Friday, December 19, 2008

रोटीपानी की फ़िक्र से परे सोनापानी में









दिल्ली में नौकरी आपसे बहुत कुछ छीन लेती है। मेरे साथ यही हो रहा है। सृजन स्रोत सूखने लगे हैं। परिवार को समय नहीं दे पा रहा। सुबह ग्यारह से रात नौ-दस तक की नौकरी - फिर समय ही कितना बचता है! सोचिए प्रिंट में ये हाल है तो चैनलों में क्या हो रहा होगा!

बहरहाल, दीवाली के मौके पर जब बेटी को स्कूल से छुट्टी मिली, तो पत्नी ने भी हफ्ते भर की छुट्टी ले ली। मुझे यह दिल्ली की दहशत से निकलकर पहाड़ों की खुली हवा में जाने का अच्छा मौका लगा, सो मैंने भी तीन दिन की छुट्टी ले ली। आनन-फानन हलद्वानी में अशोक पांडे को फोन लगाया गया। उसने सुझाव दिया कि हम एक रात आशीष की खोज 'सोनापानी' में जरूर बिताएं। मैंने दिल्ली से रेल के टिकट करवा लिए।

शशि (पत्नी) और हितू (बेटी) दोनों खुश थे। मगर हमारी खुशी पर जल्दी ही रिजर्वेशन का ग्रहण लगा। पत्रकार होने के नाते बने संपर्क भी काम नहीं आए और पता चला कि रेल के छूटने से कुछ घंटे पहले तैयार होने वाले अंतिम चार्ट में भी हमारा नाम वेटिंग लिस्ट में ही था। एक अंतिम प्रयास के रूप में अशोक ने किसी भाटिया का नाम लेते हुए बताया कि वह हमें सीट दिलवा देगा, मगर हमें उसकी फीस देनी होगी। मगर भाटिया साहब ने भी हाथ खड़े कर लिए - साहब, अगर सिर्फ आज जुम्मा न होता - भविष्य में याद रखिएगा कि जुम्मे के दिन रेल से यात्रा न करें।

घर में सारा सामान बेतरह बिखरा हुआ था। मैंने जैसे ही भाटिया की हिदायत सार्वजनिक की, शशि और हितू दोनों के चेहरे मुरझा गए। शशि मेरी लेटलतीफी को कोसने से खुद को नहीं रोक सकी - कब से कह रही थी, टिकट बुक करवा लो, मगर आपका कोई प्लान टाइम पर बनता ही नहीं। अब खुद चुप कराओ अपनी बेटी को।

बेटी बिस्तर पर औंधे मुंह गिरी सुबक रही थी। उसने अपनी मां की तरह मुझ पर शब्दों का प्रहार नहीं किया, मगर उसके आंसू शब्दों से कहीं ज्यादा मारक थे। स्थिति को संभालने के लिए मैंने फैसला किया कि रेल से न सही, हम अपनी गाड़ी से जाएंगे। करीब डेढ़ हजार किलोमीटर ड्राइविंग करना आसान न था। खासकर यह देखते हुए कि गई रात से मेरी पीठ की मांसपेशी खिंची हुई थी, लेकिन मैं पत्नी और बेटी को खुश करने के लिए पीठ का दर्द सहन कर सकता था।

अगले दिन सुबह ग्यारह बजते-बजते हम नैशनल हाइवे -24 पर थे। अशोक को मैंने फोन कर दिया था। अंदाजा यह था कि शाम 7 बजे तक हमें हलद्वानी में होंगे। ऐसा ही होता बशर्ते कि हमें बिलासपुर से पहले करीब 20-25 किलोमीटर की खस्ता रोड नहीं मिलती। लंबी यात्राओं में ऐसी ही सडक़ें अस्थिपंजर ढीले करने का काम करती है। अशोक के घर पहुंचने तक रात का 9 बज गया। हमारे लिए खुशी की वजह यह थी कि इस यात्रा के दौरान बेटी हितू की तबीयत खराब नहीं हुई। दो दिन पहले ही डॉक्टर ने उसे हल्का वायरल होने की बात की थी। उसे गले में बुखार वाला दर्द था और रुक-रुक कर खांसी उठ रही थी। वह दवा भी ले रही थी।

अशोक ने हमें (मेरी पत्नी को ज्यादा) इंप्रेस करने का पूरा इंतजाम किया हुआ था। उसके घर पहुंच जरा सुस्ताए भी नहीं कि उसने झटपट खाना लगवा दिया। चूंकि सारा खाना उसने अपने कुशल हाथों से बनाया था, वह शायद नहीं चाहता रहा हो कि वह ठंडा होकर अपना स्वाद खोए। उसकी हरकतों को देख मुझे अफसोस हुआ कि मैं उसके लिए स्कॉच की बोतल क्यों लाया। सोचा यह था कि साथ बैठकर इधर-उधर की पेटभरकर बातें करते हुए यह बोतल आधी तो हो ही जाएगी, पर यहां इस कम्बख्त ने सीधे ही खाना लगा दिया था। उस लजीज खाने की खुशबू ने यात्रा की थकान को और बढ़ा दिया। मैं किसी तरह उस बोतल से एक पैग बनाकर हलक पाया। वैसे मुझे यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि खाने की महक ने मेरी पीने की इच्छा को मार डाला था। वाकई, क्या खाना था भई, वाह! मुरगी (मुर्गा नहीं, वह इतना लजीज नहीं हो सकता) के टुकड़ों को भूनकर बनाया गया शोरबा, गोभी और पनीर की सब्जी, पीली दाल और रायता। खाने के बाद शशि ने शिकायत की कि वह ज्यादा खा गई। खाने के बाद हम जल्दी ही सो गए। हां, मैं हितू को रात का आसमान दिखाना न भूला, जो दिल्ली की बनिस्बत ज्यादा साफ और उजला था हालांकि उतना भी नहीं, जितना हम सोनापानी में देखने वाले थे।

अगले दिन सुबह हमने अपने इस चार दिन तीन रातों के ट्रिप का खाका तैयार किया। पहले सोनापानी फिर रामनगर में वाइल्ड लाइफ सफारी और अगले दिन वापस दिल्ली रवानगी।

हम सुबह बिना ज्यादा समय गंवाए सोनापानी की ओर चल पड़े। अशोक ने हमें उसकी लोकेशन के बारीक ब्यौरे लिखवा दिए थे। हलद्वानी से पहले हम भवाली पहुंचे। दिन में पहाड़ की ठंड में ड्राइविंग का मजा ही कुछ और था। अशोक से मैंने एक स्वेटर मार ली थी। हम जितना ऊपर जा रहे थे, ठंड बढ़ती जा रही थी। रास्ते में मैंने शशि की पहाड़ों की खास चटनी के साथ गर्म गर्म पकौड़े खाने की इच्छा पूरी की। गई रात अशोक ने जिस तरह जल्दी खाना खिलाकर मुझे छुट्टी मनाने के मेरे अपने ढंग से महरूम किया था, उसकी कसर पूरी करने के लिए मैंने भवाली में अंग्रेजी शराब की दुकान से बीयर का एक कैन ले लिया। रामगढ़ पहुंचते पहुंचते हम जल्दी सोनापानी पहुंचने को बेसब्र होने लगे थे। उसके बारे में हमें बातें ही ऐसी बताई गई थीं। हम खुश इस बात पर भी थे कि अभी तक बेटी को पहाड़ी सफर से कोई दिक्कत नहीं हुई थी। वह यह सोचकर भी बहुत उत्तेजित थी कि उसे सोनापानी में खेलने को एक दोस्त (आशीष की बेटी) और बहुत सारे झूले मिलेंगे।

सोनापानी पहुंचने के लिए आपको करीब एक किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। यह दूरी आपकी उत्सुकता को और बढ़ाने का काम करती है क्योंकि आशीथ का रेजॉर्ट पहाड़ की ओट में इस तरह छिपा हुआ है कि अंतिम कुछ कदमों की दूरी रहने पर ही इसकी पहली झलक दिखाई पड़ती है। हमें भी अंतत: उसकी झलक दिखाई दी। झलक ऐसी कि हम तीनों के मुंह से ओह वाउ! जैसे शब्द निकले। अगले कुछ क्षणों तक उस जगह की खूबसूरती को आत्मसात करते हुए हम ऐसी ही अभिव्यक्ति के पयार्यवाची दुहराते रहे। बांज के पेड़ों की ठंडी छायाओं से भरे जंगल से घिरी वह जगह वाकई अनायास ही आपके सामने खुलती है और आप फलों और फूलों से लदे पेड़ों से पटी उस जगह से सामने दूर हिमालय की बर्फीली चोटियां देखकर कुछ देर तक स्तब्ध रह जाते हैं - जैसे अचानक किसी ने आपके सम्मुख बंद स्वर्ग का द्वार खोल दिया हो। यह स्वर्ग फिल्मों में दिखने वाले स्वर्ग जैसा न था जहां स्वर्णजडि़त लिबास में सजे संवरे देवताओं के सामने धवल वस्त्रों में अप्सराएं नृत्य करती दिखें, बल्कि यहां सिर्फ और सिर्फ प्रकृति थी, नजर के छोर तक पसरी हुई। प्राकृतिक सुंदरता के साथ वहां माहौल में एक गहरा अपनापन भी लगा, जो अजनबियों को अजनबी नहीं रहने देता। आशीष अपनी पत्नी दीपा और बेटी वन्या के साथ हमारा ही इंतजार कर रहा था। मगर उन्हें कुछ ही देर में हलद्वानी की ओर निकल जाना था। उन्होंने हमारे लिए दिन का भोजन तैयार करवाया हुआ था। हितू वन्या के साथ खेलने लगी। साथ खेलने के लिए एक साथी पाकर वह वहां झूले न होने की निराशा से निकल आई। मैं इस बीच हाथ मुंह धोने का बहाना बना हमारे लिए तय की गई कॉटेज में चला गया और सामने हिमाच्छादित पहाड़ों को देखते हुए जल्दी जल्दी बीयर की बड़ी बड़ी घूंट लेने लगा। घूंट लगाते हुए मैं इस एहसास से भरा हुआ था कि मैं अपने जीवन के कुछ बेहतरीन पलों को जी रहा था।

आशीष ने खाने के लिए एक अलग डाइनिंग हॉल बनाया हुआ था। खाना जिन डोंगों में रखा था, वे भी खास बनावट के और कुछ प्राचीन दिखते थे। यह बंदोबस्त मुझे इसलिए भी अच्छा लगा कि यहां आने वाले लोग एक साथ खाना खाते हुए एकदूसरे से जान पहचान बढ़ा सकते थे। प्रकृति के ऐसे एकांत में आकर, जहां साल के आठ महीने ठंड रहती है, दूसरे लोगों से पहचान बढ़ाना जीवन की ऊष्मा पाने जैसा ही था। हमारे अलावा वहां दो दंपत्ति वहां थे। एक भारतीय युवती के साथ रह रहा अमेरिकी नागरिक था, जो वहां नजदीक ही स्थित एक एनजीओ से जुड़ा था और साल में छह महीने यहीं गुजारता था और दूसरा नोएडा से आया एक यंग कपल, करीब तीन वर्ष के बातूनी बेटे के साथ।

लंच के बाद आशीष को निकलना था। मुझे यह जानकर बहुत हैरानी हुई कि वन्या पैदल ही वहां से रोज करीब दो किलोमीटर दूर स्कूल जाती थी। हितू उससे उम्र में बड़ी थी मगर यहां आते हुए उसे एक किलोमीटर का पैदल रास्ता भी बहुत कठिन जान पड़ा था। तब मुझे एक पीड़ा भरा एहसास हुआ कि हितू पहाड़ी पिता की पुत्री जरूर थी मगर खुद वह शहरी हो गई थी और ज्यादा पैदल न चलना शहरी प्राणियों की आदत हो जाती है। तब एक पल को मैंने सोचा कि परिवेश और जरूरतों की हमारी शारीरिक सामथ्र्य के निर्माण में कितनी अहम भूमिका होती है।

लंच के बाद हम लोग अपने कॉटेज में आकर सो गए। शशि और हितू यात्रा की थकान से और मैं थकान और हेवर्ड 10000 के खुमार के सम्मिलित प्रभाव से।

जाड़ों में पहाड़ों में रात जल्दी हो जाती है। उठने तक अंधेरा घिर आया था। रजाई से बाहर निकलते ही हमें एहसास हुआ कि बाहर ठंड कितनी ज्यादा है। अंधेरे में हमें लगा कि हम पूरी दुनिया से कट गए हैं। सिर्फ बीच बीच में बजने वाले हमारे मोबाइल थे जो हमें बाहरी दुनिया से जुड़े होने का यकीन दिला रहे थे। इस बीच अशोक हमसे लगातार संपर्क में था। मूल योजना के मुताबिक तो उसे हमारे साथ होना था, मगर दीवाली में कई रिेश्तेदार उसके घर पधार रहे थे, उनकी खातिर उसे रुकना पड़ा। वह अपने न आ पाने की कमी को पूरा करना चाहता था, सो उसने रिजॉर्ट के अपने परिचित स्टाफ को कहकर हमारे लिए कैंप फायर की व्यवस्था करवा दी। एक खुली जगह पर बीच में आग जलाकर चारों ओर कुर्सियां रख दी गईं। मेरे लिए खासकर एक मेज और सोडा आदि की बोतलें लग गईं। भारतीय युवती के साथ वह अमेरिकी सज्जन और नोएडा से आया दंपत्ति भी वहीं आ गए। एक छोटे आकार का सफेद पहाड़ी कुत्ता भी आग सेकने वहां चला आया था। अब अगले दिन तक हितू ने उसे छोडऩा नहीं था।

छोटे बच्चों वाले दो परिवारों में जल्दी दोस्ती हो जाती है क्योंकि बड़ों को बच्चों के बहाने बातें करना ज्यादा सहज लगता है। नोएडा वाले दंपत्ति से हमने बहुत सी बातें साझा कीं। मुझे सोनापानी में ठंड का आइडिया था, सो मैं यहां के लिए रम की बोतल लेता आया था। चारों ओर फेले घुप अंधेरे के बीच आग की गर्मी महसूस करते हुए गर्म पानी के साथ रम के पैग लेना - यह एक ओर अनुभव था जिसे मैंने बहुत बोधपूर्ण होकर आत्मसात करने की कोशिश की, यह सोचते हुए कि इस माहौल की विरलता और ऊष्मा का मैं किसी कविता कहानी में जरूर उपयोग करूंगा। मैंने अमेरिकी टूरिस्ट को भी रम का पैग ऑफर किया - यह हमारे बहादुर सिपाहियों का सबसे पसंदीदा डिं्रक है - मैंने उसे बताया। उसने खुशी से मेरा ऑफर स्वीकार कर लिया। उस ठंड में कोई ऐसा ऑफर ठुकरह्वाए भी तो कैसे। उस अमेरिकी से अमेरिका में मंदी और राजनीति पर बातें हुई। मैं उसे अपने सोमालिया के अनुभव सुनाना न भूला, जहां मैंने अमेरिकी सेना के साथ काम किया था । मैंने उसे बताया कि किस तरह सोमाली लड़ाकुओं ने अमेरिकी सेना का विरोध किया और उनके ब्लैक हॉक हैलीकॉप्टर जमींदोज किए। कुल मिलाकर वह शाम बहुत यादगार रही। बेटी इस बीच उसी सफेद कुत्ते के साथ खेल रही थी बार-बार उसके मुलायम बालों पर हाथ फेरती हुई।

आग के पास से उठकर डाइनिंग हॉल में आए तो एकाएक मेरे दांत ठंड से किटकिटाने लगे। गर्म गर्म दाल सब्जी के साथ दो-तीन रोटियां और एक दो हरी मिर्च खा लेने के बाद ही दांतों ने किटकिटाना बंद किया। वापस कॉटेज में लौटते हुए मैं हितू को आसमान में जगमगाते तारे दिखाना नहीं भूला। तारों से भरा वह आसमान कैसा लग रहा था, इसे बयां करना मुश्किल है। हितू हवा में उछलकर कुछ तारे तोडऩे की कोशिश कर रही थी। मैंने अनेक दृश्यों की तरह इस दृश्य को भी अपने भीतर 'सेवÓ कर लिया।

अगले रोज सुबह हम सूर्योदय से पहले ही उठ गए। शशि अपना कैमरा लेकर बाहर निकल गई और मैं सुबह दौड़ लगाने के अपने फितूर की राह पर। गई रात यहां के स्टाफ ने हमें बाघ के किस्से सुनाए थे। इसलिए मैं इतनी तडक़े अकेले ज्यादा दूर नहीं निकलना चाहता था। पर पता नहीं कहां से वह रात वाला सफेद कुत्ता मेरे पीछे हो लिया। कुत्ते का साथ पाकर मैं भी शेर हो गया। मैंने महसूस किया कि एक किलोमीटर के करीब दौड़ लगाकर ही मैं बहुत थकान महसूस करने लगा था। दिल्ली के मुकाबले यहां सांस भी ज्यादा फूल रही थी। साफ था मैं यहां समुद्र तल से काफी ज्यादा ऊंचाई पर था। मैं ज्यादा तो नहीं दौड़ा मगर जितना दौड़ा वह पसीना निकालने के लिए पर्याप्त था। पसीना न आए, ऐसा दौडऩा भी क्या दौडऩा!

इस बीच शशि ने हिम चोटियों पर सूर्य की पहली रश्मि के पहुंचने के कई फोटो खींच लिए थे। उसे विरल प्रजाति के पौधों और फूलों की तस्वीरें लेना भी बहुत उत्साहित कर रहा था। एक घंटे के दौरान उसने प्रकृति की करीब एक सौ तस्वीरें खींच ली होंगी। यही हाल नोएडा से आए युवक का था, जो बाकायदा ट्राईपोड लगाकर तस्वीरें खींच रहा था - महानगरों में रहने वाले लोग प्रकृति के कितने भूखे हो जाते हैं!

हमारी योजना सोनापानी से रामनगर जाने की थी, जो कि वहां से करीब चार-पांच घंटे के सफर की दूरी पर था। लेकिन चूंकि हमें दिन में जिम कॉर्बेट नैशनल पार्क में वाइल्ड लाइफ सफारी के लिए जाना था, यहां से जल्दी निकलना जरूरी थी। एक अच्छी बात यह हुई कि वहां एक घोड़े वाला मिल गया। घोड़े की सवारी हितू के मूड के लिए बहुत अच्छी रही। हमने एक बार फिर परिचित हो चुके डाइनिंग हॉल में स्वाद से भरपूर आलू की तरकारी और पूडिय़ों का नाश्ता किया और इस इरादे के साथ कि अगली बार वहां ज्यादा दिनों के लिए आएंगे वापस चल पड़े। हितू ने चलने से पहले अपने प्यारे उस सफेद कुत्ते को कई आवाजें लगाईं मगर वह न जाने जंगल में कहां चला गया था।

(अगली कड़ी में सफारी का किस्सा, जहां हमें एक विशालकाय हथिनी के दर्शन हुए, साक्षात यमदूत के रूप में। वह एक क्षण जब हथिनी सूंड उठाकर चिंघाड़ती हुई हमारी ओर लपकी थी, आज भी हमें थरथरा जाता है।)

14 comments:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

बड़ा ही प्रभावी वृत्तांत है. अपने साथ बहा ले गया प्रकृति की उस ठांव की ओर जहाँ आप ठहरे थे (मेरी कल्पना में ही सही). अगले सफर के अनुभव का इंतजार!

L.Goswami said...

सुंदर यात्रा वृतांत.

..बिटिया बड़ी प्यारी है आपकी

मसिजीवी said...

ब्‍लॉग्स पर सोना पानी वृत्‍तांत सुन सुनकर लगता है कि अब रिसॉर्ट में आशीष को चाहिए कि वे एक कॉटेज चिट्ठाकुटीर के रूप में आरक्षित मान लें...

वैसे सोचते हैं कि अब बिना सोना पानी जाए बात न बनेगी।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

दिल्ली ही क्यों! कोई भी महानगर के जीवन में प्रकृति से दूर हो ही जाता है। रह जाती है एक मुसलसल चूहा दौड की ज़िन्दगी। ऐसे में ये प्राकृतिक ड्रुष्य एक ताजी हवा का झोंका है।

poonam pandey said...

मैंने तो तय कर लिया है...दोस्तों के साथ ३-४ दिन की आउटिंग का प्लान अब सोनापानी जाकर ही पूरा होगा। पढ़कर इतना अच्छा लगा तो वहां जाकर कैसा होगा...यही सोचकर मैं तो रोमांचित हो रही हूं।

नीरज मुसाफ़िर said...

अरे वाह, बड़ा ही साहित्यिक वर्णन किया है. बीते दिनों की याद आ गयी.

P.N. Subramanian said...

सोनपणी का वृहत व्रित्तान्त रोचक रहा. आभार.

siddheshwar singh said...

यह सफरनामा = एक अच्छे कवि का अच्छा गद्य.

'' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा :: said...

इस जाड़े में इतनी ठंडी -ठंडी पोस्ट कुल्फी का आनंद आगया |यात्रा वृत्तांत प्रवाह मय लगा |

Unknown said...

सुंदर। क्या पता ठुनकी के पास गया हो जो उन दिनों प्रेगनेन्ट थी और अब सप्तर्षिमंडल की मां है।

एस. बी. सिंह said...

भाई सोनापानी को जीवंत कर दिया। धन्यवाद

sushant jha said...

kamal ka likha aapne..dhanyawad sweekar karein...

PD said...

अगली कड़ी अभी तक नहीं आयी.. कहां हैं साहब??

मुनीश ( munish ) said...

vaah ! mazedaar yatra-vritt ! khoob !