Friday, December 10, 2010

एक और नए कबाड़ी का स्वागत

गद्य के इस टुकड़े पर निगाह डालिए


ये बस दो रेगिस्तानी जिला मुख्यालयों को जोडती है जो दिन में शहर और रात में गाँव हो जाते है.सुबह ये शहर का सपना लिए जगते हैं और रात को सन्नाटा लिए सो जातें हैं.इनके बीच सदियों का मौन हैं, सिर्फ कहीं कहीं जीवन तो कहीं इतिहास मुखर हैं.

बस की खिड़की से शहर छूटता दिखाई पड़ता है और इमारतें विदा करतीं हैं अपने शिल्प की ख़ास भंगिमाओं को थोड़ा छोड़ते हुए.

डेढ़ सौ किलोमीटर का फासला और बीच में तीन स्टॉप हैं जिनमें एक पर सवारियां उतर कर चाय भी पीतीं हैं,जैसा की अक्सर लम्बी लगने वाली यात्राओं में होता है.

इसके अलावा बहुत कुछ जनशून्य है.कुछ पेड़ जो अपनी सारी ऊर्जा झोंक कर भी हरे होने के अहसास को ही जिंदा रख पाए हैं.

ऊंटों के बरग अनंत यात्रा और मरीचिकाओं के मिथ्याभास में सत और असत के बीच झूलते हैं.बस के भीतर देखने पर ही जीवन कुछ नज़दीक लगता है,यहाँ पीछे की सीटों पर लोगों से स्थान साझा करते हैं बकरी के शावक.

पहले स्टॉप पर बस रूकती है.कुछ सवारियां उतरती हैं ,एक दो चढ़ती है.

इस जगह में शहर के नज़दीक होने का दर्प है.ये दीगर बात है कि जिसके नज़दीक होने पर वो इतराती है उसे भी कायदे का शहर होने का गुमान नहीं.

बस फिर लय पकडती है. आगे एक मोड़ पर ड्राईवर होर्न बजाता है.सामने से कोई नहीं आ रहा,एक हाजरी-सी दी गयी है लोकदेवता के थान को. किसी अनिष्ट से मुलाक़ात न हो.

बारात वाली बसें तो बसें तो बाकायदा थान पर रुक कर अफीम,सिगरेट या खोपरा अर्पित करतीं हैं।

अगला स्टॉप आ गया है.बाहर एक पुराने किले के खंडहर हैं,उपेक्षित.पास ही गाँव वाले चाय की दूकान पर बातों में मशगूल हैं.उनकी बातचीत का विषय किला न होकर काळ है,जो लगातार तीसरे साल भी छाती पर बैठा है.किले के इतिहास के विषय में कोई नहीं जानता.यहाँ टूरिस्ट नहीं आते इसलिए इतिहास का गाईडी-गड्ड मड्ड संस्करण भी बन नहीं पाया है.लोक स्मृति में कूटल-सकीना की प्रेम कथा का राग ज़रूर बजता है.गडरिये को गाँव के मुखिया की लड़की से प्रेम हो गया था.ये प्रेम गडरिये की मरदाना सुन्दरता से नहीं था,उसके नड बजाने के हुनर से था जो चांदनी रात में रेत के असीम विस्तार को हूरों की दुनिया में तब्दील कर देता था.

बस फिर दौडती है.पूरे रास्ते में किसी गाँव या आदमी का दिखना एक सुखद क्रम-भंग की तरह होता है.स्टॉप से बस का प्रस्थान पीछे छूटते अनजान लोगों के प्रति भारी बिछोह को जन्म देता है.

ये वाला स्टॉप कुछ देर का है. यहाँ चाय पी जायेगी.

चाय के साथ प्याज के पकौड़ियाँ आँख मूँद कर अनुभव करने के चीज़ हैं.गाँव से बड़ी और क़स्बे से छोटी ये जगह जो भी हो प्याज की पकौड़ियों के लिए याद रखी जाने लायक है.सभी घरों में लोग नहीं रहते. कुछ खाली हैं,पुराने. उनमें भूत रहते हैं. इसी गाँव के बाशिंदे जो समय की रेखीय अवधारणा में भूत हैं और चक्रीय अवधारणा में अभी भी प्याज के पकौड़े खाने का इंतज़ार कर रहें हैं.ये ब्राह्मण तेल में खौलते इस हैरत अंगेज़ स्वाद से जबरन वंचित थे.उनके लिए खाद्य-अखाद्य सुनिश्चित था.एक स्व-निर्मित मर्यादा रेखा,अलंघ्य लक्ष्मण रेखा. फांदी न जा सकने वाली कारा-भित्ति. यजमान वृत्ति के लिए इसे तोडना या लांघना फलदायी नहीं था.पर इसके लिए अपना मोक्ष भी स्थगित रखे हुए.

बस रवाना होती है, रफ़्तार पकडती है.

विश्व-ग्राम की चौंध मारती रौशनी से दूर ये बस लगभग रात पड़ते,अँधेरे के स्थाई भाव में जीते अपने गंतव्य में दाखिल होती है.


यह संजय व्यास नाम के एक अति विनम्र व्यक्ति का लेखन है. संजय जोधपुर में रहते हैं. आकाशवाणी में काम करते हैं. अभी कुछ माह पहले उनसे एकाध मुलाकातें भी हुई. उनके घर जाकर उनके परिवार के साथ मिलना हुआ. शानदार राजस्थानी भोजन भी किया गया. उनकी दो प्यारी सी शर्मीली बच्चियां हैं. उन दिनों उनके माता-पिता भी जोधपुर आये हुए थे. हमने दुनिया-जहान की बातें कीं. और मैं उनसे ख़ासा प्रभावित हुआ.

संजय से परिचय ब्लॉग जगत के माध्यम से ही हुआ था. मुझे उनका लेखन भाता है. इधर कबाड़ख़ाने में नयी टीम जोड़ने की कोशिश में लगा हुआ हूँ.

संजय हमारे सबसे नए जोड़ीदार हैं. उनकी आमद यहाँ एक नया जायका पेश करेगी, मैं उम्मीद करता हूँ.

उनके स्वागत में उन्ही के ब्लॉग से उनकी नवीनतम पोस्ट लगा रहा हूँ. कविता ज़बरदस्त है और दिल को छू लेने वाली.


जागने का गीत

इससे पहले कि कल सुबह फिर शुरू हो
कानाफूसियों और दुरभिसंधियों से भरा एक और दिन
और शुरू हो कल ही सुबह
एक बेहतर जीवन की आस में
फिर से थका देने वाली दैनिक यात्रा
मैं जागना चाहता हूँ जी भर इस रात में
देख सकूँ जिससे
अपने बच्चों को सपनों की दुनियां में
डूबते उतराते,लोटते
सिहरते किसी काल्पनिक भय में
या खुश होते, खुश होने जैसी ही किसी बात से.

पढ़ सकूँ शायद जिससे
बरसों से बंद पड़ी किताब
या देख सकूँ कायदे से
माँ पिताजी का
युवावस्था का
पीला पड़ता साझा फोटो
जिसे अब पचास बरस होने को है
हालांकि इसे एकाधिक बार फ्रेम किया जा चुका है.

फ्रेम के कांच को माँ अब भी कई बार साफ़ करती है
और पिताजी डालते हैं इस पर अब भी कई बार
उड़ती सी नज़र
पर कायदे से इसे
कई सालों से देखा नहीं गया है
क्योंकि कुछ सवाल अभी भी अनुत्तरित है
मसलन इसमें पिताजी कि टाई उनकी खुद की थी या
इसे फराहम करवाया गया था
फाइन स्टूडियो के मालिक और फोटो ग्राफर खत्री जी ने
बिलुकल सही सही मौका कौनसा था जब ये
एकमात्र साझा फोटो खिंचवाया गया था
इसमें माँ के गले का हार अब कहाँ है
क्या इसे बेचना पड़ा या
घर में रखा है ये कहीं वगैरा वगैरा.
ऐसे मौलिक सवाल जब अभी भी सवाल है
तो संभावना इस बात की भी है कि सच में इसे
बहुत गौर से और गहन उत्सुकता से
कभी देखा ही नहीं गया है
कम से कम हम लोगों ने
माँ पिताजी ने अलग से
इस पर कभी बात की हो तो
अलग बात है.

जी भर जागना चाहता हूँ इस रात
ताकि थोडा वक्त चुपके से रसोई में जाकर
देख सकूँ कि
असल में क्या है वहाँ जमा किये हुए
डिब्बे डिब्बियों में
और घर के खाने में कौनसे मसाले
अमूमन इस्तेमाल हो रहें है.
या यही देख लूं जिससे कि
पत्नी दिन के आखिर में
तमाम दुश्चिंताओं को
पल्लू से झटक कर या बाँध कर
निर्भार
या कि बोझिल
किस तरह की नींद में
सो रही है आज.

11 comments:

सागर said...

Welcome, Shreshth Kabaadi

मुकेश कुमार सिन्हा said...

main khud naya hooon, fir kabari wala bhi naya...........sahi jamega....

post achchhi hai!!!!

The Serious Comedy Show. said...

swaagatam.

The Serious Comedy Show. said...

swaagatam.

प्रवीण पाण्डेय said...

संजय व्यास जी को पहले से ही पढ़ रहे हैं, पुनः फढ़वाने का आभार।

कडुवासच said...

... sundar rachanaa !!!

Neeraj said...

संजय जी का गद्य खूबसूरत चित्र की तरह है |

अजेय said...

sanjay vyas ki kavita bhi bheetar tak utarati chali jaane wali hai.
sanjay ji ham kabaaD khaane ko apana behatareen de paayeN yahi kaamanaa karata hoon.

के सी said...

कबाड़खाना को लेखन के वातशून्य क्यूबों से निकालने में आप सफल रहे हैं. एक अरसे तक आपने अकेले ही निरंतर अथाह परिश्रम से सुन्दरतम सामग्री का संचयन किया. इस प्रक्रिया में जरुरी नहीं है कि आपका लेखन प्रभावित हुआ होगा लेकिन आपकी लिखी एक कहानी और दो कविताएं पढने के लिए बरस बीत गए. मैं याद ही नहीं कर पाता था कि अशोक भाई ने खुद का लिखा आखिरीबार कब प्रकाशित किया था. इस शिकायत को दर्ज करना भी अनुचित था क्योंकि ये प्रक्रिया खुद के उर्वरा होने और मौसम के सिद्धांतों पर आधारित है. मौसम से अभिप्राय आपकी प्रतिबद्धता, परिवार, समाज और जीवन यापन के तत्वों से है.

कबाड़खाना के सभी कबाड़ी श्रेष्ठ ही हैं. यह सूची अपने आप में प्रतिनिधि पाठकों, जिज्ञासु प्रेक्षकों और भविष्य के नामी लेखकों की है. इसमें श्री वृद्धि वस्तुतः लेखकीय अधिकारों की पैरोकारी है. आप साधुवाद के पात्र हैं कि नए को जोड़ रहे हैं. मैं इन नए कबाडियों को नियमित पढता रहा हूँ और अधिक पढ़े जाने की ख्वाहिश रखता हूँ. जो कबाड़ी लिख नहीं रहे हैं मैं उनको बहुत याद करता हूँ. उनके खुद के ब्लोग्स पर भी सन्नाटा पसरा रहता है इसलिए कोई ख़ास उम्मीद भी नहीं है.

सोचता हूँ कि नीरज जी, अजेय जी और संजय जी श्रेष्ठ कबाड़ जुटाएंगे और फुरसत में अशोक भाई अपना लिखा छापेंगे... लपूझन्ना का उर्ध्वगामी आरोहण होगा.

S.M.Masoom said...

स्वागतम

Rahul Singh said...

बढि़या बस यात्रा.