Sunday, October 11, 2009

भला हुआ मेरी मटकी फूटी


कितने - कितने बरस बीत गए
सब धरती को कागज
सात समुद्रों को स्याही
और समूची वनराजियों को
कलम बना लेने का मंत्र देने वाला जुलाहा
अब भी बुने जा रहा है लगातार-
रेशा रेशा !


बहुत दिन हुए 'कबाड़ख़ाना' पर कुछ गीत - संगीत नहीं प्रस्तुत किया. सो आज यह गीत और इस बहाने कबीर की कुछ साखियाँ. जब भी कबीर की बात आती है अधिकांश लोग कबीर के 'दोहे' सुनाने लगते हैं लेकिन यह सच है कि उन्होंने दोहे ( लिखने की बात नही है - 'मसि कागद छूयो नहीं !) नहीं , साखियाँ कही है.याद करे 'बीजक' के तीन खंडों को - साखी , सबद और रमैनी.साखी अर्थात साक्षी. इसमें कोई दो राय नहीं कि कबीर की वाणी अपने समय में अपने समय साक्ष्य थी और और आज भी अपने समय का साक्ष्य है !
कितनी - कितनी किताबों में कबीर पर कितना - कितना कहा गया है , उस इंसान के बारे में इतनी किताबें जिसने कभी 'मसि कागद' छुआ तक नहीं और 'कलम गही नहिं हाथ' और हम सब हैं कि पोथी पढ़ - पढ़कर मुए जा रहे हैं तथा 'अरे दोउन राह न पाई' की मार तमाम चेतावनी बाद भी अंधकार में मौज काटने में लगे हैं !
बहुत कुछ कहने मन कर रहा है लेकिन थोड़ा कहना और यह समझने की कोशिश करना कि 'ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो...'
सो , आज सुनते है कबीर की कुछ साखियाँ , स्वर है आबिदा परवीन का...





4 comments:

शरद कोकास said...

आज सुबह सुबह कबीर को सुना और वह भी आबिदा की आवाज़ में .. मै सुनता ही जा रहा हूँ और अपना होना सार्थक कर रहा हूँ .. बुरा जो देखन मै चला ,मैं भी हो गई लाल, प्रेम न हाट बिकाय .. भला हुआ मेरी मटकी फूट गई .. कबीरा बैद बुलाया .. वाह .. वाह .. सिद्धेश्वर जी ..धन्यवाद

वाणी गीत said...

कबीर के दोहे ...नहीं ...साखिया ...मनभावन है ...बहुत आभार ...!!

मुनीश ( munish ) said...

sundar prastuti !

प्रीतीश बारहठ said...

Sir,

लिंक नहीं है। कैसे सुनें !!