Saturday, August 8, 2009

अकेलेपन में भी बहुत शोर है

चीनी भाषा के विद्वान के तौर पर प्रतिष्ठित श्री त्रिनेत्र जोशी ने कई महत्वपूर्ण रचनाओं को मूल चीनी भाषा से हिन्दी में अनुवाद किया है.

इधर काफ़ी अर्सा दुनिया-संसार-शहर-महानगर घूम चुकने के बाद साहब ने हमारे हल्द्वानी शहर को अपनी अगली पारी हेतु चुना है. यानी अब वे यहीं बसने जा रहे हैं. फ़िलहाल तो भवन निर्माण जैसा हरक्यूलियन कारनामा अंजाम देने में लगे हैं. इस बीच हुआ यह भी कि हल्द्वानी के ही आधारशिला प्रकाशन से उनकी कविताओं का पहला संग्रह प्रकाशित होकर आ गया. हालांकि इस पुस्तक को कई साल पहले आ जाना चाहिये था पर 'ऑल्स वैल दैट एन्ड्स वैल' वाली क्लीशेड कहावत साथ इस संग्रह के लिए उनका इस्तकबाल है. जै हो!



संग्रह का आत्मीय ब्लर्ब हिन्दी के बड़े कवि और त्रिनेत्र जी के अभिन्न मित्र ने लिखा है. जगूड़ी जी लिखते हैं:

"कुतुबनुमा की तरह घूमती आंखों वाले त्रिनेत्र जोशी की काव्यभाषा में विम्ब लोकोक्तियों की तरह आते हैं और झाड़ू पोंछा करने वाली आवाज़ों की तरह परिवेश में हमारा पीछा करते हैं. गरीबी की तरफ़ से पीठ फेरने को कवि गरीबों की तरफ़ से पीठ फेरना नहीं मानता -

'देश बड़ी चीज़ है यारो.
कहा उसने
और हुआ फ़रार
नम्स्कार, नमस्कार, नमस्कार!
...
गरीबी ने सभी के किये कई साल बेकार!'

त्रिनेत्र जोशी को हिन्दी कविता के सातवें दशक से इक्कीसवीं सदी के पहले दसक तक सक्रिय हस्तक्षेप बनाए रखने के लिए और पहले कविता संकलन के लिए बधाई."


चीनी कविताओं के उनके अनुवादों की श्रॄंखला कबाड़ख़ाने पर पहले लगाई जा चुकी है. आज त्रिनेत्र जी के काव्य की बानगी देखिये.


नेकांत

बादलों के बीच
आंखों के जोड़े
हंसों की तरह चलते हैं
गिरती है एक बूंद
आंगन में
सिहरते हैं पत्ते
एक लम्बी उदासी के बाद
फिसलती है एक चट्टान
बेहद अंधेरी रात में
झींगुरों की रुनझुन के साथ
आता है गन्ध का एक झोंका
आसमान के उस पार
बिगड़ैल नदी का है शोर
शहर में
बुझ गई हैं
लाल, हरी, पीली बत्तियां
बादलों के बीच
कड़कती है आवाज़
अकेलेपन में भी बहुत शोर है.

जाते हुए

यह
छायाओं का जुलूस है
सिर झुकाए हुए

एक ओर जाता है
समय
कसमसाती रात में
ब्याहता कुतिया की चीखें
और सुबह की ओर जाते
हवा के काफ़िले

एक जगमगाते खालीपन में
कुछ दूधिया लकीरें
और अचेत लेटी स्त्री का सपना

ये तख़्तियां लिए स्मृतियां
मौन छायाओं के जुलूस में
एक भी नारा नहीं लगातीं

यह डर है शायद
इक्कीसवीं सदी में जाता हुआ

शुभ रात्रि!

रोशनी

जिसके भी सितारे गर्दिश में हों
साथी!
वह तारों से सीखे
कैसी होती है तल्लीनता
और कैसे बचाई जाती है रोशनी!

बसंत में धूप के बहाने

पीठ से सेंकता है धूप
और आंख से देखता है धूप
रामरतन
बीड़ी फेंकती है धुंआं
जैसे बिना पंख उमंग
खांसते हैं फेफड़े
बालों को लहराती हैं
रंगीन हवाएं
धूप भी जैसे चली आती है पास
गौरैया के पंखों सी
हंसता है रामरतन बड़े जतन से
बीड़ी के अन्तिम हिस्से को चूसता हुआ
पूछता है एक अदद सूफ़ी सवाल
धूप और भूख में कितना फ़र्क़

ज़िन्दगी का हो बेड़ा गर्क़!

(संग्रह 'घूम गया कई मोड़', प्रकाशक: आधारशिला प्रकाशन,बड़ी मुखानी, हल्द्वानी, उत्तराखण्ड, 263 139, मूल्य: दो सौ रुपए)

8 comments:

शिरीष कुमार मौर्य said...

आदरणीय जोशी जी!

आपको मकान बनवाने(लगवाने) की बधाई. वीरेन दा ने बताया कि दाल भात उसी बन रहे मकान में खाया. मैं खुद हल्द्वानी में मकान बनाने के चक्कर में था पर अब मित्रविहीन उस जगह से मन उचट गया और ज़मीन बेच कर अपने प्यार के शहर रामनगर जा रहा हूँ - उधर मकान लगाने के बाद आपको बुलाऊँगा. संकलन की भी बधाई. जल्द ही मुझे मिल जाएगा.

सादर शिरीष

trinetra said...

pyare Shireesh Ramnagar ja rahe ho Haldwani chhorkar,man kasmasaya. Mein to abhi iss mamle mein nadaan hoon. Dekhoonga ki yahaan aakar kitna viheen hota hoon. Par bante ghar ke samne jo pahariyaan hein, unse to mitrata banee hee rahegi.
Sankalan tum tak pahoonchaane kee kuchh jugat karata hoon. Apni roshni ko khone mat do.

Ashok Kumar pandey said...

त्रिनेत्र जी को किताब के लिये बधाई

आधारशिला को अभी पत्र पठाता हूं। दाम थोडा ज्यादा रख दिया…पर पढना तो है ही।

naveen kumar naithani said...

देहरादून में भी त्रिनेत्रजी रहे आये हैं.उन दिनों वे व्यस्त थे-संपादकीय दायित्व के चलते. अवधेश के साथ कई बार बेवक़्त मिलना किया.संग्रह के लिये बधाई.

मुनीश ( munish ) said...

चीनी को दुनिया की कठिनतम लिपि वाली भाषा बताते हैं ज्ञानीजन !आपकी प्रतिभा और अध्यवसाय को प्रणाम करता हूँ और आपकी नवीन अनुदित रचनाओं की प्रतीक्षा में हूँ . कविताओं की समझ मुझे ख़ास नहीं है .

शरद कोकास said...

आदरणीय त्रिनेत्र जोशी जी, आपके कविता संग्रह का ऐसा लगता है मुद्दतों से इंतज़ार था . अभी यहाँ ब्लॉग पर कविताएँ पढने के बाद रहा नही जा रहा .अशोक की तरह मै भी आधारशिला को पत्र भेज देता हूँ . और शिरिष ये मकान बनवाने उर्फ लगवाने का क्या चक्कर है हमसे भी शेयर करो भाई .. मै तो दुर्ग मे मकान बनवा ( लगवा) चुका हूँ . बहरहाल त्रिनेत्र जी को हल्द्वानी मे छत के लिये बधाई .-शरद कोकास

वाणी गीत said...

त्रिनेत्रजी को उनके काव्यसंग्रह और नए मकान के लिए बहुत बहुत बधाई. .!!!

siddheshwar singh said...

त्रिनेत्र जी को संग्रह की बधाई !