Sunday, November 29, 2009

एक हिमालयी यात्रा: पांचवां हिस्सा

(पिछली किस्त से जारी)

जयसिंह के जूते के तले में एक बड़ा सा छेद हो गया है. उसे चलने में तकलीफ़ हो रही है. सबीने उसे रुकने को कहती है. वहीं पर अपन बैग खोल कर वह जयसिंह को अपने दूसरे जूते उसे पहनने को देती है. पहनने से पहले जयसिंह काफ़ी ना-नुकुर करता है.

चोटी का कोई नामोनिशान नज़र नहीं आ रहा. अगर कमान्डैन्ट ने सही कहा था तो उसे आस पास ही होना चाहिए. उसके हिसाब से करीब साढ़े ग्यारह तक हमें वहां पहुंच चुकना चाहिए था. अब तो पौने बारह बज चुका है. हर कदम के साथ चलना मुश्किल होता जा रहा है. सबीने की क्या हालत हो रही होगी - मैं बस अन्दाज़ा ही लगा सकता हूं.



बर्फ़ काफ़ी है. एक एक कदम बढ़ाने में बहुत श्रम करना पड़ रहा है. मुझे अपने साथियों के चेहरों पर हताशा, भय और थकान नज़र आ रहे हैं. शायद यही भाव मेरे चेहरे पर भी होंगे.

लाटू काकू मेरे लिए रुका हुआ है. उसकी मुद्रा में कुछ है जो मुझे खटकता है. वह मेरी तरफ़ निगाह करता है और उसकी आंखों से आंसू गिरने लगते हैं.

"साहब मैं नहीं जानता था कि इतनी मुश्किल होगी. मैं वापस जाना चाहता हूं. मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं साहब." वह फफक कर रोने लगता है. भाग्यवश सबीने काफ़ी पीछे है और इस दृश्य को देखने के लिए सिर्फ़ जयसिंह ही मेरे साथ है.

मेरी समझ में नहीं आ रहा उससे क्या कहूं. अपने दिमाग में किसी उचित वाक्य की संरचना करता हुआ मैं उसके कन्धे थपथपाता हूं. जयसिंह बिल्कुल हक्का बक्का है - मेरी तरह.

"देखो काकू, हम सब के अपने परिवार हैं. हम भी थक गए हैं और चिन्तित हैं पर आप तो हमारे गाइड हैं. हम सब तो आप के ही भरोसे हैं. अगर आपने जाना है तो आपकी इच्छा है पर हम कहां जाएंगे?"

सबीने भी पहुंच जाती है.

"क्या चल रहा है?" वह पूछती है.

लाटू काकू सबीने के थके हुए चेहरे पर दॄढ़ इच्छाशक्ति देखता है - अचानक कोई चीज़ उसे प्रेरित करती है - वह उठता है और तेज़ तेज़ चलना शुरू कर देता है - अपने आंसुओं को पोंछने की परवाह किए बग़ैर.



"ऐसे ही कुछ दिक्कत थी" मैं सबीने से कहता हूं. "अब ठीक है." मैं संक्षेप में उसे बताता हूं. अब हम साथ चलने की कोशिश कर रहे हैं. साढ़े बारह बज गया है और हम अब भी सिन-ला के आसपास तक नहीं हैं. मुझे थोड़ी फ़िक्र होने लगी है. जयसिंह और लाटू काकू अनिश्चित कदमों से आगे-आगे घिसट जैसे रहे हैं.

मैं सबीने से इजाज़त लेकर घुटनों घुटनों बर्फ़ में तकरीबन भागता हुआ उन दोनों के पास पहुंचता हूं और रुकने का इशारा करता हूं. हम पलट कर देखते हैं - कैम्प अब भी दिख रहा है. मैं एक बार नक्शा निकाल कर देखता हूं. मुझे लग रहा है कि हम गलत दिशा में जा रहे हैं. मैं लाटू काकू से कहता हूं कि अगर हम थोड़ा वापस चलकर बांईं तरफ़ से चढ़ना शुरू करें तो शायद सिन-ला पहुंच जाएं. वह तुरन्त सहमत हो जाता है. उसे खुद नहीं पता रास्ता कहां खो गया है.

अब मैं आगे-आगे चल रहा हूं और सावधानीपूर्वक बाईं तरफ़ चढ़ रहा हूं. करीब पचास मीटर आगे मुझे एक समतल सी सतह होने का आभास होता है. मैं लाटू काकू के पहुंच चुकने का इन्तज़ार करता हूं.

"क्या सिन-ला ऊपर हो सकता है काकू?"

"हां. शायद यही है." उसकी आवाज़ में एक क्षणिक अनिश्चितता है.

मैं सबीने की तरफ़ हाथ हिला कर इशारा करता हूं कि हम पहुंचने ही वाले हैं. करीब आधा घन्टा और चढ़ने पर सिन-ला दर्रा साफ़ दिखाई दे रहा है. वहां भी पत्थरों की ढेरियां बना कर स्मारक बनाए गए हैं - ताज़ी बर्फ़ से ढंके हुए फ़िलहाल. लाटू काकू बहुत प्रसन्नता से कहता है: "वही है साब सिन-ला! वही है."

जयसिंह भी खु़शी में हंस रहा है.

यह भूलकर कि मुझे अपने पैर और नाक दोनों के होने का अहसास तक नहीं हो रहा, मैं करीब करीब दौड़ता हुआ सिन-ला पहुंच जाता हूं. घड़ी देखता हूं जो रास्ते में सबीने ने मुझे पकड़ा दी थी -डेढ़ बजा है. बीदांग से इतना नज़दीक दिख रहे सिन-ला तक पहुंचने में हमें आठ घन्टे लग गए. मैं अपनी नाक छूता हूं. मेरी त्वचा पपड़ी बन कर उखड़ने लगी है.



हताश आत्मीयता में लाटू काकू मेरे गले से लग जाता है. जयसिंह भी. लाटू मुझे दूसरी तरफ़ का दृश्य दिखाता है - हमारे ठीक दांईं तरफ़ आदि कैलाश की चोटी है जो कैलाश पर्वत की प्रतिलिपि जैसी ही दिखाई देती है. नीचे खोखल जैसी एक खाई है जिसमें ताज़ा बर्फ़ इकठ्ठा है. फिर नीचे सलेटी-भूरी ज़मीन है. दूर कहीं कुछ छतें चमक रही हैं - यह जौलिंगकौंग है.

"आपने वहां पहुंचना है साब!" लाटू काकू मुझे उत्साहपूर्वक समझा रहा है.

दस मिनट में सबीने भी पहुंच गई है - भयंकर थकान उसके चेहरे पर है. असम्भव कर चुकने का भाव भी. हम एक दूसरे को बधाई देते हैं. वह तुरन्त अपना दर्द भूलकर आसपास के दृश्य में खो जाती है. दिव्य - शान्ति और एकाकीपन. चारों तरफ़ बर्फ़. जयसिंह खाना निकाल लेता है. रास्ते की घबराहट की वजह से हम खाने को तो भूल ही गए थे. जल्दी जल्दी सूखे परांठों और अचार का लन्च निबटाया जाता है. करीब आधा घन्टा वहां रुक कर गप्पें मारी जाती हैं, सबीने तस्वीरें खींचती है. लाटू काकू को विदा करने के उपरान्त हम जौलिंगकौंग का रुख़ करते हैं.

एक बार जौलिंगकौंग की तरफ़ देख कर हम अनुमान लगाते हैं कि सब ठीकठाक रहा तो दो घन्टे में हमें वहां होना चाहिए. चारों तरफ़ ताज़ा बर्फ़ है. सबीने ने अपना दूसरा वाला धूप का चश्मा मुझे दे दिया है ताकि आंखें चुंधिया न जाएं. वह मेरा मज़ाक भी उड़ाती है - पर चश्मा बिचारा अपना काम तो कर ही रहा है. - दिख मैं चाहे कैसा भी रहा होऊं.

दूसरी तरफ़ जाते ही हमारा पूर्वानुमान बिल्कुल बुरी तरह गलत साबित होता है. रास्ते का कोई निशान है ही नहीं. मैं बस ऐसे ही चलता जा रहा हूं आगे-आगे. करीब दस-बारह कदम बाद मैं एक गहरे गड्ढे में धंस जाता हूं - कमर तक. मुझे अब पता लग रहा है कि हमारी परेशानियां अभी कम नहीं हुई हैं. ढलान पर की बर्फ़ बहुत धोख़ा पैदा करने वाली है. कहीं तो बस घुटनों भर है और कहीं-कहीं इतनी कि आप खड़े-खड़े दफ़न हो जाएं.

सबीने और जयसिंह मेरे बचाव के लिए आते हैं. वे बमुश्किल मुझे निकालते हैं. सबीने मुझसे कहती है कि हमें सावधानी से चलना होगा क्योंकि मुसीबतें अभी और आएंगी. वह ऑस्ट्रिया की रहने वाली है - आल्प्स को जानती है और बर्फ़ देखने की आदी है - इसलिए बर्फ़ की उसकी समझ हमसे कहीं बेहतर है.

हाल में हुई इस दुर्घटना के बाद भी मैं आगे-आगे चल रहा हूं. एक भी कदम उठाने से पहले मैं अपनी बांस की लाठी को बर्फ़ में धंसाकर उसकी गहराई का अनुमान लगा लेता हूं. हम करीब पांच घन्टों से बर्फ़ पर चल रहे हैं. मेरे पैरों से सनसनी ग़ायब हो चुकी है अलबत्ता घुटनों के सुन्न हो चुकने का अहसास भर है. मेरे अन्दर कोई है जो कहता जाता है - एक कदम चलो! अब एक और!

घन्टे बीतते जा रहे हैं और बर्फ़ ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही. हमारी दिक्कतें बढ़ती जा रही हैं और अक्ल भी काम करना बन्द कर रही है. हम दोनों बमुश्किल बातें करते हैं पर जब भी ऐसा होता है हमारी भाषा में गुस्से और उत्तेजना का अंश मिला होता है. जाहिर है जयसिंह भी थक गया है और इस संघर्ष के समाप्त होने का इन्तज़ार कर रहा है.

मैं अचानक फिसलता हूं और कमर तक बर्फ़ में धंस जाता हूं. मुझे अपनी हथेलियों पर कुछ गर्म गीली चीज़ महसूस होती है. दोनों हथेलियों से खून की धारें बह रही हैं. मैं जहां धंसा था वहां बर्फ़ के नीचे की ज़मीन ब्लेड जैसी तीखी थी. पूरी तरह गिर न जाने के लिए मैंने अपनी हथेलियां नीचे टिका ली थीं. खून देखकर मुझे शुरू में अजीब लगता है. इसके बाद की प्रतिक्रिया होती है - असहाय गुस्सा.

"तुम्हारी वजह से मैं यहां मरने जा रहा हूं. इस रिसर्च के चक्कर में हम सब यहां मरने वाले हैं. भाड़ में जाओ तुम सब ..." मैं पाता हूं कि मैं चिल्ला रहा हूं.



हम करीब सत्रह हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर हैं. सबीने और जयसिंह भागकर मेरे पास आते हैं. सबीने देखना चाहती कि मुझे कितनी चोट लगी है लेकिन मैं गुस्से में अब भी अन्धा हूं. दर्द अब नहीं है पर सफ़ेद बर्फ़ पर टपकते खून ने मुझे एक अनिश्चित भय से भर दिया है कि ज़्यादा खून बहने से कुछ भी हो सकता है - कुछ भी.

उसकी परवाह किए बिना मैं गुस्से, असहायता और नासमझी के दौरे के बीच उठकर आगे बढ़ जाता हूं. करीब पांच मिनट तक गिरते-पड़ते चलने के बाद पलटकर देखता हूं कि मेरे दोनों साथी अभी वहीं खड़े हैं. नीचे देखता हूं. पूरे रास्ते भर खून ने एक लकीर सी खींच दी है. मुझे अचानक अपनी बेवकूफ़ी का अहसास होता है. वापस होश में आकर मैं क्षमायाचना का संकेत करता हूं. वे चलना शुरू करते हैं. सबीने पास आती है तो मैं उससे माफ़ी मांगता हूं. उसकी आंखों में आंसू हैं. मुझे उसके पेटदर्द का ख्याल आता है और मैं शर्म से गड़ जाता हूं. मैं बार-बार माफ़ी मांगता हूं. सबीने ने मेरे हाथ थामे हुए हैं. खून जमने लगा है,

"चोको, दर्द हो रहा है?" वह लाड़ से पूछती है.

"नहीं. ठीक है अब. मैं अपने शब्दों के लिए शर्मिन्दा हूं. पता नहीं मुझ पर क्या पागलपन सवार हो गया था." मैं रुआंसा होकर बर्फ़ को देख रहा हूं. "हम समय रहते जौलिंगकौंग पहुंच जाएंगे न? ... और तुम्हारा दर्द कैसा है?"

"हां पहुंच जाएंगे और मैं ठीक हूं. मुझे तुम्हारी चिन्ता है. तुम थोड़ा और बहादुर हो पाओगे? और चौकन्ने? अब तो पास ही है - वो देखो कितनी पास दिख रही है वो पहाड़ी."

साढ़े चार बज गया है. मैं पलटकर देखता हूं. पिछले दो-ढाई घन्टों में हम सिन-ला से बमुश्किल कुछ सौ मीटर नीचे उतर सके हैं. दाईं तरफ़ आदिकैलाश है.

"देखो कितना शानदार है!" मैं सबीने से कहता हूं.

"हां, मैं तो पूरे रास्ते इसे देखती रही हूं - तुम्हें चाहिए कि इसे गौर से देखो. और वो देखो." वह मेरे कन्धे थामकर मुझे उल्टी तरफ़ घुमा देती है - क्षितिज तक फैली हुई हिमालय की विस्तृत सौन्दर्यराशि मेरे सामने पसरी हुई है.

"वहीं कहीं तिब्बत भी होगा ..." मैं फुसफुसाता हूं.

"हां तिब्बत ... और ... ल्हासा ... और मानसरोवर. हमें वहां जाना है. है न?"

मैं सहमति में सिर हिलाता हूं.

"पर उससे पहले हमें जौलिंगकौंग पहुंचना है और मैं नहीं चाहती कि तुम और कोई बेवकूफ़ी करो." वह प्यारभरे स्वर में डांटती है और हिन्दी में कहती है - "थीक है?"

"ठीक है. येस ठीक है."



अब हम साथ-साथ उतर रहे हैं - थोड़ा सा बढ़ी हुई उम्मीद के साथ. धीरे-धीरे बर्फ़ कम होती जा रही है और चलना आसान. शाम तेज़ी से उतर रही है. आखिरकार जब हम ज़मीन पर पहुंचते हैं करीब-करीब अन्धेरा हो चुका है. एक चट्टान पर बैठ हम जयसिंह के आ चुकने की प्रतीक्षा करते हैं. मैं सिगरेट जलाने की कोशिश करता हूं पर हवा के दाब की वजह से ऐसा कर पाना असम्भव है. जब मैं करीब आधा डिब्बा माचिस बरबाद कर चुकता हूं सबीने मुझे डपटती है और धैर्य धरने को कहती है.

जयसिंह आ गया है और पांच मिनट बाद हम उतरना शुरू करते हैं. भयंकर अंधेरे में तीखी ढलानों और कीचड़भरे रास्ते पर गिरते-पड़ते हमें दो घन्टे और लगते हैं. आखिरकार हम कुमाऊं मण्डल विकास निगम के कैम्प तक पहुंच गए हैं. कैम्प का मैनेजर हमें देखकर आश्चर्य व्यक्त करता है. उसे यकीन नहीं हो रहा कि हम सिन-ला होकर आ रहे हैं.

"पर इतना अन्धेरा है! आपको हमारा कैम्प मिला कैसे? चरवाहों के कुत्तों ने आपको तंग नहीं किया ... मैं यकीन नहीं कर सकता ..."

मुझे उसकी आवाज़ सुनाई ही नहीं पड़ रही. हम रात के रुकने की व्यवस्था की बाबत पूछताछ करते हैं. वह एक बार फिर से हैरत के साथ हमें देखता है. फिर शायद उसने हमारी हालत पर गौर किया होगा. वह जल्दी उठता है और हमसे अपने पीछे आने को कहता है. वह एक सोलर लालटेन थामे है. हमारे सामने अर्धवृत्ताकार टैन्ट जैसी संरचना है - धातु और फ़ाइबर की बनी हुई. उसे देखकर किसी इगलू की याद आती है. थोड़ी दूरी पर कुटी-यांग्ती नदी बह रही है. उसका बहाव सुनाई दे रहा है.

मैनेजर हमें भीतर ले जाता है - बहुत सफ़ाई है और हवा में धूप की महक है. फ़ोम के गद्दों का ढेर एक कोने में है और कम्बलों का दूसरे कोने में. न्यूयॉर्क, वालेन्सिया, रियो, काराकास, कुरासाओ के कैसे कैसे होटलों में रह चुकने के बावजूद मुझे नहीं लगता मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में रहने की इतनी शानदार जगह देखी है.

मैं मैनेजर से कुमांऊंनी में बातें करने लगता हूं. वह अब तक मुझे अंग्रेज़ समझे हुए है. वह मेरी कुमाऊंनी से हक्काबक्का है.

"यू स्पीक वैरी गुड कुमाऊंनी सर"

उसे अब भी कुछ समझ में नहीं आ रहा. मैं उसे बताता हूं कि मैं भी कुमाऊंनी हूं - द्वाराहाट का मूल निवासी.

शुरुआती सदमे और संशय की हालत से करीब पांच मिनट बाद बाहर आकर वह अचानक बहुत शिष्ट और शालीन मेजबान की तरह व्यवहार करना शुरू कर देता है.

(जारी)

10 comments:

Ek ziddi dhun said...

चोको, डर लग रहा है. दोनों टुकड़े साथ पढ़े. लगता है कि यात्रा में शामिल हैं. खीझ भी होती है कि ऐसा रोमांच तो क्या अब तो रात की आवारागर्दी भी अपने नसीब में नहीं.

प्रेमलता पांडे said...

भूखों को एक-एक टुकड़ा!!!

ग़ज़ब!

अजेय said...

तिब्बत जाएंगे? "vow"!

तस्वीरें बहुत सुन्दर हैं. विवरण भी.
व्यास चोदाँस के घूमंतू समुदायों पर कभी विस्तृत पोस्ट दीजिए.

दीपा पाठक said...

अद्भुत! बहुत ही सुंदर वृतांत। बहुत दिनों बाद इंटरनेट सुविधा मिली और सबसे पहले यहीं आना हुआ। पहली से पांचवी किस्त तक बिना रुके पढ़ती चली गई। आनंद आ गया पढ़ने में। यह अनुभव किताब के रूप में भी उपलब्ध हैं क्या?

दीपा पाठक said...

....अगर नहीं है तो होनी चाहिए।

Ashok Kumar pandey said...

बाप रे गुरु
सांस रोके पढ रहा हूं!!!!

Unknown said...

Guman singh Titiaal, kya admi hai, jara si der ko aaya aur poore mahaul par chaa gaya. Uske baare mein aur jyada janane ki ikcha hai.

sabse ant me ek post bas uspar.

aur janmdin mubarak ho choko babu...aaj 29 Nov. hai na. Anyway your nic name sounds like ice cream.

मसिजीवी said...

ये वृत्‍तांत हम दम थामे पढ़ रहे हैं। हतप्रभ हैं... कृपया जारी रहें।

ghughutibasuti said...

गजब! द्वाराहाट के हो तो लगभग पड़ोसी हो। पिताजी रोज मीलों पैदल चलकर द्वाराहाट पढ़ने जाते थे।
घुघूती बासूती

मुनीश ( munish ) said...

Happy belated B'day and thanx for introducing such a lovely place braving all the difficulties !Marvellous indeed !