Monday, July 19, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा

वे मेरे सबसे बड़े दोस्त हैं. उम्र के हिसाब से. पिचासी साल के हैं. हल्द्वानी में मेरे ही मोहल्ले में रहते हैं. इन्डियन एक्सप्रेस के इतवार की क्रॉसवर्ड भरना उनका सबसे पुराना शगल है. यह हम दोनों का शगल बन गया है अब. और यही हमारी साप्ताहिक मुलाक़ातों का बहाना बनता है. ये कार्यक्रम मेरे घर के पीछे वाले कमरे में आयोजित होते हैं. इन मुलाकातों में छिपा कर बीयर की एक एक बोतल सूती जाती है और क्रॉसवर्ड पूरा करने के उपरान्त कोई दोएक घन्टे हमारी बातें चलती हैं.

मेरी मां आज भी नहीं समझ पातीं कि कैसा है यह बूढ़ा आदमी जो मेरे पिताजी की तबीयत के बारे में उस से कुछ भी नहीं पूछता और सीधा उसके बेटे के कमरे में घुस जाता है.

कुंवर साहब (यह कोई मूर्ख आभिजात्यपूर्ण उपाधि नहीं है, उनका सरनेम है. हमारे यहां पहाड़ों में कुंवर एक आम सरनेम होता है. उनकी उम्र के कारण सारा मोहल्ला उन्हें कुंवर साहब ही कहता आया है) बग़ैर चश्मे के अखबार पढ़ लेते हैं. पिछले साल तक एक दुर्घटना घटने से पहले तक वे हल्द्वानी के बेतरतीब ट्रैफ़िक में अपनी मॉपेड पर यहां वहां घूमते नज़र आ जाया करते थे. उक्त दुर्घटना उनके एक परिचित अन्दरूनी मोहल्ले में नगरपालिका द्वारा बिना किसी तरह का साइनबोर्ड लगाए खोदे गए विशाल गड्ढे की वजह से हुई थी. हादसा हो जाने के बाद उन्होंने कोई होहल्ला नहीं मचाया. खुद उठकर अस्पताल गए, भर्ती हुए, ऑपरेशन करवाया और अगली शाम को मुझे यह सूचना देने कन्धे पर प्लास्टर लगाए बाकायदा अपने झोले में इतवार का एक्सप्रेस और बीयर की बोतलें लिए हाज़िर थे.

उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है.

कोई दो साल पहले उन्होंने हैदराबाद में, जहां उनके पुत्र कार्यरत थे, अपने बचपन की गाथा नफ़ीस अंग्रेज़ी में लिख डाली थी. बताता चलूं कि उनके सारे बच्चे अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं. ख़ैर, मुझसे उन्होंने अपनी आत्मकथा के इस अंश का हिन्दी तर्ज़ुमा करने को कहा ताकि उनकी सेवानिवृत्त अविवाहित पुत्री, जिनके साथ वे हल्द्वानी में रहते हैं, अपने पिता के बचपन के बारे में जान सके (क्योंकि कुंवर साहब के मुताबिक उनकी अंग्रेज़ी उतनी अच्छी नहीं) और उन्हें मुझ लौंडे टाइप इन्सान के साथ हफ़्ते में एक दफ़ा बीयर पीने की इजाज़त देने में हुज्जत न करे.

आज से आप को पढ़वाता हूं उनके बचपन की अनूठी और मार्मिक दास्तान:




मैं पिछले कई सालों से अपने बीते दिनों में वापस जाने की बारे में सोचता रहा हूं; ख़ासतौर पर लड़कपन से पहले के सालों में. अक्सर लोगों को कहता सुनता हूं कि बीता समय हमेशा सुखद होता है. इस पूर्वाग्रह का मूल मुझे इस बात में दिखाई देता है कि समय तो बीत ही चुका होता है चाहे वह सुखद रहा हो या कड़वा. चूंकि उसके बारे में सोचते हुए आप रोज़मर्रा की दिक्कतों और अनिश्चित भविष्य-संबंधी विचारों में नहीं फंसते, सो उस के बारे में सोचना अच्छा ही लगता है. मैं सत्रह साल का था और इन्टर फ़र्स्ट ईयर में साइंस का विद्यार्थी था, जब मेरे पिता ठाकुर दौलत सिंह ने मुझे मेरी पैतृक पृष्ठभूमि के बारे में बतलाया.

मेरे जन्म से पहले मेरे पिता जिन्हें मैं बाबू कहता था, अल्मोड़ा में जिलाधिकारी दफ़्तर में एक छोटेमोटे क्लर्क थे. उन्होंने नैनीताल के हम्फ़्री स्कूल (जिसे अब सी आर एस टी कॉलेज कहा जाता है) से १९१७ में हाईस्कूल पास किया था.

बाबू की शादी १९०५ में हो गई थी जब वे खुद नौ साल के थे. जैसा कि उन दिनों किसान परिवारों में होता था, उनकी पत्नी उन से तीन साल छोटी थीं और अनपढ़ थीं. इस तरह की शादियों के पीछे घरेलू कामकाज में अतिरिक्त सहायता पाने का उद्देश्य भर हुआ करता. चूंकि पहाड़ों में क्षत्रिय लोग जमींदार भी हुआ करते थे, ये पर्वतीय बालाएं जल्दी सुबह से लेकर देर रात के खाने तक काम के बोझ तले पिसती रहती थीं. इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मैं विश्वास कर सकता हूं कि विवाहित जोड़ों को साथ रहने का बहुत कम समय मिल पाता होगा. और मेरे पिता के साथ तो यह स्थिति और भी विकट रही होगी क्योंकि दोनों के बौद्धिक स्तरों में बड़ा फ़र्क़ था. इसके अलावा कम वेतन पाने वाले कर्मचारी के लिए अपनी पत्नी को गांव-घर के कर्तव्यों के चलते अपने साथ रख पाना संभव नहीं होता था. वे आपस में तभी मिल पाते होंगे जब पति छुट्टी पर घर आता होगा.

अल्मोड़ा शहर के उत्तर में अवस्थित पाताल देवी मन्दिर में बाबू हर शाम को जाया करते थे. कुछ दिनों बाद उन्होंने कुछ ऐसा किया कि पड़ोस में रहने वाली एक युवा स्त्री भी उसी नियत समय पर मन्दिर पहुंचने लगी. ऐसा लगता है कि बाबू धीरे-धीरे उस स्त्री के मोहपाश में बंधते जा रहे थे. उन्हें यह भी पता चल चुका था कि वह प्रथम विश्वयुद्ध की एक युद्धविधवा नेपाली गोरखा थी. वक्त के साथ दोनों के बीच प्रेम पनपा और बह स्त्री अपना ससुराल छोड़कर बाबू के साथ रहने लगी.

अल्मोड़ा तब एक छोटी बसासत था. गुरखा राइफ़ल्स की एक बटालियन का सेन्टर होने की वजह से २०वीं सदी की शुरुआत से ही यहां गुरखों की अच्छी खासी आबादी रहने लगी थी. उक्त घटना शहर में चर्चा का विषय बन गई और पूरे गुरखा वंश की खा़स तौर पर उस स्त्री के ससुरालियों और उसके आर्मी अफ़सर भाई की साख़ में बट्टा लगा गई. पूरा कुनबा क्रोध में जल उठा और दोनों की जान ले लेने की योजनाएं बनाने लगा. भाग्यवश बाबू ज़िला प्रशासन में आबकारी कर्मचारी थे और अपने वरिष्ठ अधिकारियों की कृपा से अपना तबादला अल्मोड़ा से नैनीताल करवा पाने में कामयाब हो गए. वहां उनकी पोस्टिंग डी. एम कार्यालय में लाइसेंस क्लर्क के पद पर हुई.

तल्लीताल बाज़ार में एक मकान किराये पर लिया गया. दो छोटे कमरे थे और उन से लगी रसोई. घर में कोई छज्जा नहीं था न ही हवा के आने जाने का कोई प्रबन्ध. नैनीताल बाज़ार के मकान एक दूसरे से बहुत सटे हुए थे और विशेषतः गर्भवान स्त्रियों के टहलने वगैरह की जगह तक नहीं होती थी. वहीं दूसरी तरफ़ अल्मोड़ा वाला घर खुला खुला और प्रदूषणहीन था.

आख़िरकार २५ अगस्त १९२५ की रात को मेरा जन्म हुआ जब बाहर मूसलाधार बारिश थी. मेरी मां द्वारा एक लड़के को जन्म दिये जाने की प्रसन्नता बहुत संक्षिप्त रही. बहुत जल्दी मेरी मां को भीषण बुख़ार चढ़ा - इसकी वजह घर की अस्वास्थ्यकर नमीभरी हवा रही होगी जिसके भीतर मानसून के दौरान सूरज बमुश्किल आया करता था. जन्म देने के उपरान्त ज़रूरी सेवा टहल के अभाव और लगातार बिस्तर गीला करने वाले नवजात शिशु भी कारण रहे होंगे. इन सब वजहों से उसका स्वास्थ्य बहुत जल्दी बहुत ज़्यादा बिगड़ गया. मुझे बाद में पता चला कि दो माह के भीतर ही उसे टीबी की सेकेन्ड स्टेज रोगी बताया गया. इन हालातों में मेरा पालन पोषण गाय के दूध से हो रहा था. अन्ततः अक्टूबर १९२५ में बाबू ने हमें बागेश्वर से नौ मील उत्तर-पूर्व स्थित बुआ के गांव कांडा शिफ़्ट कर दिया. यह गांव चीड़ के पेड़ों से ढंका हुआ था. डाक्टरी सलाह के मुताबिक अभी १९७० के दशक तक यह विश्वास किया जाता था कि दवा के अलावा चीड़ के जंगल की निकटता टीबी से निबटने का अच्छा संयोजन होता था. सन पचास के दशक तक तो यह आलम था कि टीबी को जानलेवा बीमारी माना जाता था जैसा आज कैंसर है.

बुआ ने मुझे बाद में बताया कि मां की हालत लगातार और जल्दी-जल्दी बिगड़ती गई. उसकी हालत इस कदर दयनीय थी कि उसे मुझे अपनी निगाहों के आगे देखना भी बर्दाश्त न था और वह झिड़कते हुए आस पास के लोगों से मुझे दूर करने को कहा करती थी. जैसी कि आशंका थी उसकी मौत अन्ततं हो गई. तब मैं छः या सात माह का था. संक्षेप में एक प्रेमप्रसंग का यह नाटकीय अन्त था जिसने मुझे तकरीबन अनाथ बच्चा बना कर जीवन से लड़ने को अकेला छोड़ दिया था.

मैंने अक्सर लोगों को कहते सुना था कि दुर्भाग्य कभी भी अकेला नहीं आता. मेरे साथ भी यही हुआ. मुझे बाद में बताया गया कि मां की मौत के करीब एक माह बाद मुझे मेरे पैतृक गांव हड़बाड़ मेरी दादी के पास छोड़ दिया गया. मैं बहुत कमज़ोर बच्चा था और मां के दूध के अभाव और ठीकठाक परवरिश के बिना मेरी हालत बहुत दयनीय थी. मुझे लगातार पेचिश तो रहती ही थी मुझे प्रोलैप्स्ड रैक्टम की शिकायत हो गई जिसके कारण टट्टी करते हुए मेरे गुदाद्वार की भीतरी पेशियां बाहर आ जाया करती थीं. मैं दर्द से चिल्लाया करता था क्योंकि मैं उन्हें अपने आप से न तो बाहर खींच सकता था न वापस भीतर कर सकता था. यह काम बड़ी दिक्कत के साथ मेरी दादी को करना पड़ता था. यह बीमारी एक साल तक बनी रही.

इस के साथ ही मेरे सिर पर एक फोड़ा हो गया. स्थानीय स्तर पर उपलब्ध उपचार के बावजूद उसका आकार बढ़ता ही गया.

जैसा मैंने पहले भी बताया था बाबू डी एम नैनीताल के दफ़्तर में कार्यरत थे. तत्कालीन कुमाऊं - गढ़वाल के डिप्टी कमिश्नर जो एक वरिष्ठ अंग्रेज़ आई सी एस थे, मेरे पिताजी की कार्यक्षमता और कुशलता से प्रभावित हुए और आगे जा कर उन्हें पसन्द भी करने लगे.

इन्हीं दिनों डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, नैनीताल के मुख्य अधिशासी यानी सेक्रेटरी का पद तत्कालीन सेक्रेटरी की मृत्यु के कारण रिक्त हो गया. १९५० के शुरुआती सालों तक डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ज़िले भर की शिक्षा, चिकित्सा व निर्माण सेवाओं के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार होता था. सरकार चाहती थी कि उक्त रिक्त पद को तुरन्त भरा जाए. डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सदस्यों के मतदान द्वारा इस पद पर नियुक्ति होती थी.

डी. एम. नैनीताल की सिफ़ारिश पर बाबू को इस पद के एक प्रत्याशी के तौर पर नामित किया गया, बावजूद इस तथ्य के कि वे महज़ हाईस्कूल पास थे. स्व. पं. गोविन्द बल्लभ पंत तब बोर्ड के चेयरमैन थे. उन्होंने नैनीताल के एक वरिष्ठ अधिवक्ता पं. जी. डी. मासीवाल का नाम प्रस्तावित किया. पं. गोविन्द बल्लभ पंत बाद में संयुक्त प्रान्त के प्रथम मुख्यमंत्री, और फिर नेहरू जी की केन्द्र सरकार में गृह मन्त्री बने. मृत्योपरान्त उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया. ब्रिटिश हुकूमत के दौरान डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सद्स्यों को सरकार द्वारा प्रायोजित किये जाते थे. जो भी हो मेरे पिताजी नैनीताल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सेक्रेटरी निर्वाचित हो गए.

१९२७ के शुरुआती महीनों में उन्होंने पदभार ग्रहण किया. परिणामवश उनकी तनख्वाह में अचानक डेढ़ सौ रुपए की बढ़ोत्तरी हो गई. अब वे आराम से घर पर एक नौकर रख सकते थे. दफ़्तर में उनका अपना चपरासी भी था और उन दिनों चपरासी खुशी-खुशी अपने साहब के घरेलू कामों में हिस्सा बंटा लिया करते थे. क्लर्कों की तनख्वाह २० से २५ रुपए माहवार हुआ करती थी और दोएक रुपए में नौकर मिल जाते थे. १९४७ में खुद मैंने तीन रुपए पर नौकर रखा था.

(जारी - अगली क़िस्त का लिंक  - http://kabaadkhaana.blogspot.in/2010/07/blog-post_20.html)

10 comments:

arvind said...

aatm kathaa ki pahli kadee bahut acchhi lagi... aage ke bhaag kaa intejaar hai.

प्रवीण पाण्डेय said...

रोचक है। प्रतीक्षा रहेगी।

कामता प्रसाद said...

Thank you sir. One of the best post.

कामता प्रसाद said...

Thank you sir. One of the best post.

Unknown said...

खुशामदीद। कुंवर साहब की आत्मकथा का इंतजार रहेगा।




और हफ्ते में एक दफा। क्या गोली है।

abcd said...

इससे याद आया...सुना था....अम्ब्रीश पुरी साहब के बारे मे अनिल कपूर साहब ने कहा था की वे उन्के पीता के भी दोस्त थे,बडे भाई के भी दोस्त थे और उन्के भी !! और कहा था..imagine a personality who is friends with three generations at the same time, at the age of 70!!
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आप्के जिन्दादिल दोस्त के बारे मे जान्कर खूब खुशी हुई /
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A man is judged by the company he keeps.....ऐसा सुना था......

VICHAAR SHOONYA said...

जाने क्यों इस तरह कि कथाएं मुझे आकर्षित करती हैं. ये भी अच्छी लगी. ऐसे ही गौरा पन्त जी कि आत्मकथा पढ़ी थी कहीं. बहुत अच्छी लगी थी. अगले अंक का इंतजार रहेगा.

DHARMENDRA LAKHWANI said...

Bahut badiya dada.

मुनीश ( munish ) said...

Dalda type poston ke baad Desi ghee hai ye kahani .

अपूर्व said...

ऐसी आत्मकथाएं जीवन के उन चमकते आइनों की तरह लगती हैं..जिनमे के अक्सर अपने भविष्य की शक्ल दिखने लगती है..एक-एक कर सारी कड़ियाँ पढ़नी पड़ेगी..
एक छोटी सी चीज खटकी..एक जगह पर गलती से स्त्रियों के लिये गर्भवान प्रयुक्त हो गया गर्भवती के स्थान पर..