Tuesday, May 12, 2009

चुनावी मौसम में जजिया

वे चार दोस्त थे। गले में टाई, हाथ में बैग। किसी मेडिकल या सेल्स रिप्रेसेन्टेटिव जैसी हुलिया वाले ये नौजवान एक चाय के ठेले पर 'लंच' करने जुटे थे। ऊपर से पुराने पर हरियाये नीम का स्नेह बरस रहा था, सो गरमी से राहत थी। पसीना सूखते-सूखते उनका खिलंदड़ापन वापस आ गया था और वे हंसी-मजाक मे जुट गए थे। पास ही बेंच पर एक अखबार पड़ा था जिसके पहले पन्ने पर खबर छपी थी कि तालिबान ने सिखों पर जजिया लगाया। एक ने ये खबर जोर से पढ़ी और फिर दूसरे की ओर मुखातिब होकर बोला- साले, यहां तुम लोगों पर भी जजिया लगा दिया जाए, तो पता चलेगा। साफ था कि कहने वाला हिंदू और सुनने वाला मुसलमान था। जवाब में एक खिसियाई हंसी के साथ मुस्लिम दोस्त ने भी जवाब दिया--अबे तालिबान का उखाड़ो जाकर, मुझसे क्यों भिड़ते हो। खैर, बात ज्यादा नहीं बढ़ी। न कहने वाला अपनी बात को लेक संजीदा था न सुनने वाला। रोजी की जंग में जूझते इन नौजवानों के पास बहस के लिए ज्यादा वक्त होता भी नहीं। हंसी-ठिठोली के बीच चाय के साथ जल्दी-जल्दी कुछ निगलकर ये आगे बढ़ गए।

पास ही खड़ा मैं सोचने लगा कि इन नौजवानों को क्या जजिया का मतलब पता है। आम धारणा यही है कि मुस्लिम शासक हिंदुओं को सताने के लिए इस टैक्स को वसूलते थे। इतिहास की ये पंजीरी आज भी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जहर घोलती रहती है। ऐसी ही पंजीरी फांक कर मैं भी बड़ा हुआ था। ये तो इलाहाबाद विश्विवद्यालय का का मध्य एवं आधुनिक इतिहास विभाग था जिसने आंखों पर पड़े तमाम जालों को साफ किया और समझाया कि इस मध्ययुगीन टैक्स सिस्टम को सांप्रदायिक नजरिये से देखना नासमझी है।

आप कहेंगे कि चुनावी मौसम में ये बेवक्त की क्या शहनाई बजा रहा हूं। लेकिन ब्याह ही बेवक्त हो रहा हो तो शहनाई बजाने वाले का क्या दोष। जब जजिया अखबारों की हेडलाइन में हो तो हर संभव जरिये से इसका सही अर्थ न बताना अपने विश्विविद्यालय औऱ इतिहास विभाग के प्रति घात होगा।

तो सुनिए, जजिया फारसी का लफ्ज है। जब इस्लाम अरब से बाहर आया तो ये गैर-अरबों से वसूला जाता था चाहे वो मुसलमानों क्यों न हो। धीरे-धीरे ये इस्लामी शासन में रहने वाले दूसरे धर्म के लोगों से वसूला जाने लगा। अब इसमें क्या शक कि मध्ययुग में धर्म और राज्य का पूरा घालमेल था और शासक, जब तक नुकसान न हो, धार्मिक कानूनों का पालन करता था। इस्माली कानून के मुताबिक प्रत्येक मुसलमान के लिए सैनिक सेवा अनिवार्य थी। जबकि गैर मुसलमानों को इससे छूट थी। बदले में उन्हें जजिया देना पड़ता था। इस्लामी शासकों को जजिया वसूलने का वैधानिक अधिकार था, लेकिन चूंकि ये लोगों में सांप्रदायिक भेद पैदा करता था, इसलिए ज्यादातर शासक इससे बचते थे और इसे वसूलने को लेकर भी तमाम किंतु-परंतु थे।

इतिहासकार अबू जाफर तिवरी ने 'तारीख-ए-कबीर' मे लिखा है- 'नौशेरवां आदिल ने जो नियम जजिया का बनाया था, उनमें प्रतिष्ठित व्यक्ति, अमीर (एक पद), सैनिक, धर्मगुरु, लेखक, निर्धन, दरबारी तथा अन्य शाही कर्मचारी जजिया से मुक्त थे। इसके अतिरिक्त जिनकी अवस्था बीस वर्ष से कम थी और पचास से अधिक थी, उनसे भी जजिया नहीं वसूला जा सकता था।' इसका कारण बताते हुए वे लिखते हैं--'सैनिक लोग देश की रक्षा के लिए प्राण देते हैं। इसलिए उनके लिए दूसरे लोगों की आय से एक विशेष धनराशि निर्धारित की गई, जिससे उन्हें आर्थिक सहायता मिल सके। जजिया देने वाले की पूर्ण रक्षा की जाए और अगर रक्षा करने की शक्ति न रह जाए तो जजिया वापस कर दिया जाए।'

फिर भी ज्यादातर बादशाह जजिया लगाने से बचते थे। औरंगजेब ने भी अपने शासक बनने के बीस साल बाद 1678 में जजिया का आदेश दिया जब दक्षिण अभियान की वजह से खजाने पर भारी बोझ था। इसमें भी स्त्रियां, बीमार, पागल, अंधे, निर्धन, बच्चे और बूढ़े जजिया से मुक्त थे। इसके अलावा धनी से धनी व्यक्ति से बीस रुपये वार्षिक से अधिक बतौर जजिया नहीं वसूला जा सकता था। जजिया की न्यूनतम राशि तीन रुपये वार्षिक थी।

तो क्या मुसलमानों को टैक्स से छूट थी। बिल्कुल नहीं, उन्हें भी जकात देना पड़ता था जो आय का चालीसवां भाग था। यही नहीं, औरंगजेब ने बीजापुर और गोलकुंडा की उपद्रवग्रस्त मुस्लिम रियासतों पर कब्जे के बाद दंड स्वरूप जजिया लगा दिया था। फिर 1704 ये कहते हुए कि दोनों रियासतों की माली हालत ठीक हो गई है, जजिया हटा भी लिया।

कहने का मतलब ये कि जजिया एक मध्ययुगीन टैक्स सिस्टम था और दिमाग से पूरी तरह मध्ययुगीन तालिबान टैक्स वसूलने के लिए जजिया जैसे टैक्स की बात ही समझ सकते हैं। इसलिए न चौंकिए और न आधुनिक भारत में रहने वाले दोस्तों में प्रतिक्रिया होने दीजिए। दुआ कीजिए कि पाकिस्तानी जनता तालिबान के मुकाबले एक आधुनिक दृष्टि वाले देश के हक में उठ खड़ी हो। इसी में सबका भला है।

मुझे उम्मीद है कि मेरे विश्विविद्यालय के दिनों के दोस्त, जहां भी होंगे, लोगों को जजिया का सही मतलब समझा रहे होंगे। हम ये कैसे भूल सकते हैं कि सही सबक पाने के बाद हम सबके लिए ईद की सेवइयों की मिठास बढ़ गई थी।

20 comments:

iqbal abhimanyu said...

आदरणीय पंकज जी काफी दिन से कबाड़खाना का नियमित पाठक हूं, लेकिन आलस्यवश तथा देवनागरी में टाइप करना नहीं आने के कारण टिप्पणी नहीं करता था;
जे. एन.यू. में स्पैनिश में स्नातक का छात्र हूं; पिछले एक वर्ष से कुछ ब्लॉग नियमित रूप से पढ़ रहा हूं; लिखने के बारे में कई बार सोचा लेकिन तकनीकी जानकारी और अनुभव का अभाव होने के कारण कुछ नहीं लिखा.
बस यही कहना चाहता हूं की आप जैसे लोगों को पढ़कर मन की बहुत सी दुविधाएं और शंकाएं दूर हो जाती हैं और सम्प्रदायवादी/जातिवादी सहपाठियों को जवाब देने में आसानी होती है; जजिया के बारे में भी काफी गलतफहमी थी जो इस लेख ने दूर कर दी. बहुत धन्यवाद.

bawlabasant said...

वाह बहुत बढ़िया.अछी जानकारी दी है .बहुत लोगों का दिमाग ठीक होगा यह पढ़ कर

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

बहुत शानदार और बेहद जरूरी पोस्ट!

शिरीष कुमार मौर्य said...

पंकज भाई कुछ साल पहले निम्नमध्यवर्गीय मुस्लिम समुदाय और शानी पर शोध करते मैने जाज़िया का सही मतलब जाना और उसका इतिहास भी. औरंगज़ेब के कुछ दीगर फरमान भी खोजे. आप तो खुद इतिहास के होनहार विद्यार्थी रहे(ये अलग बात की नेट आपने थियेटर में कर लिया) - आपने बिल्कुल सही वक़्त पर बिल्कुल सही बात कही है. मैं मिष्ठान्न से ज़्यादा माँसप्रेमी हूँ, इसलिए सेवइयों की जगह कहूँगा कि क़ुर्बानी के बकरे का स्वाद बढ़ गया.

Ashok Pande said...

बहुत ज़रूरी पोस्ट! शुक्रिया पंकज भाई!

दीपा पाठक said...

बढिया पोस्ट। पंकज जी जिस दौर में अच्छे खासे पढे-लिखे लोग उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानते हैं वहां जजिया जैसे शब्दों की तह तक पहुंचना कौन चाहता है?

विजय गौड़ said...

मित्र बहुत ही महत्वपूर्ण आलेख है यह, जिसे समय समय पर पढने और पढवाते रहने की ज़रूरत है। क्या तकनिक का विकास इस तरफ़ को हो सकता है कि जब किसी भी विषय पर कुतर्क करने वालों के दिमाग में जैसे ही कुतर्क का अंकुर फ़ूटे, ऎसे महत्वपूर्ण आलेख खुद ब खुद झट उनके सामने खुल जाएं?

Arun Arora said...

हे हे हे हे ये कम्युनिष्टो की पुरानी अदा है . सेकुलरता दिखाने की . मुस्लिम शासको को महिमामंडीत करने की . हिंदू शासको को नीचा दिखाने की उनकी बेईज्जती करने की . सावन के अंधे को हरा ही हरा नजर आता है .

Science Bloggers Association said...

गम्भीर और ईमानदारपरक विवेचन।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

siddheshwar singh said...

बहुत बढ़िया साहब !
कुहासे के बीच जानकारी की किरण!!

मुनीश ( munish ) said...

११ नवम्बर १६७५ ! कुछ याद आया प्रोफ़ेसर ? ना आये तो गूगल पे ढूंढ लेना और फिर बहकाना बच्चों को . और हाँ गुरुद्वारा सीस गंज के कढा परसाद का स्वाद भी कभी चखना ," ...पुर्जा..पुर्जा कट मरे तों न छाडा खेत " हर रोज़ सिख अपनी अरदास में भाई मतिदास का नाम क्यों लेते हैं आज तक ये भी कभी जानना और फिर सिखाना जज़िया का मतलब!

pankaj srivastava said...

प्यारे मुनीश,
आप बहस को जिस दिशा में ले जाना चाहते हैं, उसी का दंड पूरा देश भुगत रहा है। 11 नवंबर 1675 ही नहीं, और भी तमाम तारीखें याद हैं जब औरंगजेब या तमाम दूसरे बादशाहों और नवाबों (राजाओं कहने से आपको तकलीफ होगी) बर्बर अत्याचार किए।
मेरा इरादा औरंगजेब को सेक्युलर साबित करना बिलकुल नहीं है। औरंगजेब ही क्यों मध्ययुग या प्राचीन काल का कोई भी शासक सही अर्थों में सेक्युलर हो ही नहीं सकता क्योंकि सेक्युलर का अर्थ राज्य और धर्म का पूर्ण अलगाव है जो एक आधुनिक अवधारणा है। और बड़ी कुर्बानियों के बाद ये विचार मान्य हो पाया था।
लेकिन मित्र, क्या अतीत मे हुए अत्याचार का सबक बदला लेना है। ऐसा हुआ तो दलित ब्राह्मणों के कान में पिघला शीशा डालने की बात करेंगे, सोच लीजिए।
इतिहास का सबक यही है कि गलतियों को न दोहराने का सबक लिया जाए। मैंने सिर्फ ये बताया कि जजिया का शास्त्रीय अर्थ क्या है। और क्यों तालिबानी दिमाग उसके बारे में सोचता है जो अभी भी मध्ययुग में रह रहा है। मैंने तालिबान के नाश की दुआ भी की है, अगर आपको ध्यान हो।
खैर, इतिहास की अधूरी जानकारी कितनी खतरनाक हो सकती है, ये आपकी बात से साफ है। मैं आपको और भी कई तारीखें बता सकता हूं जब औरंगजेब ने मंदिरों को बनवाने और उनमें चौबीस घंटे घी के दिए जलाने के लिए जमीनें दान दी। फरमान बाकायदा उपलब्ध हैं। यही नहीं, उसके समय हिंदू मनसबदार अकबर के समय से भी ज्यादा थे। बल्कि उत्तराधिकार युद्द में उसकी दारा शिकोह पर जीत काफी कुछ राजा जय सिंह और जसवंत सिंह जैसे हिंदू मनसबदारों की वजह से ही संभव हुई थी। और हिंदू पदपादशाही की स्थापना करने वाले शिवाजी की सेना में बड़ी संख्या में बीजापुर के मुस्लिम सैनिक थे, जो औरंगजेब के खिलाफ लड़ रहे थे। और मुगल सेना के सेनापति थे मिर्जा राजा जय सिंह।
लेकिन इन तथ्यों के बावजूद औरंगजेब को सेक्युलर कहना मूर्खता होगी। ये सब बिलकुल वैसै ही है जैसे कोई रामराज को सेक्युलर कहे, जहां धर्म की स्थापना के लिए सीता का त्याग किया जाता है या फिर शंबूक का गला खुद राम अपने हाथ से काट लेते हैं। (बाल्मीक रामायण पढिए, तुलसी के मानस में नहीं मिलेगा)
इसलिए भाई गुस्सा थूको। और एक नए भारत के बारे में सोचो। क्योंकि सबसे बड़ी तारीख है 15 अगस्त 1947 जब हमारे पुरखों ने एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और समाजवादी भारत बनाने का संकल्प लिया था।
और इतना तो आप भी मानते होंगे कि इन पुरखों में बहुमत हिंदुओं का ही था।

pankaj srivastava said...

और हां मुनीश भाई, एक बात तो रह ही गई। मेरी दिक्कत ये है कि मैंने इतिहास का ज्ञान गूगल से नहीं प्राप्त किया है, इसलिए थोड़ा बहक जाता हूं। डरता हूं कि गूगल को ज्ञान का स्रोत मानने वालों की तादाद बढ़ेगी तो क्या होगा।
रही बात कडाह-प्रसाद की। तो मैं खुद उस खानदान का हूं जो नानकपंथी रहा है। जिसेके गुरु आज भी एक नानकशाही गद्दी के उत्तराधिकारी हैं। बचपन से घर में कड़ाह-प्रसाद का आयोजन होता रहा है।
बात इतनी है प्यारे कि सब राजनीति का खेल था। औरंगजेब के समय़ भी और आज आडवाणी-बुखारी के दौर में भी। औरंगजेब के समय के हिंदू इस बात को खूब समझते थे इसीलिए उसकी सेना में शामिल होकर शिवाजी के खिलाफ तलवार उठाते थे। खून बहाते थे। आप क्या उनसे बड़े हिंदू हैं।

मुनीश ( munish ) said...

. आपकी पोस्ट जजिया की पारिभाषिक प्रासंगिकता को समर्पित थी और ११ नवम्बर १६७५ की तिथि एवं सीसगंज का उल्लेख मैंने इस सन्दर्भ में किया है . न तो मैंने बड़ा धार्मिक होने का दावा किया और न ही किसी राजे रजवाडे की बात की . "....सोच्चे सोच न होवहीं जो सोच्चे लख बार"

Ashok Pande said...

६ दिसम्बर १९९२ के बारे में क्या ख़याल है!

और फ़िलहाल इस दयनीय समय में जो जज़िया हम सारे के सारे हर घड़ी देने पर विवश हैं उसका क्या? ...

मुनीश ( munish ) said...

देखिये इस कृत्य पर शिवसेना द्वारा कई बार गर्व का सार्वजानिक इज़हार पूरा दायित्व लेकर किया जा चुका है जो निस्संदेह दुखद है . जहां तक मौजूदा पीडामय समय की बात है तो बुद्ध कह गए हैं --"सर्वैः दुखं ", नानक फरमाते हैं ,'' नानक दुखिया सब संसार '' और शंकराचार्य का मत भी यही है . दुक्खों को दूर करने का प्रयास निरंतर होना चाहिए , मीठी -मीठी बाणी बोलनी चाहिए , मीठी-मीठी सेवियों एवं कढा परसाद दोनों का सेवन समादर पूर्वक करना चाहिए किंतु माँ भारती के नन्मुन-नन्मुन सभी सपूतों को ये सपना देखना छोड़ देना चाहिए कि उनके पडौस में उनकी दुआओं से पाकिस्तान तालिबान का फन कुचल लेगा और अमरीका अपना बस्ता लेकर घर चला जाएगा .

pankaj srivastava said...

सपने हैं,
तो टूटेंगे भी
आंखे हैं,
तो देखेंगी ही सपने!

कृष्ण मोहन मिश्र said...

अच्छी बहस कर लेते हैं आप लोग । जजिया ज्ञान बांटने के लिए शुक्रिया ।

जैसा कि आप लोगों की बहस के बीच में आया कि 'सामजवाद और पंथनिरपेक्ष' शब्द हमारे पुरखों ने संविधान में डाला था तो इस विषय पर कुछ ज्ञानवर्धन कराना चाहूँगा । संविधान निर्मात्री सभा ने प्रस्तावना में 'सामजवाद और पंथनिरपेक्ष शब्दों को नहीं रखा था । ये शब्द संविधान के 42वें संशोधन में स्व0 इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के समय डलवाये थे जब कि संसद की सामान्य बैठक भी नहीं होती थी । हालांकि जनता पार्टी की सरकार ने 42 वें संशोधन के बहुत से प्रावधानों को 44 वें संशोधन में दुरूस्त कर दिया था लेकिन ये दोनों शब्द फिर भी रह गये थे । ये दोनों शब्द एक विष बीज के समान हैं क्योंकि, दोनों ही संविधान के अनुच्छेद 14 का सरासर उल्लंघन करते हैं । पंथनिरपेक्ष शब्द का दुरूपयोग चुनाव के दौरान और उसके तुरंत बाद किया जाता है और दोनों शब्द कुछ राजनैतिक पार्टियों को सीधे फायदा पहुंचाते हैं जो कि अनुच्छेद 14 जो कि समता के सिध्दांत की बात करता है का सरासर उल्लंघन है । 'सामजवाद और पंथनिरपेक्ष' शब्द और इनकी अवधारणा इतनी भी महत्वपूर्ण इसलिए नहीं है क्यूंकि संविधान निर्मात्री सभा ने जिसमें कि उस वक्त के तमाम महान कानूनविद् जैसे कि डा0 भीम राव अंबेडकर, पं0 जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, बी0 एन0 राव जैसे तमाम लोग शामिल थे, को महत्वपूर्ण नहीं लगी थी । इसकी एक वजह ये भी थी कि वो लोग फिर किसी मो0 अली जिन्ना को पाकिस्तान बनाने का मौका नहीं देना चाहते थे । जो बात 296 सदस्यीय संविधान निर्मात्री सभा को जरूरी नहीं लगी थी वो अकेले श्रीमती इंदिरा गांधी को जरूरी लग गई । 42 वाँ संविधान संशोधन पूरी तरह से असंवैधानिक था क्योंकि वो इमरजेंसी के दौरान तब किया गया था जब कि अधिक्तर विपक्ष जेल में था और संसद की सीटें खाली पड़ी थीं । भविष्य में फिर कोई जिन्ना अगर रहे सहे भारत का बंटवारा करने के लिए उठ खड़ा होता है तब उस वक्त उसके सबसे महत्वपूर्ण हथियार यही दोनो शब्द होंगे । आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि कोई भी मुस्लिम देश धर्मनिरपेक्ष नहीं है लेकिन जहाँ भी मुसलमान अल्पसंख्यक होते हैं वहाँ वे धर्मनिरपेक्षता की मांग शुरू कर देते हैं । क्या आप आज के समय में पाकिस्तान, बंग्लादेश, अफ्गानिस्तान के नागरिक एक हिंदू के रूप में बनना चाहेगे ? नहीं । तो फिर कम्युनिस्टों की तरह सोचना बंद कर दीजिए क्योंकि जिन्ना के मददगार यही लोग थे और इन्हीं लोगों ने पाकिस्तान का समर्थन किया था ।

आप कहेंगे कि तो क्या मैं भारत में गृह युध्द चाहता हँ । नहीं । हम सब पहले भारतीय हैं बाद में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई । लेकिन ये बात सिर्फ एक पक्ष कहता है, दूसरा नहीं । हम अपने देश की भलाई के लिए अपने आप को पहले भारतीय कहलाने में नहीं झिझकते लेकिन अगला अपने आप को पहले मुस्लिम मानता है । जहाँ धर्म सबसे पहले आता हो वो साम्प्रदायिक कहलायेगा या हम जो खुद को पहले भारतीय मानते हैं । श्रीमान जी आपके विचार नेक ज़रूर हैं लेकिन सुसाइडल भी हैं । ये बिल्कुल वैसी ही गलती है जैसी की नेहरू ने कश्मीर समस्या को यू0 एन0 ओ0 में ले जा कर करी थी । एक ऐसी कौम जिसमें साक्षरता का प्रतिशत मुश्किल से पचास भी नहीं है और जो आपके सुभाषित सुनने से पहले अपने कठमुल्ले मौलवियों को सुनना ज्यादा पसंद करती है उनको शिक्षित करने की ज्यादा जरूरत है न कि हिन्दुओं को धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढाने की । हिन्दू धर्म अपने आदि काल से धर्मनिरपेक्ष रहा है । अगर ऐसा नहीं होता तो आज भारत में भिन्न भिन प्रकार के धर्मावलंबी न होते । लेकिन हमारे यहाँ के तथाकथित सेकुलरवादी सिर्फ हिन्दुओं को ही पंथनिरपेक्षता का पाठ पढाते हैं, यार कभी अगले को भी तो इसके मायने समझाओ । या डरते हो कि फिर कहीं एक और शाहबानो काण्ड न हो जाये ।

pankaj srivastava said...

प्यारे मोहन,

फिर तो आपको ये भी पता होगा कि पाकिस्तान की प्रतिक्रिया में संविधान निर्माताओं ने भारत को हिंदू राष्ट्र क्यों नहीं बनाया। दरअसल, संविधान की मूल आत्मा ही धर्मनिरपेक्ष (पंथ निरपेक्ष) और समतामूलक समाज (समाजावाद) की स्थापना के लक्ष्य को समर्पित है। इंदिरा गांधी ने तो केवल श्ब्द जोड़े थे। यकीन न आए तो धारा 370 के पक्ष (!) में सरदार पटेल का भाषण भी पढ़ लीजिए। ये अकारण नहीं हैं कि जनता पार्टी के धुरंधर इन शब्दों को हटाने की हिम्मत नहीं कर पाए।
रही बात मुस्लिम राष्ट्रों की तो पता नहीं आप तुर्की के कमाल पाशा के बारे में जानते हैं या नहीं जिसने मस्जिदों को तोड़कर स्नानागार बनवाए थे। ये भी तथ्य है कि सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले देश इंडोनेशिया के मुसलमान रामलीला करते हैं और वहां के राष्ट्रपति का नाम कभी सुकर्ण भी होता है। खैर, इस्लामी दुनिया में बढ़ता कट्टरपंथ एक अलग विषय है जिस पर अकादमिक जगत में तमाम बहस है।
हमारी चिंता तो भारत को लेकर है जहां जिन्ना की जगह तो नहीं ही है, आडवाणी की भी नहीं है। मोदी ब्रांड पालिटिक्स पर मिट्टी डालने वाली जनता के फैसले में देश की धर्मनिर्पेक्ष जनता की आत्मा नजर आती है, गर देख पाइए।

Rajesh Joshi said...

पंकज बाबू,

ये न समझा जाए कि बहस को पढा़ और गुना नहीं जा रहा है. बहुत अच्छी तरह एक एक शब्द पढ़ा गया है. तकलीफ़ इतनी सी है कि जितना गूढ़ तुम्हारा आलेख है उतनी गूढ़ और सधी हुई आलोचना नहीं आई है. अनपढ़ प्रतिक्रिया पढ़ने का मन भी नहीं होता.