कन्हैया को लिखा-पढ़ा दिया कि पहले तुम ऐसा मत करना कि वह समझे कि तुम उसके बिना रह नहीं सकते, या बहुत खुशामद करने लगो।...अपनी मर्जी रखना, समझे। औरत और बिल्ली की जात एक। पहले दिन के व्यवहार का असर उस पर सदा रहता है। तभी तो कहते हैं कि ' गुर्बारा वररोजे अव्वल कुश्तन'- बिल्ली के आते ही पहले दिन हाथ लगा दे तो फिर रास्ता नहीं पकड़ती। ...तुम कहते हो, पढ़ी-लिखी है, तो तुम्हें और भी चौकस रहना चाहिये। पढ़ी-लिखी यों भी मिजाज दिखाती है।

निःश्वार्थ-भाव से हेमराज की दी हुई सीख कन्हैया ने पल्ले बाँध ली थी। सोचा- मुझे बाजार-होटल में खाना पड़े या खुद चौका-बर्तन करना पड़े, तो शादी का लाभ क्या? इसलिए वह लाजो को दिल्ली ले आया था। दिल्ली में सबसे बड़ी दिक्कत मकान की होती है। रेलवे में काम करने वाले, कन्हैया के जिले के बाबू ने उसे अपने क्वार्टर का एक कमरा और रसोई की जगह सस्ते किराये पर दे दी थी। सो सवा साल से मजे में चल रहा था।

लाजवन्ती अलीगढ़ में आठवीं जमात तक पढी थी। बहुत-सी चीजों के शौक थे। कई ऐसी चीजों के भी जिन्हें दूसरे घरों की लड़कियों को या नयी ब्याही बहुओं को करते देख मन मारकर रह जाना पड़ता था। उसके पिता और बड़े भाई पुराने ख्याल के थे। सोचती थी, ब्याह के बाद सही। उन चीजों के लिये कन्हैया से कहती। लाजो के कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि कन्हैया का दिल इनकार करने को न करता, पर इस ख्याल से कि वह बहुत सरकश न हो जाये, दो बात मानकर तीसरी पर इनकार भी कर देता। लाजो मुँह फुला लेती। लाजो मुँह फुलाती तो सोचती कि मनायेंगे तो मान जाऊँगी, आखिर तो मनायेंगे ही। पर कन्हैया मनाने की अपेक्षा डाँट ही देता। एक-आध बार उसने थप्पड़ भी चला दिया। मनौती की प्रतीक्षा में जब थप्पड़ पड़ जाता तो दिल कटकर रह जाता और लाजो अकेले में फूट-फूटकर रोती। फिर उसने सोच लिया- ' चलो, किस्मत में यही है तो क्या हो सकता है?' वह हार मानकर खुद ही बोल पड़ती।

कन्हैया का हाथ पहली दो बार तो क्रोध की बेबसी में ही चला था, जब चल गया तो उसे अपने अधिकार और शक्ति का अनुभव होने लगा। अपनी शक्ति अनुभव करने के नशे से बड़ा नशा दूसरा कौन होगा ? इस नशे में राजा देश-पर-देश समेटते जाते थे, जमींदार गाँव-पर-गाँव और सेठ मिल और बैंक खरीदते चले जाते हैं। इस नशे की सीमा नहीं। यह चस्का पड़ा तो कन्हैया के हाथ उतना क्रोध आने की प्रतीक्षा किये बिना भी चल जाते।

मार से लाजो को शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी, पर उससे अधिक होती थी अपमान की पीड़ा। ऐसा होने पर वह कई दिनों के लिये उदास हो जाती। घर का सब काम करती। बुलाने पर उत्तर भी दे देती। इच्छा न होने पर भी कन्हैया की इच्छा का विरोध न करती, पर मन-ही-मन सोचती रहती, इससे तो अच्छा है मर जाऊँ। और फिर समय पीड़ा को कम कर देता। जीवन था तो हँसने और खुश होने की इच्छा भी फूट ही पड़ती और लाजो हँसने लगती। सोच यह लिया था, ' मेरा पति है, जैसा भी है मेरे लिये तो यही सब कुछ है। जैसे यह चाहता है, वैसे ही मैं चलूँ।' लाजो के सब तरह अधीन हो जाने पर भी कन्हैया की तेजी बढ़ती ही जा रही थी। वह जितनी अधिक बेपरवाही और स्वच्छन्दता लाजो के प्रति दिखा सकता, अपने मन में उसे उतना ही अधिक अपनी समझने और प्यार का संतोष पाता।

क्वार के अन्त में पड़ोस की स्त्रियाँ करवा चौथ के व्रत की बात करने लगीं। एक-दूसरे को बता रही थीं कि उनके मायके से करवे में क्या आया। पहले बरस लाजो का भाई आकर करवा दे गया था। इस बरस भी वह प्रतीक्षा में थी। जिनके मायके शहर से दूर थे, उनके यहाँ मायके से रुपये आ गए थे। कन्हैया अपनी चिठ्ठी-पत्री दफ्तर के पते से ही मँगाता था। दफ्तर से आकर उसने बताया, ' तुम्हारे भाई ने करवे के दो रुपये भेजे हैं।'

करवे के रुपये आ जाने से ही लाजो को संतोष हो गया। सोचा, भैया इतनी दूर कैसे आते? कन्हैया दफ्तर जा रहा था तो उसने अभिमान से गर्दन कन्धे पर टेढ़ी कर और लाड़ के स्वर में याद दिलाया- ' हमारे लिए सरघी में क्या-क्या लाओगे...?'

और लाजो ने ऐसे अवसर पर लाई जाने वाली चीजें याद दिला दीं। लाजो पड़ोस में कह आई कि उसने भी सरघी का सामान मँगाया है। करवा चौथ का व्रत भला कौन हिन्दू स्त्री नहीं करती? जनम-जनम यही पति मिले, इसलिए दूसरे व्रतों की परवाह न करने वाली पढ़ी-लिखी स्त्रियां भी इस व्रत की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।

अवसर की बात, उस दिन कन्हैया लंच की छुट्टी में साथियों के साथ कुछ ऐसे काबू में आ गया कि सवा तीन रुपये खर्च हो गये। वह लाजो का बताया सरघी का सामान घर नहीं ला सका। कन्हैया खाली हाथ घर लौटा तो लाजो का मन बुझ गया। उसने गम खाना सीखकर रूठना छोड़ दिया था, परन्तु उस साँझ मुँह लटक ही गया। आँसू पोंछ लिए और बिना बोले चौके-बर्तन के काम में लग गयी। रात के भोजन के समय कन्हैया ने देखा कि लाजो मुँह सुजाये है, बोल नहीं रही है, तो अपनी भूल कबूल कर उसे मनाने या कोई और प्रबंध करने का आश्वासन देने के बजाय उसने उसे डाँट दिया।

लाजो का मन और भी बिंध गया। कुछ ऐसा खयाल आने लगा-इन्ही के लिए तो व्रत कर रही हूँ और यही ऐसी रुखाई दिखा रहे हैं। ... मैं व्रत कर रही हूँ कि अगले जनम में भी 'इन' से ही ब्याह हो और मैं सुहा ही नहीं रही हूँ...। अपनी उपेक्षा और निरादर से भी रोना आ गया। कुछ खाते न बना। ऐसे ही सो गयी।

तड़के पड़ोस में रोज की अपेक्षा जल्दी ही बर्तन भांडे खटकने की आवाज आने लगी। लाजो को याद आने लगा-शान्ति बता रही थी कि उसके बाबू सरघी के लिये फेनियाँ लाये हैं, तार वाले बाबू की घरवाली ने बताया था कि खोए की मिठाई लाये हैं। लाजो ने सोचा, उन मर्दों को खयाल है न कि हमारी बहू हमारे लिये व्रत कर रही है; इन्हें जरा भी खयाल नहीं।

लाजो का मन इतना खिन्न हो गया कि सरघी में उसने कुछ भी न खाया। न खाने पर भी पति के नाम का व्रत कैसे न रखती। सुबह-सुबह पड़ोस की स्त्रियों के साथ उसने भी करवे का व्रत करने वाली रानी और करवे का व्रत करने वाली राजा की प्रेयसी दासी की कथा सुनने और व्रत के दूसरे उपचार निबाहे। खाना बनाकर कन्हैयालाल को दफ्तर जाने के समय खिला दिया। कन्हैया ने दफ्तर जाते समय देखा कि लाजो मुँह सुजाए है। उसने फिर डांटा- ' मालूम होता है कि दो-चार खाये बिना तुम सीधी नहीं होगी।'

लाजो को और भी रुलाई आ गयी। कन्हैया दफ्तर चला गया तो वह अकेली बैठी कुछ देर रोती रही। क्या जुल्म है। इन्ही के लिये व्रत कर रही हूँ और इन्हें गुस्सा ही आ रहा है। ...जनम-जनम ये ही मिलें इसीलिये मैं भूखी मर रही हूँ। ...बड़ा सुख मिल रहा है न!...अगले जनम में और बड़ा सुख देंगे!...ये ही जनम निबाहना मुश्किल हे रहा है। ...इस जनम में तो इस मुसीबत से मर जाना अच्छा लगता है, दूसरे जनम के लिये वही मुसीबत पक्की कर रही हूँ...।

लाजो पिछली रात भूखी थी, बल्कि पिछली दोपहर के पहले का ही खाया हुआ था। भूख के मारे कुड़मुड़ा रही थी और उसपर पति का निर्दयी व्यवहार। जनम-जनम, कितने जनम तक उसे ऐसा ही व्यवहार सहना पड़ेगा! सोचकर लाजो का मन डूबने लगा। सिर में दर्द होने लगा तो वह धोती के आँचल सिर बाँधकर खाट पर लेटने लगी तो झिझक गई-करवे के दिन बान पर नहीं लेटा या बैठा जाता। वह दीवार के साथ फर्श पर ही लेट रही।

लाजो को पड़ोसिनों की पुकार सुनाई दी। वे उसे बुलाने आई थीं। करवा-चौथ का व्रत होने के कारण सभी स्त्रियाँ उपवास करके भी प्रसन्न थीं। आज करवे के कारण नित्य की तरह दोपहर के समय सीने-पिरोने, काढ़ने-बुनने का काम किया नहीं जा सकता था; करवे के दिन सुई, सलाई, और चरखा छुआ नहीं जाता। काज से छुट्टी थी और विनोद के लिए ताश या जुए की बैठक जमाने का उपक्रम हो रहा था। वे लाजो को भी उसी के लिये बुलाने आयी थीं। सिर-दर्द और मन के दुःख के करण लाजो जा नहीं सकी। सिर-दर्द और बदन टूटने की बात कहकर वह टाल गयी और फिर सोचने लगी-ये सब तो सुबह सरघी खाये हुये हैं। जान तो मेरी ही निकव रही है।...फिर अपने दुःखी जीवन के कारण मर जाने का खयाल आया और कल्पना करने लगी कि करवा-चौथ के दिन उपवास किये-किये मर जाये, तो इस पुण्य से जरूर ही यही पति अगले जन्म में मिले...।

लाजो की कल्पना बावली हो उठी। वह सोचने लगी-मैं मर जाऊँ तो इनका क्या है, और ब्याह कर लेंगे। जो आएगी वह भी करवाचौथ का व्रत करेगी। अगले जनम में दोनों का इन्हीं से ब्याह होगा, हम सौतें बनेंगी। सौत का खयाल उसे और भी बुरा लगा। फिर अपने-आप समाधान हो गया-नहीं, पहले मुझसे ब्याह होगा, मैं मर जाऊँगी तो दूसरी से होगा। अपने उपवास के इतने भयंकर परिणाम की चिंता से मन अधीर हो उठा। भूख अलग व्याकुल किये थी। उसने सोचा-क्यों मैं अपना अगला जनम भी बरबाद करूँ? भूख के कारण शरीर निढाल होने पर भी खाने को मन नहीं हो रहा था, परन्तु उपवास के परिणाम की कल्पना से मन मन क्रोध से जल उठा; वह उठ खड़ी हुई।

कन्हैयालाल के लिये उसने सुबह जो खाना बनाया था उसमें से बची दो रोटियाँ कटोरदान में पड़ी थीं। लाजो उठी और उपवास के फल से बचने के लिये उसने मन को वश में कर एक रोटी रूखी ही खा ली और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। मन बहुत खिन्न था। कभी सोचती-ठीक ही तो किया, अपना अगला जनम क्यों बरबाद करूँ? ऐसे पड़े-पड़े झपकी आ गई।

कमरे के किवाड़ पर धम-धम सुनकर लाजो ने देखा, रोशनदान से प्रकाश की जगह अन्धकार भीतर आ रहा था। समझ गई, दफ्तर से लौटे हैं। उसने किवाड़ खोले और चुपचाप एक ओर हट गई।

कन्हैयालाल ने क्रोध से उसकी तरफ देखा-' अभी तक पारा नहीं उतरा! मालूम होता है झाड़े बिना नहीं उतरेगा !'

लाजो के दुखे हुये दिल पर और चोट पड़ी और पीड़ा क्रोध में बदल गई। कुछ उत्तर न दे वह घूमकर फिर दीवार के सहारे फर्श पर बैठ गई।

कन्हैयालाल का गुस्सा भी उबल पड़ा- ' यह अकड़ है! ...आज तुझे ठीक कर ही दूँ।' उसने कहा और लाजो को बाँह से पकड़, खींचकर गिराते हुये दो थप्पड़ पूरे हाथ के जोर से ताबड़तोड़ जड़ दिये और हाँफते हुये लात उठाकर कहा, ' और मिजाज दिखा?... खड़ी हो सीधी।'

लाजो का क्रोध भी सीमा पार कर चुका था। खींची जाने पर भी फर्श से उठी नहीं। और मार खाने के लिये तैयार हो उसने चिल्लाकर कहा,' मार ले, मार ले! जान से मार डाल! पीछा छूटे! आज ही तो मारेगा! मैंने कौन व्रत रखा है तेरे लिये जो जनम-जनम मार खाऊंगी। मार, मार डाल...!'

कन्हैयालाल का लात मारने के लिये उठा पाँव अधर में ही रुक गया। लाजो का हाथ उसके हाथ से छूट गया। वह स्तब्ध रह गया। मुँह में आई गाली भी मुँह में ही रह गई। ऐसे जान पड़ा कि अँधेरे में कुत्ते के धोखे जिस जानवर को मार बैठा था उसकी गुर्राहट से जाना कि वह शेर था; या लाजो को डाँट और मार सकने का अधिकार एक भ्रम ही था। कुछ क्षण वह हाँफता हुआ खड़ा सोचता रहा और फिर खाट पर बैठकर चिन्ता में डूब गया। लाजो फर्श पर पड़ी रो रही थी। उस ओर देखने का साहस कन्हैयालाल को न हो रहा था। वह उठा और बाहर चला गया।

लाजो पर्श पर पड़ी फूट-फूटकर रोती रही। जब घंटे-भर रो चुकी तो उठी। चूल्हा जलाकर कम-से-कम कन्हैया के लिए खाना तो बनाना ही था। बड़े बेमन उसने खाना बनाया। बना चुकी तब भी कन्हैयालाल लौटा नहीं था। लाजो ने खाना ढँक दिया और कमरे के किवाड़ उड़काकर फिर फर्श पर लेट गई। यही सोच रही थी, क्या मुसीबत है जिन्दगी। यही झेलना था तो पैदा ही क्यों हुई थी?...मैने क्या किया था जो मारने लगे।

किवाड़ों के खुलने का शब्द सुनाई दिया। वह उठने के लिये आँसुओं से भीगे चेहरे को आँचल से पोंछने लगी। कन्हैयालाल ने आते ही एक नजर उसकी ओर डाली। उसे पुकारे बिना ही वह दीवार के साथ बिछी चटाई पर चुपचाप बैठ गया।

कन्हैयालाल का ऐसे चुप बैठ जाना नई बात थी, पर लाजो गुस्से में कुछ न बोल रसोई में चली गई। आसन डाल थाली-कटोरी रख खाना परोस दिया और लोटे में पानी लेकर हाथ धुलाने के लिए खड़ी थी। जब पाँच मिनट हो गये और कन्हैयालाल नहीं आया तो उसे पुकारना ही पड़ा, ' खाना परस दिया है।'

कन्हैयालाल आया तो हाथ नल से धोकर झाड़ते हुये भीतर आया। अबतक हाथ धुलाने के लिए लाजो ही उठकर पानी देती थी। कन्हैयालाल दो ही रोटी खाकर उठ गया। लाजो और देने लगी तो उसने कह दिया ' और नहीं चाहिये।' कन्हैयालाल खाकर उठा तो रोज की तरह हाथ धुलाने के लिये न कहकर नल की ओर चला गया।

लाजो मन मारकर स्वयं खाने बैठी तो देखा कि कद्दू की तरकारी बिलकुल कड़वी हो रही थी। मन की अवस्था ठीक न होने से हल्दी-नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी लज्जा अनुभव हुई, ' हाय, इन्होंने कुछ कहा भी नहीं। यह तो जरा कम-ज्यादा हो जाने पर डाँट देते थे।'

लाजो से दुःख में खाया नहीं गया। यों ही कुल्ला कर, हाथ धोकर इधर आई कि बिस्तर ठीक कर दे, चौका फिर समेट देगी। देखा तो कन्हैयालाल स्वयं ही बिस्तर झाड़कर बिछा रहा था। लाजो जिस दिन से इस घर में आई थी ऐसा कभी नहीं हुआ था।

लाजो ने शरमाकर कहा, ' मैं आ गई, रहने दो। किये देती हूँ।' और पति के हाथ से दरी चादर पकड़ ली। लाजो बिस्तर ठीक करने लगी तो कन्हैयालाल दूसरी ओर से मदद करता रहा। फिर लाजो को सम्बोधित किया, ' तुमने कुछ खाया नहीं। कद्दू में नमक ज्यादा हो गया है। सुबह और पिछली रात भी तुमने कुछ नहीं खाया था। ठहरो, मैं तुम्हारे लिये दूध ले आता हूँ।'

लाजो के प्रति इतनी चिन्ता कन्हैयालाल ने कभी नहीं दिखाई थी। जरूरत भी नहीं समझी थी। लाजो को उसने 'चीज' समझा था। आज वह ऐसे बात कर रहा था जैसे लाजो भी इन्सान हो; उसका भी खयाल किया जाना चाहिये। लाजो को शर्म तो आ ही रही थी पर अच्छा भी लग रहा था। उसी रात से कन्हैयालाल के व्यवहार में एक नरमी-सी आ गई। कड़े बोल की तो बात क्या, बल्कि एक झिझक-सी हर बात में; जैसे लाजो के किसी बात के बुरा मान जाने की या नाराज हो जाने की आशंका हो। कोई काम अधूरा देखता तो स्वयं करने लगता। लाजो को मलेरिया बुखार आ गया तो उसने उसे चौके के समीप नहीं जाने दिया। बर्तन भी खुद साफ कर लिये। कई दिन तो लाजो को बड़ी उलझन और शर्म महसूस हुई, पर फिर पति पर और अधिक प्यार आने लगा। जहाँ तक बन पड़ता घर का काम उसे नहीं करने देती, 'यह काम करते मर्द अच्छे नहीं लगते...।'

उन लोगों का जीवन कुछ दूसरी ही तरह का हो गया। लाजो खाने के लिये पुकारती तो कन्हैया जिद करता, ' तुम सब बना लो, फिर एक साथ बैठकर खायेंगे।' कन्हैया पहले कोई पत्रिका या पुस्तक लाता था तो अकेला मन-ही-मन पढ़ा करता था। अब लाजो को सुनाकर पढ़ता या खुद सुन लेता। यह भी पूछ लेता, ' तुम्हे नींद तो नहीं आ रही ? '

साल बीतते मालूम न हुआ। फिर करवाचौथ का व्रत आ गया। जाने क्यों लाजो के भाई का मनीआर्डर करवे के लिये न पहुँचा था। करवाचौथ के पहले दिन कन्हैयालाल दफ्तर जा रहा था। लाजो ने खिन्नता और लज्जा से कहा, ' भैया करवा भेजना शायद भूल गये।'

कन्हैयालाल ने सांत्वना के स्वर में कहा,' तो क्या हुआ? उन्होंने जरूर भेजा होगा। डाकखाने वालों का हाल आजकल बुरा है। शायद आज आ जाये या और दो दिन बाद आये। डाकखाने वाले आजकल मनीआर्डर के पन्द्रह-पन्द्रह दिन लगा देते हैं। तुम व्रत-उपवास के झगड़े में मत पड़ना। तबियत खराब हो जाती है। यों कुछ मंगाना ही है तो बता दो, लेते आयेंगे, पर व्रत-उपवास से होता क्या है ? सब ढकोसले हैं।'

'वाह, यह कैसे हो सकता है! हम तो जरूर रखेंगे व्रत। भैया ने करवा नहीं भेजा न सही। बात तो व्रत की है, करवे की थोड़े ही।' लाजो ने बेपरवाही से कहा।

सन्ध्या-समय कन्हैयालाल आया तो रूमाल में बँधी छोटी गाँठ लाजो को थमाकर बोला, ' लो, फेनी तो मैं ले आया हूँ, पर ब्रत-व्रत के झगड़े में नहीं पड़ना।' लाजो ने मुस्कुराकर रूमाल लेकर आलमारी में रख दिया।

अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार कर कन्हैया को रसोई से पुकारा, ' आओ, खाना परस दिया है।' कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी के लिये परोसा था- ' और तुम?' उसने लाजो की ओर देखा।

' वाह, मेरा तो व्रत है! सुबह सरघी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।' लाजो ने मुस्कराकर प्यार से बताया।

' यह बात...! तो हमारा भी ब्रत रहा।' आसन से उठते हुये कन्हैयालाल ने कहा।

लाजो ने पति का हाथ पकड़कर रोकते हुये समझाया, ' क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवाचौथ का व्रत रखते हैं!...तुमने सरघी कहाँ खाई?'

'नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता है ।' कन्हैया नहीं माना,' तुम्हें अगले जनम में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!'

लाजो पति की ओर कातर आँखों से देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था।
( चित्र 'अमर उजाला' से और यशपाल जी की कहानी 'गद्य कोश' से साभार)

6 comments:

शिरीष कुमार मौर्य said...

कहानी ही नहीं, आपकी इस मेहनत को भी नए पाठ की दरकार है जवाहिर चा !

Unknown said...

अगले साल से मैं आपके लिए व्रत रखूंगा। इस साल आप मेरा उपयोग सरघी की तरह करें।

Unknown said...

न पचूं तो तीन रत्ती हींग गुलबकावली की जड़ के साथ बराबर भाग नीहार मुंह सेवन करें।

एस. बी. सिंह said...

कहानी फ़िर से पढ़वाने का धन्यवाद। भाई जितनी अच्छी कहानी उतनी ही भावपूर्ण भूमिका । पुनः धन्यवाद

Ashok Pande said...

उत्तम गद्द लिखौ बाऊजी! जभी तै मैंने कई थी उद्दिन!

वीरेन डंगवाल said...

jab maine parhna shuru hi kiya tabhi mai jaan gaya ki ye apna bhai siddhe hai,aur koi nahi.shabbas dost,aur dhanyavad,meri taraf se bhi aur vratdhari striyon ki taraf se bhi.tumhe bhi yashpalji ke hi barabar.