Thursday, March 8, 2012

फिल्मों का क्रेज़ और वो ज़माना - ४


(पिछली किस्त से आगे)

फिल्मों में कई बार धोखे भी हो जाया करते थे. खासतौर पर महिलाओं को. मान लीजिए फिल्म का नाम है - शंकर महादेव. महिलाएं शिव महिमा देखने की उम्मीद में टिकट लेकर बैठ गईं बिना देखे भाले. पिक्चर शुरू हुई तो पता लगा कि यह तो शंकर और महादेव नाम के दो डाकुओं की कहानी है. डाकू अगर शरीफ हुआ तो भी गनीमत है, वह अमीरों को लूटकर गरीबों में बांटने का सत्कर्म करेगा और जो कहीं डकैत हरामी निकला तो आंटीजी दो-एक बलात्कार तो आपको देखने ही पड़ेंगे. अब आ ही गयी हैं तो छी-छी करते देख ही लीजिए पैसे तो खर्च हो ही गए हैं. अंत बुरे का बुरा. आखिर में तो हीरो ने आकर इसकी गर्दन उतार ही लेनी है. डकैतों की फिल्म देखने से पता लगता है कि अधिकाँश डाकू भाई लोग काली के उपासक होते हैं. यही उनकी कुल देवी होती है नाम चाहे उनके शंकर हों या महादेव.

ज़्यादातर डाकू मूलतः एक ज़माने के शरीफ आदमी हुआ करते हैं जो कि साहूकार के अत्याचार सहते-सहते पले-बढे. एक साधारण से वकील को अंग्रेजों ने रेल के डिब्बे से बाहर धकेल कर महात्मा गांधी बना दिया. कुछ इसी तरह की घटना उनके जीवन में भी एक दिन घटित होती है. क्या होता है कि साहूकार उसकी बेटी या बहन पर हाथ डाल देता है. उस दिन उसका खून खौल-खौलकर आधे से ज्यादा भगौने से बह जाता है. वे जंगल की तरफ भाग जाते हैं. कुछ देर भागने के बाद हम देखते हैं कि वे घोड़े पर सवार हैं और हाथ में दुनाली है. उनके साथ पचासेक लोग आ जुटते हैं. सबके पास घोड़ा और दुनाली बन्दूक है. यकीन करिये ये सब फिल्म के अंत तक साहूकार की हवेली की ईंट से ईंट बजाकर समर्पण कर देंगे और बैकग्राउंड से घोषणा होगी - अब कोई गुलशन न उजड़े, अब वतन आज़ाद है. हैरानी की बात है कि सरकार ऐसी फिल्मों को माओवादी पिक्चर कहकर प्रतिबंधित नहीं करती. जबकि अगर कोई कह दे के हमारे मोहल्ले में तीन दिन से पानी नहीं आया, क्या व्यवस्था है तो वह माओवादी हो सकता है. इस आधार पर कोई अगर चाहे ओ कह सकता है सरकार डाकुओं के साथ है.

फिल्मों में मिथुन चक्रवर्ती का बाप नहीं होता और नजीर हुसैन की बीवी. मिथुन की विधवा माँ होती है और एक अदद जवान बहन जिसका अमूमन बलात्कार हो जाता है. मिथुन बलात्कारियों को चुन-चुनकर अपने हाथों मारता है. वह अक्सर मोटर मकेनिक जैसा रफ-टफ काम करता है. कभी-कभी पुलिस और मिलिट्री वाला भी होता है. एक अमीरजादी हाथ धोकर छोडिये नहा-धोकर उसके पीछे पड़ जाती है. मिथुन शुरू में हाथ नहीं धरने देता. फिर धीरे-धीरे नरम पड़ने लगता है और अंत तक लार टपकाने लगता है. बलात्कारियों को ठिकाने  लगाने और मोटर रिपेयरिंग के कामों से फुर्सत निकालकर मिथुन उस अमीरजादी के साथ नाच-गा भी लेता है. मिथुन हमेशा गरीब और मजलूम के साथ है. वह मिलावटखोर बनिए की पोल सरेबाजार यूं खोलता है - ये क्या सेठ घी के डब्बे में डालडा! मिथुन जब तक ज़िंदा है कोई साला किसी के साथ अत्याचार तो करके दिखाए. मिथुन उसे चौराहे पर कुत्ते की मौत न मारे तो कुत्ता कह देना.

(जारी)

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