Thursday, November 26, 2009

एक हिमालयी यात्रा: दूसरा हिस्सा

(पिछली किस्त से आगे)

तीदांग, न्यौली, टोपी शुक्ला, बारिश वगैरह

भुवन ने पूरा मकान किराए पर लिया हुआ है - सौ रुपया महीने पर. दरवाज़ों-खिड़कियों की लकड़ी पर महीन नक्काशी है और यह मकान समूची दारमा घाटी में देखे गए सुन्दरतम मकानों में से एक है. भीतर उसने कमरा अपने हिसाब से जमा रखा है. परम्परागत शौका घर में तमाम तरह के ऊनी कालीन, खालें, टोकरियां वगैरह होती हैं पर भुवन के कमरे में एक मेज़ है और दो घिसी हुई कुर्सियां. मेज़ पर कागज़-पत्तर-किताबें हैं और फ़िलिप्स का तीन बैण्ड वाला रेडियो.

भुवन हमारे अब तक किए गए काम के बारे में जानने को आतुर है. हम बातें कर रहे हैं. कोई उसे आवाज़ लगाता है. एक सुदर्शन व्यक्ति भीतर आता है. गुमानसिंह तितियाल - हमारा परिचय कराया जाता है. गुमानसिंह मुझसे हाथ मिलाते हैं और सबीने से नमस्ते कहते हैं. वे ख़ूब हंसते हैं - बच्चों वाली निश्छल हंसी. उनकी उपस्थिति जीवन्त और दोस्ताना है.

अगर सब कुछ ठीकठाक रहा तो कल सुबह हम सिन-ला की चढ़ाई शुरू करेंगे. भुवन हमें बताता है कि हमें आई. टी. बी. पी. जाकर अपने नाम दर्ज़ कराने पड़ेंगे.

कुटी गांव


करीब चार बजे हम चैकपोस्ट पहुंचते हैं. हमारा स्वागत उसी उत्साह और गर्मजोशी से किया जाता है जिसकी हमें आदत पड़ चुकी है. कमान्डैन्ट भला आदमी है और औपचारिकताओं के बीच हमें कॉफ़ी प्रस्तुत की जाती है. कमान्डैन्ट हमें बताता है कि इस मौसम में सिन-ला चढ़ने में हमें काफ़ी तकलीफ़ होगी. शुक्रिया वगैरह के बाद हम जाने को ही हैं कि वह कहता है "हमने यहां एक छोटी सी लाइब्रेरी बना रखी है" फिर किंचित अभिमान से वह जोड़ता है "मैंने खुद अपने संग्रह से किताबें यहां डोनेट की हैं."

मैं लाइब्रेरी देखने की इच्छा जताता हूं. लाइब्रेरी में करीब डेढ़ दर्ज़न पेपरबैक्स हैं और कुछ पुरानी फ़िल्मी पत्रिकाएं. निर्मल वर्मा की कहानियां और राही मासूम रज़ा की ’टोपी शुक्ला’ देखकर सुखद अचरज होता है.

मुझे अचानक अकेलापन महसूस होने लगता है. दो महीनों से मैंने हिन्दी में कुछ नहीं पढ़ा है. कमान्डैन्ट अपनी किताबों, रुचियों और जीवन के बारे में बहुत कुछ कह रहा है पर मैं सुन नहीं रहा.

खिड़की से बाहर देखता हूं. घने बादल और सलेटी आकाश - मेरी उदासी को प्रतिविम्बित करते जैसे. मैं और उदास हो जाता हूं. दोनों किताबें रात भर के लिए ’इश्यू’ करा लाता हूं.

"मुझे अपनी किताबों की याद आ रही है" मैं सबीने से कहता हूं. वह सहानुभूतिपूर्ण स्वीकृति में सिर हिलाती है और चट्टानों पर फांदती हुई नई फ़ोटो खींचने की तैयारी करने लगती है. कमान्डैन्ट उसके कैमरे को सन्देह की दृष्टि से देखता है. मैं उसे बताता हूं कि हमारे पास कैमरा-परमिट है. वह परमिट दिखाने कि नहीं कहता.

हम गांव की तरफ़ उतर रहे हैं. भुवन अनजाने ही बहुत मीठी, मद्धम आवाज़ में कुमाऊंनी विरह-गीत ’न्यौली’ गुनगुना रहा है - प्रेमी के विरह में नायिका विलाप कर रही है कि उस मन का क्या करे जो थामा ही नहीं जाता जबकि बहता पानी तक थम जाता है और उस पर मौसम की उदासी -

काटन्या, काटन्या
पौली ऊंछौ चौमासी को बाना,
बगन्या पाणी थामी जांछौ
नी थामीनै मन ...


माया लागी


भुवन के महीन स्वर मेरे भीतर घने अवसाद का परदा खींच देते हैं. अचानक तेज़ बारिश लग जाती है. करीब दो माह से हम लोग ऐसी ही तर बारिशों में बंजारों की तरह एक गांव से दूसरे गांव भटकते रहे हैं.

मैं थक गया हूं. मुझे घर जाना है, मुझे धूप चाहिए. मैं अकेला अपने कमरे में होना चाहता हूं. चाहता हूं कुछ दिन कुछ न करूं.

इसी उदासी में हम कमरे के भीतर हैं. लालटेन की रोशनी और बाहर बारिश. मैं निर्मल जी की कोई कहानी पढ़ रहा हूं -सबीने अपनी नोटबुक में व्यस्त है.

ठण्ड विकट पड़ रही है. बारिश रुकने पर भुवन गांव में हमारे खाने के जुगाड़ के लिए निकल जाता है. वह काफ़ी औपचारिक हो रहा है और अपनी तरफ़ से आतिथ्य में कोई कमी नहीं रहने देना चाहता. सात बजे के आसपास गुमानसिंह आते हैं - निश्छल हंसी और च्यक्ती की बोतल लेकर. कमरा अचानक भर सा गया है. परसों सुबह गुमानसिंह ने ऊंचाइयों की तरफ़ निकलना है - अपने शिकार अभियान पर. इस बार उन्होंने एक बड़ा जानवर मार कर लाना है ताकि नवम्बर तक के लिए उनके परिवार के पास खाने को पर्याप्त मांस हो. हमारे गिलासों में च्यक्ती भरते हुए वे हमें अपने शिकारी जीवन के बारे में बतलाते हैं. वे भुवन को भूल गए लगते हैं. असल में उनकी बातों में हम भी भुवन को भूल से गए हैं. भुवन भीतर आता है तो उसके चेहरे पर झेंप और इतनी देर तक हमें अकेला छोड़कर जाने के लिए क्षमायाचना का भाव है पर हमें गुमानसिंह जी के साथ मगन देखकर वह सामान्य हो जाता है.

बांएं भुवन पांडे, दांए गुमानसिंह तितियाल, बीच में निर्माणाधीन कबाड़ी


"खाने के बाद हमें नाच-गाने के लिए एक घर जाना है - और खाना गुमानसिंह जी के घर बन रहा है." हमें सूचना देकर, जल्दी से एक गिलास च्यक्ती पीकर वह आग जलाने में व्यस्त हो जाता है.

....

जब गुमानसिंह को हमारे सिन-ला जाने की योजना का पता चलता है, वे तुरन्त हमसे कहते हैं कि यह असम्भव है - "जब भी मारछा गांव के ऊपर की पहाड़ी पर बर्फ़ होती है, सिन-ला चढ़ने की हिमाकत कोई नहीं करता! हम लोग पीढ़ियों से ऐसा करते आए हैं."

गुमानसिंह सिन-ला की दिक्कतों के बारे में लम्बी दास्तानें सुनाते जाते हैं. सबीने और मैं एक दूसरे को चिन्तित निगाहों से देखते हैं.

थोड़े खाने और नाच-गाने के बाद हम अपने-अपने स्लीपिंग बैग्स के भीतर हैं. नींद नहीं आती और हम तमाम सम्भावनाओं पर विचार करते हैं. "कल देखी जाएगी!" कहकर अन्ततः हम एक-दूसरे का ढाढ़स बंधाते हैं.

अगली सुबह उठते हैं तो देखते हैं कि बारिश की झड़ी लगी है. आठ बज चुका है. तो!

तो क्या!

- सिन-ला का इरादा छोड़ना पड़ेगा शायद.

दिन भर लोग आते रहते हैं और सिन-ला के बारे में भयावह किस्से-कहानियां सुनाते हैं. हम सिगरेट पर सिगरेट फूंके जा रहे हैं और इस तथ्य से हिले हुए हैं कि अब हमें पूरा तवाघाट तक उतरना होगा और फिर कुटी गांव तक की दुर्दान्त चढ़ाई - इसमें करीब दो सौ किलोमीटर तक चलना होगा.

भुवन की मेज़ पर मुझे कैल्कुलेटर जैसा दीखने वाला एक वीडियो गेम मिल जाता है. मैं पागलों की तरह इस बचकाने खेल को घन्टों तक खेलता रहता हूं - सबीने खीझती रहती है. जब भी एक बम मेरी कार पर गिरता है, एक तीखी इलेक्ट्रॉनिक महिला आवाज़ निकलती है: "रौन्ग! रौन्ग! रौन्ग!" मशीन के भीतर कुछ तकनीकी गड़बड़ है और स्पीकर से आने वाली आवाज़ कर्कश और असहनीय है: "वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग!" जब भी ऐसा होता है सबीने कोशिश करती है मैं गेम को छोड़ दूं. पर मुझे हर हाल में इस लेवल से आगे जाना है. वह बहुत चिढ़ गई है.

"बारिश रुक गई है. चलो टहल कर आते हैं" वह मुझे मना रही है. "वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग!" - पाजी बम ने फिर से मेरी कार तबाह कर डाली. "तुम सुन रहे हो?" - सबीने अब मुझे डांट रही है. मुझे कैसे भी अगले लेवल पर पहुंचना है. "प्लीज़ एक बार और खेल लेने दो ना!" - मैं याचना करता हूं. "ठीक है. बस एक बार. फिर हम टहलने जा रहे हैं!" - उसकी आवाज़ में धमकी है.

"वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग!" - उफ़ साले हरामज़ादे बम! मैं खेलता रहता हूं. भयंकर गुस्से में मुझे बुरा भला कहकर सबीने अकेली ही बाहर चली गई है.

"वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग!" मुझे अपनी गलती का अहसास होता है पर बहुत देर हो चुकी है.

मुझे अचानक भान होता है कि हमारी इस पूरी यात्रा का यह सबसे निरर्थक दिन रहा है. मैं वीडियोगेम मेज़ पर फेंक बाहर खुले में आ जाता हूं. पर तुरन्त बारिश आ जाती है. मेरे पास वापस भीतर जाने के अलावा कोई चारा नहीं.

मेज़ पर पड़ा फूहड़ वीडियोगेम मुझे अगले लेवल पर चलने को ललचा रहा है. मैं करीब-करीब उसे उठा ही रहा था कि भाग्यवश सबीने आ गई है. वह छाता ले जाना भूल गई थी और लगता है कि उसे याद नहीं कि उसने मुझे डांट पिलानी है. "उफ़! मैं पागल हो जाऊंगी इस बारिश से!" वह खीझती हुई कहती है.

"तुम्हारे लिए चाय बनाऊं?" - मैं नहीं चाहता वह मुझे डांटे. और अब तो मैं गेम भी नहीं खेल रहा. सग्गड़ पर जली आग पर मैं चाय बनाता हूं. हम देर तक एक-दूसरे का हाथ थामे खिड़की से बाहर बारिश देखते रहते हैं. हम मारकेज़ की कहानी ’वॉचिंग इट रेन इन माकोन्दो’ के बारे में बात करते हैं. मैं उसे नैनीताल के अपने स्कूल के छात्रावास के दिनों की असम्भव बारिशों के बारे में एक किस्सा सुनाता हूं. फिर एक और किस्सा. अब वह मुस्करा रही है.

"चोको!" वह प्रस्ताव रखती है "क्या ख़्याल है, कल की बची च्यक्ती ख़त्म की जाए?"

जल्द ही भुवन भी कहीं से खाना और च्यक्ती लेकर आ जाता है. फिर गुमानसिंह और प्रधानजी पहुंचते हैं. प्रधानजी गांव के बारे में आश्चर्यजनक किस्से-कहानियां सुनाते हैं - तमाम भूत-प्रेत, चुड़ैल-आंचरी, दबे हुए ख़ज़ाने वगैरह की एक से एक दिलचस्प कहानियां. वार्तालाप धीरे-धीरे ख़ासा उत्तेजनापूर्ण हो जाता है. कुछ और लोग कमरे में आ जाते हैं. अचानक इस छोटे से कमरे में बाकायदा छोटी-मोटी पार्टी चालू है - हंसी-ठठ्ठ-किस्से-कहानियां...

मां


यह अविस्मरणीय समय है. सबीने जैसे मेरा मन पढ़ कर कैमरा निकाल लेती है. इस कार्यक्रम के उपरान्त हम सारे लोग एक पड़ोसी की रसोई की तरफ़ चल पड़ते हैं. हमें कुछ खाना परोसा जाता है. सारा गांव हमारे लिए इकठ्ठा है. देर रात तक नाच-गाना चलता रहता है. धुंए से भरी रसोई में स्त्री-पुरुष नाच रहे हैं. चूल्हे से निकलती कोई लपट कभी किसी चेहरे को आभासित कर देती है. यह सब बेहद सम्मोहक है हमेशा की तरह. हमने न जाने कितनी बार ऐसी दावतों में हिस्सेदारी की है - पर इनका जादू कभी समाप्त नहीं होता. अचानक मुझे अपनी देखी हुई सारी बर्फ़बारियां याद आती हैं. हर बार की बर्फ़ अलग होती है - हरेक का अपना तिलिस्म होता है, हरेक का अपना व्यक्तित्व.

(जारी)

(सभी फ़ोटो - डॉ. सबीने लीडर)

11 comments:

Ek ziddi dhun said...

बेहद सम्मोहक और जादुई. च्यक्ति पी नहीं पर लगता है आगे के नशे के लिए तैयार रहने होगा. पूरा वातावरण, अगले खतरे की चेतावनी, बारिश, ठण्ड, नाच, उदासी, कमरे की याद और निर्मल वर्मा. कुछ-कुछ निर्मली अहसास भी

अजेय said...

कुछ खास नही, आगे चलिए.

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छा लगा। बार-बार पढ़ने का मन करता है। अगला अंक जरा जल्द प्रस्तुत करें।

आशुतोष पार्थेश्वर said...

adbhut!

आशुतोष उपाध्याय said...

इन अनुभवों में छुपी बेकरारी को मैदानों में बैठ कर महसूस नहीं किया जा सकता! लाज़वाब!!

मुनीश ( munish ) said...

@ "इन अनुभवों में छुपी बेकरारी को मैदानों में बैठ कर महसूस नहीं किया जा सकता'', I beg to differ with Ashutosh ji . A very vivid word-sketch of days and nights gone by . A part of life well lived and worth cherishing for ever. A rare gem for Hindi readers .

Sunder Chand Thakur said...

oh ho ho ho mein garv se phula nahi sama raha...mujhe pata tha is sale ke paas maal bhara pada hai...isiliye kal bhi maine tippani ki thi...ashok bahi...na puch kitna nasha chadh gaya hai ye padhkar...maph karana...hamesha is tarah nahi padh pata...magar ye to khajana hai...ashutosh dajyu ke udgar galat nahi hain...aur na munish bhai ke...kitna bhi kaho woh kam hai...ab tu ye silsila chalye ja...

मसिजीवी said...

धक्‍क.. सा रह जाने वाला यथार्थ है इस वर्णन में। रूमानी सैलानियत से दूर।

मोर..मोर वी वांट मोर

Anil Pusadkar said...

रोचक।

नीरज गोस्वामी said...

आपने शब्द और फोटो से जो तिलस्म रचा है उस से बाहर निकलना बहुत मुश्किल है...एक सांस में पढ़ गया आपकी पोस्ट...अद्भुत...वाह...
नीरज

आशुतोष उपाध्याय said...

मुनीश भाई मेरा वो मतलब नहीं. अशोक के वृतांत ऊपरी हिमालय में उनकी भटकन का खुमार हैं. आप तो महाघुमक्कड़ हो, इस नशे को आपसे बेहतर कौन समझेगा!!