Thursday, December 8, 2011

दिल में तड़पता है अँधेरे का अन्दाज़

मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में '  में ने  कितने - कितने समय से कितना - कितना कोलाहल मचा रक्खा है।  हिन्दी कविइता पढ़ने - लिखने वालों की जमात में  यह  अपनी उपस्थिति निरन्तर बनाए हुए है। उप्फ ..अंधेरा है कि  कम नहीं होता है। वह बार - बार  आता है नए - नए रूप धरकर ।

(गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में ' का एक अंश)

सूनी है राह, अजीब है फैलाव

कमज़ोर घुटनों को बार-बार मसल,

लड़खड़ाता हुआ मैं
उठता हूँ दरवाज़ा खोलने,
चेहरे के रक्त-हीन विचित्र शून्य को गहरे
पोंछता हूँ हाथ से,
अँधेरे के ओर-छोर टटोल-टटोलकर
बढ़ता हूँ आगे,
पैरों से महसूस करता हूँ धरती का फैलाव,
हाथों से महसूस करता हूँ दुनिया,
मस्तक अनुभव करता है, आकाश
दिल में तड़पता है अँधेरे का अन्दाज़,
आँखें ये तथ्य को सूँघती-सी लगतीं,
केवल शक्ति है स्पर्श की गहरी।
आत्मा में, भीषण
सत्-चित्-वेदना जल उठी, दहकी।
विचार हो गए विचरण-सहचर।
बढ़ता हूँ आगे,
चलता हूँ सँभल-सँभलकर,
द्वार टटोलता,
ज़ंग खायी, जमी हुई जबरन
सिटकनी हिलाकर
ज़ोर लगा, दरवाज़ा खोलता
झाँकता हूँ बाहर....
सूनी है राह, अजीब है फैलाव,
सर्द अँधेरा।
ढीली आँखों से देखते हैं विश्व
उदास तारे।
हर बार सोच और हर बार अफ़सोस
हर बार फ़िक्र
के कारण बढे हुए दर्द का मानो कि दूर वहाँ, दूर वहाँ
अँधियारा पीपल देता है पहरा।
हवाओं की निःसंग लहरों में काँपती
कुत्तों की दूर-दूर अलग-अलग आवाज़,
टकराती रहती सियारों की ध्वनियों से।
काँपती हैं दूरियाँ, गूँजते हैं फ़ासले
(बाहर कोई नहीं, कोई नहीं बाहर)

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

अँधेरे में बस अन्दर का दीखता है और कुछ नहीं।

विभूति" said...

प्रभावशाली रचना.....