Sunday, May 13, 2012

बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी, आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी


पंडित छन्नूलाल मिश्र से सुनें गोस्वामी तुलसीदास रचित महाकाव्य 'रामचरितमानस' के अयोध्या कांड से राम-केवट संवाद. महफ़िल जमाने के हिसाब से पंडिज्जी मूलपाठ से कभी थोड़ा इधर-उधर भी निकल पड़ते है.  -

 

माँगी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।।

चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई।।



छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई।।


तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई।।


एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू।।


जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू।।


                         
                         पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।

                         मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं।।



                         बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।


                         तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं।।


सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन।।


कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई।।


वेगि आनु जल पाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू।।


जासु नाम सुमरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।।


सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।


पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी।।


केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा।।


अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा।।


बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं।।


पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार।।




उतरि ठाड़ भए सुरसरि रेता। सीयराम गुह लखन समेता।।


केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा।।


पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी।।


कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई।।


नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा।।


बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी।।


अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरें।।


फिरती बार मोहि जे देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा।।


बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ।।



(चित्र- राजा रवि वर्मा की कृति.)

1 comment:

मुनीश ( munish ) said...

अभी तो न सुन सकूँगा । अभी तो पवित्र नहीं है मन और न ही गंगा या सरयू यहाँ कि नहा कर इस लायक हो सकूँ । मैं तमोगुणी वृत्तियों के पाश में फँस चुका एक अधर्मी हूँ ।