Sunday, January 2, 2011

अमर सपूतों

उठो, धरा के अमर सपूतों ! पुन: नया निर्माण करो |
जन-जन के जीवन में फिर से नयी स्फूर्ति नव प्राण भरो 
नया प्रात है, नयी बात है, नयी किरण है, ज्योति नयी 
नयी उमंगें, नयी तरंगे, नयी आस है, साँस नयी 
युग-युग के मुरझे सुमनों में नयी-नयी मुसकान भरो |
डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ नये स्वरों में गाते हैं 
गुन-गुन गुन-गुन करते भौंरे मस्त उधर मँडराते हैं 
नवयुग की नूतन वीणा में नया राग नव गान भरो |
कली-कली खिल रही इधर वह फूल-फूल मुस्काया है 
धरती माँ की आज हो रही नयी सुनहरी काया है 
नूतन मंगलमय ध्वनियों से गुंजित जग-उद्यान करो |
सरस्वती का पावन मन्दिर शुभ सम्पत्ति तुम्हारी है
तुम में से हर बालक इसका रक्षक और पुजारी है 
शत-शत दीपक जला ज्ञान का नवयुग का आह्वान करो ||
उठो, धरा के अमर सपूतों! पुन: नया निर्माण करो || 

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सब जागें इस सन्नाद से।

अजित गुप्ता का कोना said...

दिनकर जी की पंक्तियां याद आ गयी। "लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल"।

iqbal abhimanyu said...

इसी उमंग की मुझे व्यक्तिगत रूप से भी जरूरत है..:) धन्यवाद !

मुनीश ( munish ) said...

Thats the kind of poetry which takes u back to those times of innocence when one never thought of the harsh reality that while u were doing nav-nirman some Harshad mehta, Telgi or Raja was actually actually eating into it like termite.

मुनीश ( munish ) said...
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