Saturday, August 7, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा: आगे का हिस्सा 6

कर्तव्यनिष्ठता की एक मिसाल

१९५१ में मुझे नैनीताल के चीना पीक (जिसे अब नैना पीक कहा जाता है) की चीना चौकी मुख्यालय में स्थानान्तरित कर दिया गया. यहां मैं मई १९५४ तक रहा.

मैं अपने डी.एफ़.ओ. श्री वी. पी. अग्रवाल से सम्बन्धित कुछ बातें बताना चाहूंगा. वे खासे अनुशासनप्रिय अधिकारी थे - काम के प्रति समर्पित और मानवीयता का सम्मान करने वाले. उनकी जिस इकलौती बात ने मुझे प्रभावित किया वह ये थी कि मैं जितने भी अफ़सरों के सम्पर्क में आया था, वन-संरक्षण के प्रति श्री अग्रवाल का रवैया उन सब में सर्वाधिक अनुकरणीय था. गर्मियों के दिनों जब वे मुख्यालय में होते थे, नैनीताल के आसपास किसी भी स्थान पर जंगल में आग लगने की सूचना मिलते ही वे किराये पर घोड़ा लेकर अपने अर्दली के साथ मौके पर पहुंच जाया करते.

१९५२ में मुझे डिप्टी रेन्जर के पद पर पदोन्नत किया गया.

मई १९५३ में नैनीताल के नज़दीक लड़ियाकांटा की चोटी पर आग लगी. मैं स्थानीय फ़ॉरेस्ट गार्डों और अन्य स्टाफ़ के साथ तुरन्त उस तरफ़ निकल पड़ा. उन दिनों फ़ॉरेस्टर ट्रेनिंग के प्रशिक्षार्थी ओक पार्क, नैनीताल में ठहरे हुए थे. हमारे डी. एफ़. ओ. इन सभी को मौके पर भेज पाने में कामयाब रहे. प्रशिक्षार्थी सुबह दस बजे तक मेरे पास पहुंच गए थे. वे मेरे साथ दोपहर एक बजे तक रहने के बाद वापस अपने कैम्प चले गए.

हम लोग आग के एक हिस्से पर काबू पा सके और उसे रिज के उत्तरी हिस्से की तरफ़ बढ़ने से रोक पाए थे. शाम होते होते आगे नीचे चट्टानी हिस्से तक पहुंच गई थी. हमने आपस में मशविरा कर के यह फ़ैसला लिया कि चूंकि अब आग पर काबू पाना आसान होगा और रात के समय इस काम में लगे रहना बेवकूफ़ी होगी क्योंकि कोई भी रात के अन्धेरे में फिसल कर अपने को चोट पहुंचा सकता था. सो हमने रांची गेस्टहाउस में रात बिताकर सुबह दोबारा कार्य शुरू करने का फ़ैसला लिया.

आधी रात के बाद हमने "डिप्टी साब! डिप्टी साब!" की पुकारें सुनीं. मैं समझ गया अग्रवाल साहब अपने मुआयने पर निकले हुए हैं और उनका अर्दली मुझे पुकार रहा है. मैंने अपने साथ के लोगों को जगाया और तुरन्त पाइन्स (नैनीताल) की दिशा में बढ़ने को कहा. वहां पहुंचने पर मैंने उनसे सड़क के किनारे लगे पैरापिटों पर लेट जाने को कहा. ईसाई कब्रिस्तान की दिशा से "डिप्टी साब! डिप्टी साब!" की पुकारें आईं. मैंने साहब और उनके अर्दली के अपने से कुछ गज की दूरी तक आने का इन्तज़ार किया. मैं अचानक उठ बैठा जैसे गहरी नींद में सोया होऊं.

श्री अग्रवाल ने सीधे मुझपर झल्लाते हुए कहा कि मैंने फ़ॉरेस्टर ट्रेनिंग के प्रशिक्षार्थियों को वापस क्यों जाने दिया. मैंने जवाब दिया कि मैंने पूरी कोशिश की पर लड़कों के लिए बिना भोजन के वहां रुक सकना सम्भव न था. फिर मैंने थोड़ा ऊंची आवाज़ में कहा कि अफ़सरान आग से जूझने वालों की समस्याओं को नहीं समझ सकते. उसके बाद मैंने उन्हें नीचे लगी आग दिखाते हुए कहा कि चट्टानी इलाके में लगी होने के कारण उस वक़्त उसे बुझा पाना सम्भव नहीं होगा. मैंने उन्हें यकीन दिलाया कि सुबह आग पर काबू पा लिया जाएगा. उनकी समझ में मेरी बात आ गई और उन्होंने हमसे उनके पीछे पीछे आने को कहा. रात का बाकी हिस्सा हमने पुनः रांची गेस्टहाउस में बिताया. पाठकगण अनुमान लगा सकते हैं कि श्री अग्रवाल अपने निवास, प्रायरी, में सुबह तीन बजे के आसपास पहुंच सके होंगे.

काम के प्रति समर्पण का इस से बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है?

स्टेशन डिप्टी रेन्जर के तौर पर काम करते हुए मुझे काफ़ी लाभ हुआ. मैंने नक्शे बनाना, नई इमारतों और सड़कों के एस्टीमेट बनाना, इन कार्यों को पूर्ण करना, नैनीताल नगर के लिए चारकोल और जलाने की लकड़ी का प्रबन्धन करना और मंडल कार्यालय के सारे कार्यों को करना सीखा. यह सब मैंने अपने रेन्ज अफ़सर श्री आलम सिंह जी के निर्देशन में सीखा. मंडलीय कार्यालय का सारा कार्य आमतौर पर असिस्टैन्ट कन्ज़रवेटर फ़ॉरेस्ट्स द्वारा किया जाता था.

यहां से मई १९५४ में मेरे तबादले लीसा डिपो अफ़सर काठगोदाम और उसके बाद १९५५ में रेन्ज असिस्टैन्ट के पद पर मनोरा रेन्ज में हुए. अक्टूबर १९५५ में वहां से मुझे पुनः नैनीताल बतौर स्टेशन ड्यूटी डिप्टी रेन्जर तैनात कर दिया गया. मैंने वहां दो साल और गुज़ारे.

मुख्य सचिव की पत्नी से मुलाकात

१९५६ की गर्मियां थीं जब कुमाऊं सर्किल के तत्कालीन कन्ज़रवेटर श्री जी. एन. सिंह ने मुझसे कोयले के चूरे की बाबत उत्तर प्रदेश के तत्कालीन प्रमुख सचिव श्री ए.एन. झा की पत्नी से मिलने को कहा. जब मैं वहां गया तो श्रीमती झा ने एक बोरे में आधे भरे हुए कोयले के चूरे की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा : "इसका क्या किया जाए?" मैंने जवाब दिया : "हमारे यहां स्थानीय लोग इसे गोबर में मिला कर उपले बनाते हैं और घर गर्म करने में इस्तेमाल करते हैं." क्या आप कल्पना कर सकते हैं मैं किस कदर बेवकूफ़ आदमी था? मुझे श्रीमती झा की बात में छुपे इशारे को समझ लेना था और चूरे को ले जा कर उसके बदले अच्छा स्तरीय कोयला पहुंचा देना था. लेकिन मेरी परवरिश इस तरह हुई थी कि मैं आदतन सही को सही और गलत को गलत कहा करता. क़िस्मत से मुझे अपने वरिष्ठ अधिकारियों से इस बाबत कुछ सुनने को नहीं मिला जो श्री झा के अच्छे मित्रों में थे.

2 comments:

VICHAAR SHOONYA said...

मुझे लगता था कि आजकल जंगलों कि आग से पहाड़ों का परस्थितिक तंत्र बिगड़ता चला जा रहा है पर आग तो पहाड़ी जंगलों में हमेशा से लग रही है. इसके अलावा मैं कुंवर साहब से एक बात और जानना चाहता हूँ. अभी कुछ दिन पहले मैं आपने गाँव में था वहां मुझे मेरे एक मित्र ने बताया कि चीड़ के पेड़ मूलतः हमारे पहाड़ो में नहीं हुआ करते थे इनके बीज अंग्रेजों ने हवाई जहाजों से सारे पहाड़ों में फिकवाए. उनके अनुसार चीड़ का पहाड़ी जमीन पर वही असर होता है जो कि यूकेलिप्टिस का मैदानी जमीन पर असर होता है यानि कि चीड़ भी जमीन कि सारी नमी सोख कर उसे बंजर बना देता है. कुंवर साहब जंगलात विभाग से अंग्रेजों के समय में जुड़े थे. क्या मेरे मित्र कि बात सही है.

प्रवीण पाण्डेय said...

कथा लम्बी की जा सकती है, प्रतीक्षा कठिन है।