Wednesday, May 5, 2010

कौन-सी दिशि में अँधेरा अधिक गहरा है !


चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर,
इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं ।
*****
ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा—डरा।


आज अपने सहकर्मियों के बीच फुरसत के चंद पलों में यूँ ही बातचीत के दौरान जब दुष्यन्त कुमार( १९३३- १९७५ ) के ( ऊपर लिखे ) दो शेर जब सुनाये तो एक सज्जन ने कहा कि 'हाँ इनका कुछ और भी सुना है, विद्यार्थी जीवन में इनकी कोई किताब भी देखी थी - शायरी की किताब थी शायद'. मैं समझ गया कि वे 'साये में धूप' की बात कर रहे हैं. यह उन किताबों में से है जो मैंने कई बार खरीदी और कई बार गायब हो गई. इस वक्त भी यह मेरे संग्रह में नहीं मिल रही है. कहीं होगी किसी काव्यप्रेमी के पास जो उसे कभी कभार देख - निरख कर अपने विद्यार्थी जीवन के कुछ आग , पानी , राख , धुआँ वाले पलों को याद कर लेता होगा. 'साये में धूप' हिन्दी की बेस्टसेलर्स में से एक है. यह हिन्दी कविता का चेहरा बदलने वाली और 'हिन्दी ग़ज़ल' को स्थापित करने वाली किताबों में से भी एक है. दूसरी ओर यह किताब दुष्यन्त कुमार की प्रतिनिधि रचना भी मानी जाती है. किन्तु हिन्दी साहित्य के गंभीर पाठकों के लिए दुष्यन्त कुमार मात्र 'साये में धूप' के रचनाकार भर नहीं हैं. वे 'नई कहानी' को एक कथा आन्दोलन के रूप में रेखांकित करने वाले शुरुआती लेखकों में से रहे हैं , उन्होंने 'आंगन में एक वृक्ष' जैसा उपन्यास लिखा है .'सूर्य का स्वागत' तथा 'आवाजों के घेरे' जैसा विलक्षण काव्य संग्रह भी हिन्दी को दिया है. आइए 'आवाजों के घेरे' संग्रह में संकलित उनकी एक कविता साझा करते हैं और देखते हैं कि हिन्दी ग़ज़ल का यह सशक्त हस्ताक्षर लय और तुक के परे कैसा दिखता है और क्या लिखता है...

कौन-सा पथ

तुम्हारे आभार की लिपि में प्रकाशित
हर डगर के प्रश्न हैं मेरे लिए पठनीय
कौन-सा पथ कठिन है...?
मुझको बताओ
मैं चलूँगा।

कौन-सा सुनसान तुमको कोचता है
कहो, बढ़कर उसे पी लूँ
या अधर पर शंख-सा रख फूँक दूँ
तुम्हारे विश्वास का जय-घोष
मेरे साहसिक स्वर में मुखर है।

तुम्हारा चुम्बन
अभी भी जल रहा है भाल पर
दीपक सरीखा
मुझे बतलाओ
कौन-सी दिशि में अँधेरा अधिक गहरा है !

5 comments:

दिलीप said...

तुम्हारा चुम्बन
अभी भी जल रहा है भाल पर
दीपक सरीखा
मुझे बतलाओ
कौन-सी दिशि में अँधेरा अधिक गहरा है !
bahut hi sundar....ashavaadi aur sahsik drishtikon...

पारुल "पुखराज" said...

कौन-सा सुनसान तुमको कोचता है
कहो, बढ़कर उसे पी लूँ

लय और तुक से बढकर भाव हैं…

आभार …

Puja Upadhyay said...

ये किताब मेरे भी घर से कई बार गायब हो जाती है. चार बार खरीद चुकी हूँ. अधिकतर साथ ही लिए घूमती हूँ. कई कई बार पढ़ने पर भी लिखे हुए को पढ़ना हर बार अच्छा लगता है.
दुष्यंत की पूरी रचनावली मेरे पास है. उनके खत जो साथ के साहित्यकारों या संपादकों को लिखे गए हैं. इनमें उनका जीवन अनुभव बिखरा हुआ है.

ये वाली कविता मुझे भी बहुत पसंद है.

Unknown said...

किताबघर से प्रकाशित है दुष्यंत रचनावली (कविता गज़ल, लेख, साक्षात्कार ) श्री विजय बहादुर सिंह संपादित/ श्रमसाध्य - "एक कंठ विषपायी" काव्य नाटक का सर्वहत कैसे भूल सकते हैं ?

iqbal abhimanyu said...

गूंगे निकल पड़े हैं जुबां की तलाश में,
सरकार के खिलाफ ये साजिश तो देखिये !!

मत कहो आकाश में कोहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

दुष्यंत और 'साए में धूप' दोनों को सलाम !!