Monday, December 14, 2009

एक हिमालयी यात्रा: आठवां हिस्सा

(पिछली किस्त से जारी)



जौलिंगकौंग

अगली सुबह हम थोड़ा देर से उठते हैं. इगलू की नन्ही खिड़कियों से छन कर आए धूप के दो चमकीले आयत भीतर किसी सर्रियल पेन्टिंग का सा अहसास दे रहे हैं. मैं जयसिंह की खोज में निकलता हूं ताकि चाय की व्यवस्था की जा सके. बाहर आते ही अपने सामने फैले लैन्डस्केप की विराट सुन्दरता मुझे पत्थर जैसा कर गूंगा बना देती है.

दिन बेहद साफ़ है - लगातार तीसरा साफ़ शफ़्फ़ाफ़ दिन. मेरे ठीक सामने बर्फ़ से ढंकी चोटियों के मध्य अतुलनीय आदिकैलाश है. पलटकर देखता हूं - बेहद ऊंचे, बंजर, अकल्पनीय आकारों वालों हल्की भूरी रंगत वाले पहाड़. हरियाली का कोई नामो-निशान नहीं. हमारे कैम्प के बग़ल में शान्त कुटी यांगती बह रही है. खुले में पर्याप्त गरमी महसूस होती है.

मैं सबीने को जगाता हूं और हम काफ़ी देर तक लैन्डस्केप को देखते रहते हैं. हमारे पैरों पर मासूम दिख रहे छाले पड़े हुए हैं. हम कल के दुस्साहसिक अभियान की याद करते हैं - हमें हैरत होती है कि हम असल में इस काम को अंजाम दे सके. सबीने की तबीयत आज बेहतर है.

दोपहर के आसपास हम आई.टी.बी.पी. कैम्प जाते हैं. सिपाही हमें पहचान लेते हैं और उन में से एक हमें कमान्डैन्ट के तम्बू तक ले जाते हैं. कमान्डैन्ट के ऊपर भालू जैकेट और नीचे गांधी आश्रम वाला गन्दा पाजामा पहना हुआ है - उसके चेहरे पर मनहूसियत और क्षमायाचना पसरी हुई है.

"आइये सर!" वह अपनी ओर से दोस्ताना होने की पूरी कोशिश में है, "मैं कल रात के लिए शर्मिन्दा हूं". ऐसा कहता हुआ वह अपने तम्बू में बिखरी बेतरतीब चीज़ों को तरतीब में लगाने की जुगत करता रहता है.

मैं उसकी नकली दोस्ताना बातों पर ध्यान नहीं देता हुआ अपने काग़ज़ात उसे दिखाता हूं. वह काग़ज़ों पर उड़ती सी निगाह डालता है और कहता है - "मेरे ख़याल से अब इनकी कोई ज़रूरत नहीं. आप कॉफ़ी लेंगे या चाय?"

मैं अब भी काफ़ी अपसैट हूं और कल रात जयसिंह के साथ उसके सिपाहियों द्वारा किये गए दुर्व्यवहार के लिए उसकी ऐसीतैसी करना चाहता हूं लेकिन मेरा मन कहता है कि इतने शानदार लैन्डस्केप के बीच ऐसा करना ठीक नहीं. हम उठने को होते हैं कि एक सिपाही ट्रे में कॉफ़ी लेकर तम्बू के भीतर आता है. चीनी के शर्बत जैसी घटिया कॉफ़ी को ज्यूंत्यूं निबटा कर हम बाहर आते हैं. किसी भी तरह का वार्तालाप कर सकने की कमान्डैन्ट की सारी कोशिशों को मैं नज़र अन्दाज़ करता रहा.

बाहर कुछ भी नहीं बदला है. क्या शानदार नज़्ज़ारा है! कैम्प-मैनेजर ने हमें पार्वती सरोवर और उससे लगे मन्दिर की बाबत बतलाया हुआ है. हम बांई तरफ़ को जाकर एक छोटी सी पहाड़ी चढ़ते हैं जिसके ऊपर पार्वती सरोवर अवस्थित है. यहां से आदि कैलाश के आधार पर स्थित एक और झील नज़र आती है.

मन्दिर के कैम्पस से तीन अधेड़ स्त्रियां बाहर आती हैं. उनमें से एक हमें इतनी देर तक घूरती रहती है कि मुझे खीझ होने लगती है. लेकिन मेरी खीझ बेमानी निकलती है जब वह हमारे पास आकर विनम्रता से पूछती है कि क्या हमीं लोग पिछले साल लम्बे समय तक उसके गांव गुंजी में लम्बे समय तक रहे थे. हमारा परिचय बाकी की दो महिलाओं से कराया जाता है. दरअसल ये तीनों बहनें हैं और क्रमशः गुंजी, गर्ब्यांग और नपल्चू गांवों से एक मन्नत मांगने इतनी दूर चलकर आई हैं.

वे हमें जॉलिंगकौंग के भूगोल से परिचित कराती हैं. आदि कैलाश के आधार पर मौजूद झील को राक्षस ताल कहा जाता है. दीगर है कि कैलाश पर्वत की बग़ल में अवस्थित झील भी इसी नाम से जानी जाती है. महिलाएं हमें पार्वती सरोवर तक लेकर जाती हैं. झील ठीकठाक बड़ी है. पास ही ज़मीन के एक टुकड़े पर हल्के धानी रंग की उंची घास उगी हुई है. सारा दृश्य किसी पिक्चर पोस्टकार्ड का भ्रम देता है. गुंजी से आई महिला पूछती है कि क्या हम इस खेत की कहानी से परिचित हैं. मेरे ना कहते ही वह इस खेत की कहानी सुनाना चालू कर देती है. दरअसल यह घास नहीं पवित्र धान के पौधे है.

"लेकिन इसमें धान पैदा नहीं होता" वह जोड़ती है.

पौधे वास्तव में धान के पौधे लग रहे हैं. लेकिन करीब सोलह हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर धान उगने की बात कल्पनातीत लगती है. मैं नकली आश्चर्य व्यक्त करता हूं ताकि उसकी भावनाओं को आहत न कर दूं.

वापस कैम्प की तरफ़ जाते हुए हम तमाम तरह की बातें करते जाते हैं. मैंने उनसे हमारे साथ चलकर चाय पीने का आग्रह किया है.

कैम्प पहुंच कर पार्वती सरोवर की दास्तान विस्तार में सुनाई जाती है.

कभी कुटी गांव में लीबेनह्या नाम का एक राजा रहता था. उसकी दो पत्नियां थीं. एक पत्नी तिब्बत की थी जबकि दूसरी नेपाल के मारमा इलाके की.

तिब्बती रानी किसी तरह की शिकायतें नहीं करती थी. कुटी जैसी ऊंचाई पर जो भी मोटा अनाज उगता था उसी से उसका काम चल जाया करता था. तिब्बत के बीहड़ पठारों में उपलब्ध ज़्यादातर खाद्य सामग्री इस अनाज के सामने भूसा लगने लगी थी उसे. नेपाली रानी को अपने मायके में स्वादिष्ट व्यंजनों की आदत पड़ी हुई थी और बहुत चाहने पर भी वह व्यांस घाटी के परम्परागत भोजन के साथ स्वयं को एडजस्ट नहीं कर सकी.

वह धर्मपारायण ब्राह्मण स्त्री थी और अपने देवताओं पर बहुत आस्था रखती थी. उसने फ़ैसला किया कि किसी भी कीमत पर इन ऊंचाइयों पर भी धान, जौ और मडवा उगा कर दिखाएगी. उसने एक सन्देशवाहक को अपने पिता के पास नेपाल भेजकर वहां से इन सब के बीज मंगवाए. जौलिंगकौंग में इस उद्देश्य हेतु एक खेत तैयार करवाया गया.

शौका परम्परा के मुताबिक नेपाली रानी ने संसार के तमाम कीड़ों से प्रार्थना की कि वे आकर उसके खेत को उपजाऊ बनाएं. इसमें एक तकनीकी अड़चन भी थी. स्थान की उंचाई की वजह से वहां सांपों का जीवित रह सकना असम्भव था. लेकिन चूहों और छछूंदरों से ग्रस्त उस खेत में सांपों का रहना ज़रूरी शर्त थी.

सो इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु नेपाली रानी ने शेषनाग की आराधना करने का निर्णय लिया.

इस दौरान तिब्बती रानी हालिया महीनों में राजा द्वारा नेपाली रानी पर दिए जा रहे अतिरिक्त ध्यान की वजह से डाहग्रस्त हो गई. इसी डाह में उसने तय किया कि वह कुटी गांव में नमक की खान पैदा कर देगी जैसा कि उसके मायके यानी तिब्बत में हुआ करती थीं. स्वयं उसके पिता के राज्य में कई नमक की खानें थीं जिनसे दुनिया का सबसे सफ़ेद नमक निकला करता था.

नेपाली रानी की आराधना से प्रसन्न हो शेषनाग ने दारमा घाटी से जौलिंगकौंग की यात्रा शुरू की - वे स्येला ग्लेशियर के रास्ते पन्द्रह किलोमीटर की दुरूह यात्रा करते हुए ऊपर की तरफ़ चढ़ने लगे.

तिब्बती रानी को यकीन था कि नेपाली रानी के प्रयत्न बर्बाद हो जाएंगे. लेकिन जब उसे शेषनाग की यात्रा का पता चला उसकी ईर्ष्या की कोई सीमा न रही. उसने गांव में रहनेवाली एक दुष्ट जादूगरनी को मदद के लिए बुलवाया. जादूगरनी और तिब्बती रानी स्येला ग्लेशियर से जौलिंगकौंग पहुंचने वाले पहाड़ की चोटी के उस तरफ़ पहुंचकर छिप गईं. जैसे ही शेषनाग ने नीचे की तरफ़ उतरना शुरू किया, इन दो दुष्ट औरतों ने कालीन बुनने में काम आने वाले तीखी धार वाले ’थल’ की मदद से शेषनाग का सिर काट डाला.

शेषनाग का सिर तीखी ढलान से होता हुआ नीचे कुटी यांगती के किनारे जा गिरा जबकि उसकी बाकी की देह ने चट्टानों पर अपना निशान छोड़ दिया.

इस अपराध के बाद राजा आगबबूला हो गया - राजा अपराधस्थल पर पहुंचा जहां उसके साथ तिब्बती रानी और जादूगरनी की जंग हुई. इस जंग के अन्त में तीनों की मृत्यु हो गई.

"आप कुटी गांव से शेषनाग के निशान देख सकते हैं. और अगर आप नीचे उतरकर कुटी यांगती नदी के किनारे तक जाएं तो आपको शेषनाग का सिर नज़र आएगा. पहाड़ी के आधार से दो पतली धाराएं बहती हैं - एक में सफ़ेद द्रव होता है दूसरी में काईदार भूरा. सफ़ेद वाला द्रव मृत राजा के दिमाग से बाहर आता है जबकि दूसरा वाला दुष्ट तिब्बती रानी के दिमाग से ..."
गुंजीनिवासिनी की आवाज़ में भरपूर आत्मविश्वास है.

(जारी)

6 comments:

ghughutibasuti said...

बहुत ही अच्छा वर्णन किया है। कहानी पढ़कर नेपाली रानी की तरह यहाँ मुम्बई में भी भट्ट उगाने का मन हो रहा है। किसकी अराधना करूँ कि गमलों में भट्ट उग आएँ?
घुघूती बासूती

मसिजीवी said...

7वां और 8वां हिससा अभी एक साथ पढ़ा सॉंस रोककर..

रानी का तो पता नहीं पर हम जयर ईर्ष्‍या से मरे ज रहे हैं कि अनुभवों की विशदता पर कोई समानता का नियम लागू क्‍यों नहीं होता (सही है अनुभव सिनला यात्रा जेसे कष्‍टों के बाद ही मिलते हैं और हम स्‍वप्‍न में भी इतने कष्‍ट से सिहर उठेंगे... पद इस आरामतलबी से हमारे ईर्ष्‍याधिकार पर कोई फर्क नहीं पड़ता)

Sunder Chand Thakur said...

mein nakli ashcharya vyakt karata hoon taaki uski bhavnaon ko ahat na kar doon...je hui na baat...ye sabse shaandaar pankti hai...likhte raho lalla...tumhe bhi nahi pata tum likh kya rahe ho..

मुनीश ( munish ) said...

The landscape really reminds of some surreal world yet to be visited, to be explored . The greenish hue of the hill brings back the memories of pictures seen in old Soviet magazines the pages of which were used to wrap the lunch by innumerable Indian babus and their kids.

Ek ziddi dhun said...

Sundar Chand Thakur Ji, achha hi hai, is aadmi ko jyada pata na chale (yani pata chalne ka guroor na hao). jitna pata hai, utna hi barbad hone ke liye kya kam hai.
~Deewane to hote hain banaye nahi jate~

नीरज गोस्वामी said...

आपकी ये हिमालय यात्रा इतनी रोचक है की एक सांस में पढ़ जाता हूँ...आपकी शैली ने मुझे बहुत बहुत प्रभावित किया है...लिखते रहें...
नीरज