Wednesday, June 16, 2010

थोड़ा नमक था उनमें दुख का, सुख का थोड़ा महुआ

ग्वालियर में रहने वाले हमारे कबाड़ी मित्र अशोक कुमार पाण्डेय ने अपनी यह लम्बी कविता मुझे कुछ दिन पूर्व भेजी थी. एक बड़े फलक पर फैली यह कविता हमारी इस इक्कीसवीं सदी पर काफ़ी धारदार और ज़रूरी टिप्पणी है. कविता लम्बी है और ध्यान से पढ़े जाने की दरकार रखती है. शायद यही वजह थी कि मुझे इसे यहां लगाने में इतना समय लगा.



अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार

(एक)

इस जंगल में एक मोर था
आसमान से बादलों का संदेशा भी आ जाता
तो ऐसे झूम के नाचता
कि धरती के पेट में बल पड़ जाते
अंखुआने लगते खेत
पेड़ों की कोख से फूटने लगते बौर
और नदियों के सीने में ऐसे उठती हिलोर
कि दूसरे घाट पर जानवरों को देख
मुस्कुरा कर लौट जाता शेर

एक मणि थी यहां
जब दिन भर की थकन के बाद
दूर कहीं एकान्त में सुस्ता रहा होता सूरज
तो ऐसे खिलकर जगमगाती वह
कि रात-रात भर नाचती वनदेवी
जान ही नहीं पाती
कि कौन टांक गया उसके जूड़े में वनफूल

एक धुन थी वहां
थोड़े से शब्द और ढेर सारा मौन
उन्हीं से लिखे तमाम गीत थे
हमारे गीतों की ही तरह
थोड़ा नमक था उनमें दुख का
सुख का थोड़ा महुआ
थोड़ी उम्मीदें थी- थोड़े सपने…

उस मणि की उन्मुक्त रोशनी में जो गाते थे वे
झिंगा-ला-ला नहीं था वह
जीवन था उनका बहता अविकल
तेज़ पेड़ से रिसती ताड़ी की तरह…
इतिहास की कोख से उपजी विपदायें थीं
और उन्हें काटने के कुछ आदिम हथियार

समय की नदी छोड़ गयी थी वहां
तमाम अनगढ़ पत्थर,शैवाल और सीपियां…

(दो)

वहां बहुत तेज़ रोशनी थी
इतनी कि पता ही नहीं चलता
कि कब सूरज ने अपनी गैंती चाँद के हवाले की
और कब बेचारा चाँद अपने ही औज़ारों के बोझ तले
थक कर डूब गया

बहुत शोर था वहां
सारे दरवाज़े बंद
खिड़कियों पर शीशे
रौशनदानों पर जालियां
और किसी की श्वासगंध नहीं थी वहां
बस मशीने थीं और उनमें उलझे लोग
कुछ भी नहीं था ठहरा हुआ वहां
अगर कोई दिखता भी था रुका हुआ
तो बस इसलिये
कि उसी गति से भाग रहा दर्शक भी…

वहां दीवार पर मोरनुमा जानवर की तस्वीर थी
गमलों में पेड़नुमा चीज़ जो
छोटी वह पेड़ की सबसे छोटी टहनी से भी
एक ही मुद्रा में नाचती कुछ लड़कियां अविराम
और कुछ धुनें गणित के प्रमेय की तरह जो
ख़त्म हो जाती थीं सधते ही…

वहां भूख का कोई संबध नहीं था भोजन से
न नींद का सपनों से
उम्मीद के समीकरण कविता में नहीं बहियों में हल होते
शब्द यहां प्रवेश करते ही बदल देते मायने
उनके उदार होते ही थम जाते मोरों के पांव
वनदेवी का नृत्य बदल जाता तांडव में
और सारे गीत चीत्कार में


जब वे कहते थे विकास
हमारी धरती के सीने पर कुछ और फफोले उग आते



(तीन)

हमें लगभग बीमारी थी ‘हमारा’ कहने की
अकेलेपन के ‘मैं’ को काटने का यही हमारा साझा हथियार
वैसे तो कितना वदतोव्याघात
कितना लंबा अंतराल इस ‘ह’ और ‘म’ में

हमारी कहते हम उन फैक्ट्रियों कों
जिनके पुर्जों से छोटा हमारा कद
उस सरकार को कहते ‘हमारी’
जिसके सामने लिलिपुट से भी बौना हमारा मत
उस देश को भी
जिसमे बस तब तक सुरक्षित सिर जब तक झुका हुआ
…और यहीं तक मेहदूद नहीं हमारी बीमारियां

किसी संक्रामक रोग की
तरह आते हमें स्वप्न
मोर न हमारी दीवार पर, न आंगन में
लेकिन सपनों में नाचते रहते अविराम
कहां-कहां की कर आते यात्रायें सपनों में ही…
ठोकरों में लुढ़काते राजमुकुट और फिर
चढ़कर बैठ जाते सिंहासनों पर…
कभी उस तेज़ रौशनी में बैठ विशाल गोलमेज के चतुर्दिक
बनाते मणि हथियाने की योजनायें
कभी उसी के रक्षार्थ थाम लेते कोई पाषाणयुगीन हथियार
कभी उन निरंतर नृत्यरत बालाओं से करते जुगलबंदी
कभी वनदेवी के जूड़े में टांक आते वनफूल…

हर उस जगह थे हमारे स्वप्न
जहां वर्जित हमारा प्रवेश!


(चार)

इतनी तेज़ रोशनी उस कमरे में
कि ज़रा सा कम होते ही
चिंता का बवण्डर घिर आता चारो ओर

दीवारें इतनी लंबी और सफ़ेद
कि चित्र के न होने पर
लगतीं फैली हुई कफ़न सी आक्षितिज

इतनी गति पैरों में
कि ज़रा सा शिथिल हो जायें
तो लगता धरती ने बंद कर दिया घूमना
विराम वहां मृत्यु थी
धीरज अभिशाप
संतोष मौत से भी अधिक भयावह

भागते-भागते जब बदरंग हो जाते
तो तत्क्षण सजा दिये जाते उन पर नये चेहरे
इतिहास से निकल आ ही जाती अगर कोई धीमी सी धुन
तो तत्काल कर दी जाती घोषणा उसकी मृत्यु की

इतिहास वहां एक वर्जित शब्द था
भविष्य बस वर्तमान का विस्तार
और वर्तमान प्रकाश की गति से भागता अंधकार…

यह गति की मज़बूरी थी
कि उन्हें अक्सर आना पड़ता था बाहर



उनके चेहरों पर होता गहरा विषाद
कि चौबीस मामूली घण्टों के लिये
क्यूं लेती है धरती इतना लंबा समय?
साल के उन महीनों के लिये बेहद चिंतित थे वे
जब देर से उठता सूरज और जल्दी ही सो जाता…
उनकी चिंता में शामिल थे जंगल
कि जिनके लिये काफी बालकनी के गमले
क्यूं घेर रखी है उन्होंने इतनी ज़मीन ?

उन्हें सबसे ज़्यादा शिक़ायत मोर से थी
कि कैसे गिरा सकता है कोई इतने क़ीमती पंख यूं ही
ऐसा भी क्या नाचना कि जिसके लिये ज़रूरी हो बरसात
शक़ तो यह भी था
कि हो न हो मिलीभगत इनकी बादलों से…

उन्हें दया आती वनदेवी पर
और क्रोध इन सबके लिये ज़िम्मेदार मणि पर
वही जड़ इस सारी फसाद की
और वे सारे सीपी, शैवाल, पत्थर और पहाड़
रोक कर बैठे न जाने किन अशुभ स्मृतियों को
वे धुनें बहती रहती जो प्रपात सी निरन्तर
और वे गीत जिनमे शब्दों से ज़्यादा खामोशियां…

उन्हें बेहद अफ़सोस
विगत के उच्छिष्टों से
असुविधाजनक शक्लोसूरत वाले उन तमाम लोगों के लिये
मनुष्य तो हो ही नहीं सकते थे वे उभयचर
थोड़ी दया, थोड़ी घृणा और थोड़े संताप के साथ
आदिवासी कहते उन्हें …
उनके हंसने के लिये नहीं कोई बिंब
रोने के लिये शब्द एक पथरीला – अरण्यरोदन

इतना आसान नहीं था पहुंचना उन तक
सूरज की नीम नंगी रोशनी में
हज़ारों प्रकाशवर्ष की दूरियां तय कर
गुज़रकर इतने पथरीले रास्तों से
लांघकर अनगिनत नदियां,जंगल,पहाड़
और समय के समंदर सात …

हनुमान की तरह हर बार हमारे ही कांधे थे
जब-जब द्रोणगिरियों से ढ़ूंढ़ने निकले वे अपनी संजीवनी…



(पाँच )

अब ऐसा भी नहीं
कि बस स्वप्न ही देखते रहे हम
रात के किसी अनन्त विस्तार सा नहीं हमारा अतीत
उजालों के कई सुनहरे पड़ाव इस लम्बी यात्रा में
वर्जित प्रदेशों में बिखरे पदचिन्ह तमाम
हार और जीत के बीच अनगिनत शामें धूसर
निराशा के अखण्ड रेगिस्तानों में कविताओं के नखलिस्तान तमाम
तमाम सबक और हज़ार किस्से संघर्ष के

और यह भी नहीं कि बस अरण्यरोदन तक सीमित उनका प्रतिकार
उस अलिखित इतिहास में बहुत कुछ
मोर, मणि और वनदेवी के अतिरिक्त
सिर्फ़ ईंधन के लिये नहीं उठीं उनकी कुल्हाड़ियां
हाँ … नहीं निकले जंगलों से बाहर छीनने किसी का राज्य
किसी पर्वत की कोई मणि नहीं सजाई अपने माथे पर
शामिल नहीं हुए लोभ की किसी होड़ में
किसी पुरस्कार की लालसा में नहीं गाये गीत
इसीलिये नहीं शायद सतरंगा उनका इतिहास…

हर पुस्तक से बहिष्कृत उनके नायक
राजपथों पर कहीं नहीं उनकी मूर्ति
साबरमती के संत की चमत्कार कथाओं की
पाद टिप्पणियों में भी नहीं कोई बिरसा मुण्डा
किसी प्रातः स्मरण में ज़िक्र नहीं टट्या भील का
जन्म शताब्दियों की सूची में नहीं शामिल कोई सिधू-कान्हू

बस विकास के हर नये मंदिर की आहुति में घायल
उनकी शिराओं में क़ैद हैं वो स्मृतियां
उन गीतों के बीच जो ख़ामोशियां हैं
उनमें पैबस्त हैं इतिहास के वे रौशन किस्से
उनके हिस्से की विजय का अत्यल्प उल्लास
और पराजय के अनन्त बियाबान…

इतिहास है कि छोड़ता ही नहीं उनका पीछा
बैताल की तरह फिर-फिर आ बैठता उन चोटिल पीठों पर
सदियों से भोग रहे एक असमाप्त विस्थापन ऐसे ही उदास कदमों से
थकन जैसे रक्त की तरह बह रही शिराओं में
क्रोध जैसे स्वप्न की तरह होता जा रहा आंखों से दूर

पर अकेले ही नहीं लौटते ये सब
कोई बिरसा भी लौट आता इनके साथ हर बार

और यहीं से शुरु होता उनकी असुविधाओं का सिलसिला
यहीं से बदलने लगती उनकी कुल्हाड़ियों की भाषा
यहीं से बदलने लगती उनके नृत्य की ताल
गीत यहीं से बनने लगते हुंकार
और नैराश्य के गहन अंधकार से निकल
उन हुंकारों में मिलाता अपना अविनाशी स्वर
यहीं से निकल पड़ता एक महायात्रा पर हर बार
हमारी मूर्छित चेतना का कसमसाता पांव

यहीं से सौजन्यतायें क्रूरता में बदल जातीं
और अनजान गांवों के नाम बन जाते इतिहास के प्रतिआख्यान!


(छः)

यह पहला दशक है इक्कीसवीं सदी का
एक सलोने राजकुमार की स्वप्नसदी का पहला दशक
इतिहासग्रस्त धर्मध्वजाधारियों की स्वप्नसदी का पहला दशक
पहला दशक एक धुरी पर घूमते भूमण्डलीय गांव का
सबके पास हैं अपने-अपने हिस्से के स्वप्न
स्वप्नों के प्राणांतक बोझ से कराहती सदी का पहला दशक

हर तरफ़ एक परिचित सा शोर
‘पहले जैसी नहीं रही दुनिया’
हर तरफ़ फैली हुई विभाजक रेखायें
‘हमारे साथ या हमारे ख़िलाफ़’
युद्ध का उन्माद और बहाने हज़ार
इराक, इरान, लोकतंत्र या कि दंतेवाड़ा

हर तरफ़ एक परिचित सा शोर
मारे जायेंगे वे जिनके हाथों में हथियार
मारे जायेंगे अब तक बची जिनकी कलमों में धार
मारे जायेंगे इस शांतिकाल में उठेगी जिनकी आवाज़
मारे जायेंगे वे सब जो इन सामूहिक स्वप्नों के ख़िलाफ़

और इस शोर के बीच उस जंगल में
नुचे पंखों वाला उदास मोर बरसात में जा छिपता किसी ठूंठ की आड़ में
फौज़ी छावनी में नाचती वनदेवी निर्वस्त्र
खेत रौंदे हुए हत्यारे बूटों से
पेड़ों पर नहीं फुनगी एक
नदियों में बहता रक्त लाल-लाल
दोनों किनारों पर सड़ रही लाशें तमाम
चारों तरफ़ हड्डियों के… खालों के सौदागरों का हुजूम
किसी तलहटी की ओट में डरा-सहमा चांद
और एक अंधकार विकराल चारों ओर
रह-रह कर गूंजतीं गोलियों की आवाज़
और कर्णभेदी चीत्कार

मणि उस जगमगाते कमरे के बीचोबीच सजी विशाल गोलमेज पर
चिल्ल पों, खींच तान ,शोर… ख़ूब शोर… हर ओर
देखता चुपचाप दीवार पर टंगा मोर
पौधा बालकनी का हिलता प्रतिकार में…

(चित्र: पाब्लो पिकासो की विख्यात पेन्टिंग ’गुएर्निका’)

8 comments:

संजय कुमार चौरसिया said...

sari ki sari kavitayen bahut sundar
umda rachnayen

http://sanjaykuamr.blogspot.com/

arvind said...

ati sunkaavya....aranyrodan nahi chitkaar....maarmik.

वाणी गीत said...

लघु उपन्यास सी ही लगी यह कविता ..
बार -बार पढने योग्य ...
मणि सी संग्रहणीय भी ...!!

Ek ziddi dhun said...

shi kah rahe ho Ashok Bhai, is kavita par tatkal kuchh likhkar ise post karna asan nahi raha hoga. lekin post ka sheershak behad mani bhara hai. Yh kavita likhne ke lie kafi mushkil jheli gyi hogi. ise padhna bhi asan nahi hai. Ashok Kumar Pandey ko salam.

rashmi ravija said...

एक कालजयी रचना...तमाम समकालीन राजनीतिक,सामजिक परिस्थितियों को परत दर परत खोलती हुई...

Nisha said...

bahut sundar kavita.. dher si sachchai prakat karte hue..

'एक मणि थी यहां
जब दिन भर की थकन के बाद
दूर कहीं एकान्त में सुस्ता रहा होता सूरज
तो ऐसे खिलकर जगमगाती वह
कि रात-रात भर नाचती वनदेवी
जान ही नहीं पाती
कि कौन टांक गया उसके जूड़े में वनफूल

एक धुन थी वहां
थोड़े से शब्द और ढेर सारा मौन
उन्हीं से लिखे तमाम गीत थे
हमारे गीतों की ही तरह
थोड़ा नमक था उनमें दुख का
सुख का थोड़ा महुआ
थोड़ी उम्मीदें थी- थोड़े सपने…'

shuruaat ki ye panktiya.. bhut hi sundar lagi.

प्रवीण पाण्डेय said...

लम्बी पर माला की भाँति गुँथी ।

Ashok Kumar pandey said...

अशोक भाई और सभी दोस्तों का आभार!