Thursday, September 3, 2009

पानी, बालू और बारिश के इलाके में पहली बार

(एक पुरानी पोस्ट की पुनर्प्रस्तुति )
तारीख़: १५ अगस्त, साल: १९९१

बारिश के अपने नियम हैं
अपने कायदे,
जब दिन होता है खाली - उचाट
तब पहाड़ की भृकुटि पर उदित होता है
स्मृति का अंधड़,
हरे पेड़ होने लगते हैं और हरे -और ऊंचे '

जहां जाना था उसके बारे में कोई खास जानकारी नहीं मिल पाई थी । भूगोल विभाग के प्रोफेसर रघुवीर चन्द जी ने एक बड़े से नक्शे में एक छोटे से बिन्दु की ओर संकेत कर बताया था कि वहां पहुंचने के लिए सबसे पहले एक बड़ी नदी पार करनी होगी और उसके बाद एक छोटी नदी, फिर उससे छोटी एक नदी और। फिर?`फिर तो तुम्हें जाकर ही पता चल पाएगा ।´ और मैं चल पड़ा था।
रात तिनसुकिया रेलवे स्टेशन के रिटायरिंग रूम में काटी थी, मच्छरों की कवितायें सुनते हुए। सुबह सूरज जल्दी निकल आया था - शायद राह दिखाने के लिए। आओ सूरज दद्दा! आओ मेरे गाइड! तुम यहां भी वैसे ही हो। वैसा ही है तुम्हारा ताप। लेकिन इतनी जल्दी? रात को ठीक से सोए नहीं क्या ?

बस के कंडक्टर से जब तेजू का टिकट मांगा तो वह ऐसे देखने लगा मानो मैं किसी अन्य ग्रह-उपग्रह से आया हूं - एलियन।` तेजू का टिकट तु फिफ्तीन अक्तूबर के बाद मिलेगा।´ तब तक मैं? कहां? छोटी - छोटी मिचमिची आंखों वाले कंडक्टर को मेरी `मूर्खता´ शायद पसंद आई। वह गंभीर हो गया । बोला - अभी नामसाई का तिकत लो उसके बाद का रस्ता हाम बता देगा। बाद का रस्ता? यह कैसा रहस्यमय रास्ता है भाई!

नामसाई यानी पानी , बालू और बारिश। नामसाई में प्रवेश से पहले नोवादिहिंग या दिबांग को पार करना पड़ता है। मानो स्वर्ग में प्रवेश से पहले वैतरणी। यह वही बड़ी नदी है ! नोवादिहिंग बारिश के मौसम में मजे की खुराक ले कर मस्ता गई है। उसका हहराता बहाव डराता कम है , बांधता ज्यादा है। क्या ऐसे ही दृश्यों के लिए बांग्ला में ` भीषण शुन्दर ´ उपमान गढ़ा गया है ? वह अपने प्रवाह में सब कुछ बहाये चली जा रही है- मिट्टी , वनस्पतियां , जीव- जंतु। बस उसकी धार को संभल- संभल कर चीरते हुए चल रही है हमारी फेरी। मानव की बनाई एक नौका मशीन की ताकत के सहारे प्रचंड प्रकृति की प्रवाहमान पटिट्का पर अपने हस्ताक्षर कर रही है।नामसाई के आगे दूसरी बस से जाना है चौखाम तक। बारिश हो रही धीरे-धीरे ।यहां आप बारिश को सुन सकते हैं। उसके बरसने की लय के साथ बदलती जाती हैं आवाजें। सत्यजित दा की `पथेर पंचाली´ का बारिश वाला दृश्य ! उससे भी थोड़ा और आगे , थोड़ा और सूक्ष्म । `वृष्टि पड़े टापुर- टुपुर ´ । बारिश बाधा नहीं है यहां । जीवन चलता रहता है अविराम । यह एक नया संसार है , छोटी -सी जगह । मैं भी तो ऐसी ही छोटी जगह से आया हूं , पर जाना कहां है?

लाइफ मैटर्स लाइक दिस
इन स्माल टाउन्स बाइ द रिवर
वी आल वान्ट टु वाक विद द गाड्स।
´

चौखाम से दिगारू तक छोटी नाव में जाना है । यात्री कुल पांच हैं और नाविक सात । बड़े- बडे रस्सों और लग्गी के सहारे हमारी नाव आगे बढ़ रही है मानव की ताकत और तरकीब के बूते । हर तरफ पानी , पानी और पानी । जहां पानी नहीं वहां बालू है और जहां न पानी न बालू वहां पेड़ - हरे और ऊंचे । मल्लाह सचेत करते हैं यह दिगारू बाबा का `मेन करेन्ट´ है - सावधान !

`बोल दिगारू बबा की जय ´ और मेन करेन्ट पार । अगर पार न हो पाते तो ? सुना है लगभग हर साल बह जाती हैं कुछ नावें , हर साल `उस पार ´ की अनंत यात्रा पर चले जाते हैं कुछ यात्री कुछ मल्लाह । नदी नहीं नद है दिगारू , ब्रह्मपुत्र की तरह । तभी तो मल्लाह दिगारू बाबा की जय बोलते हैं दिगारू माता की नहीं । दिगारू `नदी´ का भी नाम है और जगह का भी । दिगारू को तीन तरफ से काट रहा है दिगारू का प्रवाह । यहां एक छोटी -सी बस्ती है और छोटा -सा प्राइमरी स्कूल । अपना प्यारा तिरंगा लहरा है वहां । आज पन्द्रह अगस्त है -आजादी का दिन , आजादी की सालगिरह।

यहां से अब कहां ? यह खड़खड़िया बस तेजू तक ले जाएगी । बात बस इतनी है कि पगली नदी में ज्यादा पानी न हो नही तो हाथी पर सवार होकर नदी पार करनी पड़ेगी । `सुबे तु जब हाम आया था तब थोरा पानी था।´ बस चालक अपनी वीरता का बखान कर रहा है कि कैसे उसने सुबे थोरे पानी में `बरी´ बस को निकाल लिया था , बिना किसी नुकसान के।

पगली नदी तेरा नाम क्या है? सहयात्रियों से पूछने पर सब हंसते हैं।कहते हैं पगली नदी है यह। ऊपर पहाड़ों पर जब बारिश होती है तो इसमें उफान आ जाता है अचानक। कभी इस पर पुल भी बना था जिसे यह एक दिन अपने पागलपन में बहा ले गई। वह देखो पुल का टूटा हिस्सा- पागलपन के इतिहास का प्रमाण , बंधन से मुक्ति का स्मारक। पहाड़ अब करीब आ रहे हैं। जंगल का घनापन घट रहा है। दिखने लगी हैं छोटी - छोटी बसासतें। शायद करीब आ रहा है तेजू- धुर पूरबी अरूणाचल प्रदेश के लोहित जिले का मुख्यालय , मेरा नया निवास स्थल। सड़क अब सड़क जैसी लग रही है। नहीं तो इससे पहले जगह-जगह पानी और बालू मे खड़े-गड़े सीमा सड़क संगठन के बोर्ड ही बताते थे कि यहां एक सड़क है ( या सड़क थी ) - नेशनल हाई वे।

सड़क के हर कदम पर अंकित हैं
कई- कई तरह के निशान
मैं फिर देखती हूं नदी को ।
पेड़ की टहनियों को मरोड़ती हुई हवा
धंसा देती है मुझे स्मृतियों के जंगल में।´

अपनी बस अब तेजू में दाखिल हो रही है। सबसे पहले छावनी ,फिर कालेज, केन्द्रीय विद्यालय, इण्डेन गैस गोदाम ,जिला अस्पताल और यह बाजार। बस रूक गई है, सवारियां उतर रही हैं । सबसे आखीर मैं उतरता हूं ,अपनी अटैची और बैग के साथ । सामने चौराहा है - चार रास्ते । बाद में पता चला कि चौराहे को यहां `चाराली´ कहते हैं- चार रास्ते । मैं अपने आप से प्रश्न करता हूं- ` तुम्हें किस रास्ते पर जाना है डाक्साब?´ इससे पहले कि जवाब आए अरे वह देखो आ गई बारिश । और मैं भीग रहा हूं नए जगह की नई बारिश में नए रास्ते को खोजता हुआ।


( * चित्र : प्रशांतो पी. दास / lohit .nic.in से साभार . ** इस सफरनामे में शामिल किए गए कवितांश/ कविता ममांग दाई के संग्रह `रिवर पोएम्स´ से साभार ली गई हैं । वह पत्रकारिता ,आकाशवाणी और दूरदर्शन ईटानगर से जुड़ी रही हैं । उन्होंने कुछ समय तक भारतीय प्रशासनिक सेवा में नौकरी भी की , बाद में छोड़ दी । अब स्वतंत्र लेखन । उन्हें `अरूणाचल प्रदेश : द हिडेन लैण्ड´ पुस्तक पर पहला `वेरियर एलविन अवार्ड ` मिल चुका है। )

6 comments:

मुनीश ( munish ) said...

Thanx for making us re-visit Arunachal Sidheshwar bhai . Hoping for more.......

naveen kumar naithani said...

बहुत सुन्दर लिखा है.सिद्धेश्वरजी ! क्या यह आपकी पहली पोस्टिंग से जुडा़ अनुभव है?कहते हैं पगली नदी है यह। ऊपर पहाड़ों पर जब बारिश होती है तो इसमें उफान आ जाता है अचानक। कभी इस पर पुल भी बना था जिसे यह एक दिन अपने पागलपन में बहा ले गई। वह देखो पुल का टूटा हिस्सा- पागलपन के इतिहास का प्रमाण , बंधन से मुक्ति का स्मारक।
बहुत देर तक यह पागल धुन याद रहेगी

शरद कोकास said...

वाह सिद्धेश्वर जी क्या सजीव चित्रण है । ऐसा ही एक बार श्री केदार नाथ सिंह जी के मुख से सुना था तिनसुकिया के पास एक गाँव है जहाँ उन्होने टूटा हुआ ट्रक कविता लिखी थी । इस इलाके को देखने का मन कर रहा है ।-शरद कोकास दुर्ग ,छ.ग.

Udan Tashtari said...

बेहतरीन पोस्ट...सिद्धेश्वर का सटीक चित्रण!!

कामता प्रसाद said...

पूर्वोत्‍तर पर विस्‍तार से लिखा जाना चाहिए।लेखन की भाषा सांगीतिक हो तो भी।

भूमिका के तुरंत बाद लेख खत्‍म !!!
बात बनी नहीं।

अजीत चिश्ती said...

ati manmohak , aage ka intezaar rahega