Saturday, June 25, 2011

किताबें , शब्द और अंतर्जाल

हिन्दी साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका तद्भव (अंक -23 )का यह सम्पादकीय हिन्दी साहित्यप्रेमियों का * साईबर फोबिया* ज़रूर दूर करेगा. कम्प्यूटर और साईबर वर्ल्ड से बहुत ज़्यादा जुड़े न होने के बावजूद अखिलेश जी भविष्य के माध्यमो के प्रति पोज़िटिव नज़रिया रखते है.

अंक/23 /2011 सम्‍पादकीय
इन दिनों प्रायः कुछ लोगों द्वारा इस बात की चिंता प्रकट की जाती है कि इंटरनेट का विस्तार किताबों के वर्तमान स्वरूप को समाप्त कर देगा। जाहिर है, यहां आशय छपी हुई पुस्तकों से है। इसी बात को कभी यूं कहा जाता है कि एक दिन आयेगा जब कागज और रोशनाई का लोप हो जायेगा और दुनिया में छापाखाना का उद्योग बंदी के कगार पर पहुंच जायेगा। इसी प्रकार कुछ उत्साही जो इतना अंधकारपूर्व भविष्य कथन नहीं करते, कहते हैं कि इंटरनेट पर ब्लागों और वेब पत्रिाकाओं के प्रति बढ़ती रुचि एक दिन मुद्रित अखबारों और पत्रिाकाओं की किस्मत को रूंध देगी। इस चुनौती के जवाब में हिंदी का आशावादी समुदाय इतमीनान दिखाता है कि इस तरह के दुर्वचन बहुत बार कहे गये हैं किंतु छपे हुए साहित्य का कुछ नहीं बिगड़ा है और इस बार भी कुछ नहीं बिगड़ेगा। यह विपर्यय एक प्रकार से हमारे देश की अवस्थिति की तरह है जहां एक तरफ भूमंडलीकरण के बाद की दुनिया की द्रुत रफ्तार और हृदयहीन आक्रामकता है तो दूसरी तरफ पुराने वक्त की मंथरता में बसे लोगों का अबोध किंतु कारुणिक वास भी है। कितना दिलचस्प है कि कई लेखक गर्व से कहते हैं कि वे कहानियां, कविताएं, उपन्यास, आलोचना कम्प्यूटर पर लिखते हैं। लेकिन उनमें भी कम गर्व नहीं महसूस किया जा सकता जो ठाठ से कहते हैं कि वे कलम कागज के मेल से ही शब्दों का जादू उपस्थित कर पाते हैं। यहां ठहरकर हम कहना चाहेंगे कि खतरे का अंदेशा कर रहा वर्ग कम से कम इतना सहिष्णु है कि वह सामाजिक जीवन में इंटरनेट की भूमिका और उसके महत्व को नकार नहीं रहा है और न वह ऐसी किसी मुहिम का प्रणेता और समर्थक है कि इसकी विदाई में ही मनुष्यता की सुरक्षा है। उसकी चाहत अधिक से अधिक सहअस्तित्व की है कि सूचना संजाल के समानांतर उसका अपना जो अभ्यास है उसकी भी गरिमा, सौंदर्य एवं शक्ति को कमतर न आंका जाये।
अब जरा कुछ दशक पहले के वक्त पर निगाह डालें। सिनेमा के अभ्युदय में भी साहित्य की समाप्ति का दुःस्वप्न देखा गया था। टेलिविजन को सिनेमा और साहित्य दोनों का संहारक माना गया। रंगीन टेलिविजन के खिलाफ तो बकायदा वैचारिक संघर्ष हुआ था और कम्प्यूटर की भर्त्सना में बौद्धिक दुनिया ने विराट प्रतिरोध दर्ज किया था। इतना ही नहीं, हमारे कुछ महत्वपूर्ण कवियों ने कम्प्यूटर की निंदा करते हुए अपनी कविता में उसे न छूने तक की प्रतिज्ञा की थी। लेकिन समय गवाह है कि वे चीजें बदस्तूर जारी रहीं। इतना ही नहीं अपने फलक, क्षमता और प्रयोग में अनवरत अभिवृद्धि करती रहीं। यहां हमारा मंतव्य यह नहीं है कि विजयी होने पर ही कोई संघर्ष अथवा प्रतिपक्ष सार्थक होता है। या किसी प्रतिरोध की विफलता उसकी सार्थकता को संदिग्ध बनाती है। दुनिया की अनेक नैतिक, सच्ची, मानवीय लड़ाइयां कई बार परास्त हुई हैं किंतु वे मानव इतिहास की बेशकीमती धरोहर हैं। कम्प्यूटर, टेलिविजन, सिनेमा और अद्यतन इंटरनेट माध्यम को खतरे के रूप में ग्रहण करने के संदर्भ में कहना सिर्फ यह है कि संसार में विज्ञान के आविष्कारों की बुनियाद में मनुष्य और समाज की बेहतरी के स्वप्न एवं संकल्प होते हैं, यह तो सत्ताएं होती हैं जो विज्ञान की बुनियाद और सिद्धांत को लांघकर अपनी शक्ति संरचना की हिफाजत के लिए उसके दुरुपयोग की गुंजाइश बनाती हैं। इसीलिए, जैसाकि कहा गया है कि, समाज में वर्चस्वशाली वर्ग के चरित्रा के मुताबिक ही अधिभूत संरचनाओं का स्वरूप तय होता है। विज्ञान के साथ भी वही सलूक होता रहा है। विज्ञान के संदर्भ में यह भी सोचना चाहिए कि जब समाज के किसी चरण में कोई आविष्कार प्रकट हो उठता है तो वह लोगों की लाख नाराजगी, चिढ़ के बावजूद विस्थापित नहीं हो सकता है। किसी तकनीक का तिरोहण उससे उन्नत तकनीक ही कर सकती है। पुरानी अथवा यथस्थिति की तकनीक उससे लड़ाई जीतने में सर्वथा अक्षम होती है। मगर इस प्रसंग में जो एक दूसरी बात है उसका जिक्र करना यहां जरूरी है कि किताबें हों, साहित्य या अन्य कुछ हो जब उसके सम्मुख मिट जाने की चुनौती आती है तो वह अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए अपने को परिवर्तित करता है और तत्कालीन परिस्थितियों में भी अपनी उपस्थिति को निर्धारित करता है, कई बार नये सिरे से स्थापित करता है। हमारे कथा साहित्य मेंᄉ कविता मेंᄉ जो विभिन्न बदलाव हुए हैं उनके पीछे सामाजिक, वैचारिक दबावों के साथ इस कारक का भी निश्चय ही योगदान रहा होगा। यह अनायास नहीं है कि कैमरे की ताकत का मुकाबला कथा साहित्य ने यथार्थ की अभिव्यक्ति हेतु यथार्थवाद का अतिक्रमण करके किया परिणामस्वरूप स्थैतिक कैमरा की शान गतिमान कैमरा की यांत्रिाकी के आगमन से कमतर हो गयी लेकिन कथा साहित्य ने रचनात्मकता के उत्कर्ष हासिल किये। कहना यह है कि साहित्य का स्वरूप बदला न कि शब्द और साहित्य मिट गये। यहां निवेदन करना होगा कि शासक वर्ग एक छद्म विजेता के दम्भ में कई बार यह गुमान पाल लेता है कि उसकी आंधी में तमाम लोग मिट गये। महल हो या मॉल, पांच सितारा होटल हो या सेज, बड़े बांध हों या नयी कॉलोनियांᄉ इनके निर्माण में बड़ी आबादी देखते देखते नदारद हो जाती है तब निर्माण के नियंताओं को यह वहम होने लगता है कि जो कभी वहां थे अब मिट गये किंतु वे मिटे नहीं होते हैं बल्कि वे उनकी आंखों से ओझल हो चुके होते हैं। सृजनात्मक शब्दों के संदर्भ में भी कहा जाना चाहिए कि बार बार अपने अंत का फरमान सुनने के बाद भी वे अपनी उ+ष्मा और संवेदना के साथ जीवित तथा सक्रिय हैं। थोड़ा ठहरकर यहां यह भी रेखांकित करना होगा कि उपरोक्त की भांति यह भी कम सच नहीं है कि जो सृजनात्मक शब्द नूतन परिस्थितियों के मुताबिक अपने भिन्न तेवरᄉ अपने भ्रूभंगᄉ नहीं तैयार करते वे वाकई मिटने के लिए अभिशप्त होते हैं।
जहां तक इंटरनेट द्वारा किताबों के सम्मुख पेश की गयी चुनौती का प्रश्न है तो देखने की बात है कि यह ठीक उस प्रकार की चुनौती नहीं है जैसी कैमरा ने यथार्थवाद के सामने उपस्थित की थी। यहां मूल संकट शब्द के सम्मुख नहीं कागज, छपाई और रोशनाई के सामने है। लेखक कम्प्यूटर पर रचे या हाथ से लिखे, या अमृत लाल नागर, मनोहर श्याम जोशी सरीखे रचनाकारों की तरह बोलकर सृजन करेᄉ क्या फर्क पड़ता है। इसी प्रकार विशेष फर्क नहीं पड़ता है, रचना चाहे पढ़कर ग्रहण की जाये या सुनकर। आखिर संसार की अनेक महान रचनाएं बगैर लिपि के मौखिक परम्परा में जन्मी और मौखिक परम्परा में जीवित रहीं। अपने देश का ही दृष्टांत लें, विभिन्न संस्कृतियों में उनकी अपनी अपनी लिपि की यात्राा भोजपत्रा से ई बुक और ई पत्रिाका तक पहुंची है। दरअसल यह विरुद्धों के संघर्ष की स्थिति नहीं है। आज कम्प्यूटर प्रेमी जो रचनाकार ब्लाग को अपनी अभिव्यक्ति का प्रिय माध्यम मानते हैं वे भी अंततः अपनी रचनाओं का मुद्रित रूप देखकर खुश होते हैं। इसी प्रकार इस इलाके को खास तवज्जो न देने वाले रचनाकार भी अपनी रचना और रचना के विषय में संदर्भ सामग्री इंटरनेट पर देख पढ़कर सुखी होते हैं। यह उसी तरह है जैसे मौखिक परम्परा के सृजनकर्ता की महत्वाकांक्षा मुद्रित में शामिल होना रहती है तो छपी हुई कृतियों के हर सर्जक का मोक्ष उसका मौखिक परम्परा बन जाना है।
छापाखाना का आविष्कार अभिव्यक्ति के विश्व में क्रांति की तरह था। उसने अभिव्यक्ति के लिए लोकतांत्रिाक वातावरण के निर्माण में अभूतपूर्व भूमिका का निर्वाह किया। खास यह कि छपाई ने आत्माभिव्यक्ति को राज्याश्रय के संरक्षण और दासता से आजाद होने की संजीवनी दी तो उसे पाठकों के विपुल लोक तक पहुंचाने की दिशा में वह पुल बनी। और गद्य के लिए तो वह कोख ही सिद्ध हुई। लेकिन यही छपाई तमाम अश्लील भावों, हिंसक और तानाशाह विचारों और सत्ता के पैरोकार अभिलेखों के लिए भी खाद पानी खुराक बनी। इसी मत को कम ज्यादा करके हम लिपि के लिए भी लागू कर सकते हैं। आशय यह है कि लिपि हो या मुद्रणᄉ ये गुलाम बनाने, शोषण करने के लिए मजबूत फंदे बने तो ये उनकी बेड़ियों को काटने के लिए घारदार हथियार भी बने। गैरबराबर दुनिया में किसी चीज की तरह लिपि और छपाई का भी परस्पर विपरीत प्रयोग हुआ। यही विश्लेषण इंटरनेट पर उपलब्ध शब्दलोक पर लागू होता है। छपाई का विचारों एवं भावनाओं के प्रसार में निस्संदेह महान अवदान रहा है। किंतु इससे कैसे इंकार किया जा सकता है कि इंटरनेट के अभ्युदय ने उसकी इस समस्या को आईना भी दिखाया कि वह महंगी है। वह पांडुलिपि निर्माण और उसके प्रतिलिपि निर्माण की तुलना में भले ही सस्ती और जनोन्मुख थी लेकिन इंटरनेट के आगमन के बाद वह महंगी सुविधा लगने लगी। आज बहुत सारा साहित्य, पत्रिाकाएं, ज्ञान इंटरनेट पर मुफ्त में उपलब्ध हैं जबकि किताबें और पत्रिाकाएं और अखबार अपनी कीमतें बढ़ाने के लिए अभिशप्त हैं। दूसरी ओर जैसाकि ब्लाग प्रेमियों का तर्क है : सम्पादकों, प्रकाशकों के अंकुश, दमन और तानाशाही से रचनाकारों को ब्लाग ने आजाद कर दिया है। छपाई की शक्ति संरचना और धनाभाव की समस्या ने रचनाकारों की अभिव्यक्ति की राह में जो कांटें बिछा रखे थे, ब्लाग और वेबसाइट ने उनको उससे बचाकर एक आत्मीय पनाह दी है।
यहां पर ठहरकर यह विचार करने की आवश्यकता है कि आत्माभिव्यक्ति की उपरोक्त आजादी और बाजार व्यवस्था की स्वतंत्राता में कोई समानता तो नहीं है? कहीं यह स्वतंत्राता अन्य से समाज से निरपेक्ष तो नहीं है। हिंदी साहित्य से जुड़े कुछ ब्लागों पर आत्माभिव्यक्ति की आजादी के रूप में कई बार जैसी रचनाएं और प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं उससे लगता है कि क्या वाकई कोई स्वाधीनता ऐसी भी होती है जो आत्मनियंत्राण, जिम्मेदारी से मरहूम और भयानक वाचाल हो। लेकिन यह हर माध्यम में होता है और उस पर अंततः निर्णय उसके श्रेष्ठ उदाहरणों पर दिया जाता है न कि कमजोर और क्षरित दृष्टांतों पर। आज इसी माध्यम की मदद से पिछले दिनों कुछ देशों में सत्ताएं पलट गयीं और जनविद्रोहों का तूफान आया। विकीलीक्स ने इसी हथियार से अमेरिकी शासन की चूलें हिला दीं और कई राष्ट्रों की विकृतियों का उद्घाटन करके खलबली पैदा की है। तो इसी माध्यम पर विकृतियों के अभूतपूर्व संसार का खजाना भी है। इसलिए एक मंच के रूप में न इसके बहिष्कार की आवश्यकता है न इसके अंधाधुंध स्वीकार की। इस चौकसी में सर्वाधिक गौरतलब चीज है अंतर्वस्तु। वस्तुतः किताब बनाम इंटरनेट का द्वंद्व खड़ा करने में यह सिद्ध करने की कोशिश होती है कि अंतर्वस्तु नहीं माध्यम श्रेष्ठतर होता है। इसे पारम्परिक भाषा में कहें, इस मुहिम से निष्कर्ष निकलता है कि साध्य से साधन उच्च्तर है। भूमंडलीकरण के उपरांत मनुष्यता की विचारधारा, सरोकार और सामूहिकता से छुटकारा दिलाने की जो परियोजना चलायी जा रही है, उपर्युक्त निष्कर्ष उसकी ही फलश्रुति हैᄉयह संदेह किया जा सकता है?
अंततः हम कहना चाहेंगे कि किताब और कम्प्यूटर का अंतर्संघर्ष एक तरह से चाहे अनचाहे रचना में अतंर्वस्तु की प्रधानता को हाशिए पर धकेलता है। और यह भी कि यह एक निरर्थक झगड़ा है, क्योंकि चाहे कागज पर हो या कम्प्यूटर पर वह होगी तो किताब अथवा पत्रिाका ही।
इस बिंदु पर किताबों की तरफदारी में बार बार कही गयी और रूढ़ि बन गयी इन दलीलों को सामने रखने से कोई फायदा नहीं है कि कम्प्यूटर के बरक्स किताबों की व्याप्ति बहुत ज्यादा है। पहले यह तर्क दिया जाता था कि किताबों, अखबारों को आप बाथरूम, सफर, शयन कहीं भी ले जा सकते हैं और पढ़ सकते हैं। लैपटाप के बाद किताबों का यह बल छीन लिया गया है। आने वाले समय में हो सकता है, प्रत्येक वाहन में कम्प्यूटर हो या इतनी तरक्की हो जाय कि कम्प्यूटर के बगैर कम्प्यूटर आपके सामने हो। जैसे जल्द ही बिना की बोर्ड वाले कम्प्यूटर बाजार में आने वाले हैं जो इंसान के दिमाग के संकेतों का यथानुसार अनुपालन करेंगे। मान लीजिए विज्ञान इतना उन्नति करे कि आदमी की इच्छा होते ही उसके सामने इंटरनेट का ब्रह्मांड सक्रिय हो जाय। लेकिन तब भी शब्द की सत्ता बनी रहेगी और इसी तरह मनुष्यविरोधी और मनुष्य समर्थक शब्दों की टकराहट भी बनी रहेगी। कहना ही होगा कि जब तक शब्द रहेंगे, तब तब तक साहित्य भी रहेगा और निश्चय ही वह किताबों, पत्रिाकाओं में दर्ज होगा।

पिछले दिनों कन्हैया लाल नंदन, सुरेन्द्र मोहन, भवदेव पांडे, सोहन शर्मा, शिवराम, अनिल सिन्हा के निधन से हिन्दी साहित्य एवं समाज को अपूर्णनीय क्षति पहुंची है। इन लोगों ने अपने शब्दकर्म और अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों से हिन्दी समाज को समृद्धि दी। तद्भव इन सभी की स्मृति को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

अखिलेश

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

भूत को वर्तमान से होकर यदि आगे बढ़ाया जाये तो भविष्य दमदार दिखता है।

Ashok Kumar pandey said...

हमारे कुछ टी वी चैनलों की तरह कुछ लिखने-पढ़ने वालों का भी मौत और विनाश् की भविष्यवाणियों से ज़्यादा ही प्रेम है...लेकिन न इतिहास मरेगा, न कविता और न ही लिखित और मुद्रित किताबों का जादू!

वाणी गीत said...

हर माध्यम की अपनी विशेषता है ...जो किताब में पढने का सुख है , वह इन्टरनेट पर नहीं ...पाठकों को किताबों तक पहुँचाने और पढने की रूचि जगाने का अच्छा माध्यम है !