Thursday, July 12, 2012

आज भी याद आता है



विख्यात भजन गायिका जूथिका रॉय का एक संस्मरण –

बीते दिनों को याद करने बैठते ही पहले याद आती है हावड़ा जिले के आमता ग्राम की बात यहाँ मेरा जन्म हुआ था. जन्मस्थान की तरह मधुर एवं अपनी जगह शायद दूसरी नहीं होती. वो चाहे ग्राम ही क्यों न हो. हरीतिमा के स्नेह में लिपटा उसी आमता से मैं अपनी जीवनगाथा शुरू करना चाहती हूँ.

आमता ग्राम बहुत ही छोटा है किन्तु उसका स्वर्गीय प्राकृतिक सौन्दर्य भूलने योग्य नहीं है. हरे-भरे मैदान नीला आकाश, स्वर्ण बरसाते सुहरे धान के खेत, रास्तों के दोनों तरफ काश के वन एवं सबसे अधिक स्मरणी जो है वह है ग्राम के अन्तिम छोर पर दामोदर नदी. दामोदर का बहुत सुनाम- दुर्नाम है. कभी हँसाता कभी डुबाता. ग्रीष्म ऋतु में जलशून्य सूना मैदान और वर्षा में विकराल. कब वह गाँव के गाँव बहा डालेगा कौन जानता है. इसी दामोदर की गोद में बसे आमता ग्राम में 20 अप्रैल 1920 को मेरा जन्म हुआ और इसी आमता स्टेशन के सामने मेरा घर. घर के सामने सीधा रास्ता एवं पार्श्व में काटों के तार का घेरा. अनेकानेक रेलवे लाइन आकर स्टेशन में एक साथ मिलती हुई. रास्ते के पास से छोटी रेलगाड़ी गुजरती हुई कभी तालाब या धान के खेतों का साथ तो कभी हरे मैदानों का, मिट्टी के घरों के आँगन के पास से ग्राम से ग्रामान्तर की ओर काँस के वन. रेल लाइन के दूसरी तरफ है विख्यात तारकेश्वर मंदिर. प्रत्येक वर्ष चड़क पूजा का उत्सव होता. गाँव के दूसरी तरफ थे शिव मंदिर, पोस्ट आफिस एवं उसके बाद बाजार. हमारे घर से कुछ ही दूर था हमारे बचपन का वह करोनेशन गर्ल्स स्कूल, जिस स्कूल में मेरी एवं दीदी की पढ़ाई लिखाई शुरू हुई. प्रारम्भिक जीवन की बहुत सी बातों की तरह पहले स्कूल की बात को भूला नहीं जा सकता.

बाबा सत्येन्द्रनाथ राय सबडिभिशनल इंस्पैक्टर आफ स्कूल के पद पर नौकरी करते थे. इस नौकरी के कारण ही दो तीन वर्षों के अन्तर पर उनका स्थानांतरण होता हमें भी बाबा के साथ नई नई जगहों पर घूमते रहने पड़ता था, बहुत कुछ यायावरों की तरह. बाबा बहुत ही संगीत प्रिय थें. उनको शास्त्रीय संगीत के सम्बंध में प्रगाढ़ ज्ञान था. बाबा-माँ के ही प्रयासों से मेरे संगीत जीवन का प्रारम्भ हुआ. माँ स्वर्गीय स्नेहलता राय, अत्यन्त भक्तिनी उचित वक्ता एवं कठोर परिश्रमी थीं. उनके जीवन के आदर्श श्रीश्रीरामकृष्ण, श्रीश्री शारदा माँ एवं स्वामी विवेकानन्द थे. स्वामी विवेकानन्द के आदर्श को सम्मुख रखकर ही उन्होंने अपनी सभी सन्तानों की शिक्षा-दीक्षा का प्रयास किया था. बाबा की तरह माँ भी गाना बजाना खूब पसंद करती थीं. विभिन्न देवी देवताओं की स्तुतियाँ, भक्ति गीत मुधर कंठ से गाती थीं. इसी कारण बचपने में ही मैंने माँ से सभी स्तुतियाँ एवं भक्ति गीत सीख लिये थे.

बाबा मुझे संगीत के राग-रागिनी सिखाते थे एवं तबले की ताल को अँगुली पर गिन कर दिखा देते थे. बाबा कहते थे गाना यदि ताल में न गाया तो उसके सुर का ज्ञान नहीं होता.

आमता में मैं, मेरी दीदी लतिका, छोटी बहन वीणा (मल्लिका) एवं भाई कालीपद रहते थे. हमारी देखभाल करने के लिए एक आया थी, जिसका नाम अम्बिका था. अम्बिका के बिना मेरा एक पल भी काम नहीं चलता था. यह बात अम्बिका अच्छी तरह जानती थी. इसलिए कई बार इसका लाभ उठाती थी. उस समय मेरी उम्र तीन-चार वर्ष की होगी. दीदी के संग खेलने निकलती, किन्तु बाहर निकल कर दीदी जिस रास्ते चलती मैं अपने मन से अन्य राह लेती. कभी तो फूलों के बागान में नाना विचित्रतामय रंगों की तितलियों को पकड़ने के लिए चुप-चाप निःशब्द घूमती रहती और कभी तो आँगन में बालू संग्रह करके विराट मंदिर बनाती एवं मंदिर के शिखर को विभिन्न फूल पत्तियों से सजाती. इस प्रकार मैं अपने मन से घूमती खेलती एवं गान गाती. जब अम्बिका आकर बुलाती तब होश आता कि बहुत देर हो गयी. नहाना खाना कुछ भी नहीं हुआ.

एक बार एक सर्कस पार्टी हमारे घर के सामने रास्ते से बैलगाड़ी से जा रही थी. किसी गाड़ी में बाघ का पिंजड़ा तो किसी में सिंह का तो किसी में बन्दर का एवं अंतिम गाड़ी में बैंड पार्टी मधुर धुन बजाते किसी गाँव की तरफ जा रहे थे. मैं घर के बरामदे में खड़ी थी, परन्तु कब सर्कस पार्टी के संग-संग चलने लगी पता नहीं. मैं एकाग्रमन से चली जा रही थी कितनी दूर आई... कहाँ कहाँ जा रही हूँ.. क्यों इस चलने का अंत नही आ रहा... कुछ भी नहीं जानती. बैंडपार्टी की सुन्दर ताल-छन्द में मेरा मन खो गया था. मैं चल रही हूँ रेललाइन के पार्श्व से धान के खेत के किनारे से. चल रही हूँ... चल रही हूँ.... चल रही हूँ.

संध्या होने को आई, चारो तरफ अंधकार, सूर्य अस्तप्राय. घर लौटने को ख्याल नहीं. मुझे जैसे चलते जाने का नशा हो आया हो. इस चलने का अंत कहाँ होगा ये भी नहीं जानती. हठात् एक भयंकर पुकार सुन कर चौंक उठी. बिना कुछ सोचे फिर चल पड़ी. किन्तु पुनः वही कान फाड़ देने वाली पुकार- रेणु लौट आ. लौट आ. पीछे मुड़ कर देखा अम्बिका पागलों की तरह दोड़ती आ रही है. रेणु लौट आ, लौट आ. अम्बिका को देख मेरा चित्त लौटा. मैं दौड़ कर अम्बिका की गोद में कूद पड़ी. अम्बिका मेरे दोनों हाथों को अपने सीने से जकड़े घर ले आई. घर के सभी लोग कहने लगे कि आज अम्बिका की वजह से रेणु पर आई एक बड़ी विपत्ति टल गई. बचपन में आमता की बैंड पार्टी की सुरों में खो जाने वाली वह घटना अब भी स्मृति में स्पष्ट है.

आमता में हमारे घर से कुछ दूर लड़कियों का एक स्कूल था. मैं और मेरी दीदी इस स्कूल में पढ़ने जाते थे. दीदी पढ़ाई लिखाई में बहुत अच्छी थी. अध्यापिका उसको बहुत प्यार करतीं एवं सदा उसकी प्रशंसा करती थीं. मैं उस समय बहुत छोटी थी. मुझे अच्छी तरह याद है स्कूल के फर्श पर दीदीमुनी बड़े अक्षरों में चाक से अ, आ लिख देती थीं. मैं और मेरी सहपाठिनी मिट्टी पर बैठकर चाक से उनके अक्षरों पर दुहराती थीं. इस प्रकार स्कूल में पहली बार वर्णमाला से परिचय के साथ हमारी शिक्षा का प्रारंभ हुआ.

उसी समय की एक घटना याद आती है. एकदिन स्कूल की छुट्टी के बाद मैं और मेरी दीदी घर वापस लौट रहे थे. चारों तरफ कड़ी धूप थी किन्तु एक दो कदम चलते ही आकाश में काली घटा छा गई. चारो तरफ से जल की धाराएँ टूट पड़ीं. अचानक इस दृश्य को देखकर हम भयभीत होकर घर की तरफ दौड़ पड़े. परन्तु देखते ही देखते हमारे घुटने डूब गए. क्रमशः पानी बढ़ने लगा, क्षण में ही पानी हमारे कमर तक उठ गया. ऐसा लगता कि थोड़ा सा ही चलने घर पहुँच जाएँगें, किन्तु ऐसा नहीं हुआ, मुहुर्त में ही हम गर्दन तक पानी में डूब गए. इसके बाद भयंकर जल-धारा. हमलोग सीधे खड़े नहीं हो पा रहे थे. बड़ी मुश्किल से एक कदम आगे बढ़ते तो जल-धारा दस कदम पीछे ले जाती. चारो तरफ असीम जलधारा पल भर में सब बहा ले चली. हम भी शायद बह जाएँगे इसी डर से मैं जान लगाकर चिल्लाने लगी. बह गई.....बह गई. मेरी असहाय चीत्कार सुन कर पड़ोस के घर के एक भद्रव्यक्ति ने हम दोनों को घर पहुँचा दिया. उस यात्रा में इस प्रकार हम बच गए नहीं तो जल की वह धारा कहाँ बहा ले जाती कौन जानता है. आज भी आमता के दामोदर की उस भयंकर बाढ़ की बात याद आती है.

मैं और मेरी दीदी रोज एकसाथ घर से खेलने के लिए निकल पड़ते थे. किन्तु बाहर कुछ दूर जाकर हम दोनों दो तरफ चल देते. दीदी अपने दोस्तों के साथ धान के खेत में धान बीनती. यह दीदी का एक खेल था. मेरे घर के पास ही एक नया दालान बन रहा था, मैं वहाँ मिस्त्रियों का काम देखने एवं एक मिस्त्री के छोटे लड़के हुसेन अली का गाना सुनने जाती जो कि बहुत मधुर गाता था. हर दिन सुनसुन कर कई गाने सीख लिए मैंने. घर आकर खेलते खेलते मैं वे गाने स्वयं गुनगुनाती एवं माँ दूर निःशब्द खड़ी होकर सुनती और चकित होती. रोज ही मैं नए-नए गाने गाती, एक दिन माँ ने मुझे समीप बुलाकर पूछा, रेणु ये सब गीत कहाँ से सीखे? ये गीत तो हमने तुम्हें सिखाए नहीं! रोज-रोज तुम नवीन-नवीन गाने गाती हो, कहाँ मिले? मैंने तब माँ को सब खुलकर बताया. माँ ने सुनकर आनन्द, विस्मय में आत्मविभोर होकर मुझे दोनों हाथों से पकड़कर सीने से लगा लिया. नहीं नहीं तुम और अब वहाँ नहीं जाओगी, मैं कल ही उस लड़के को घर बुला लाऊँगी. यहाँ बैठकर तुम गाने सीखना. यह बात सुन कर मैंने आनन्द एवं खुशी से माँ को दोनो हाथों से पकड़ लिया.

भोर बेला उठते ही माँ को विभिन्न कामों को करने के लिए इधर से उधर जाते देखती. माँ जब भी कोई काम करती तो बहुत ही शान्त भाव से करती, कभी भी चिल्लाकर बात करते माँ को नहीं सुना, कभी भी काम करते-करते विरक्त होते नहीं देखा. भोर बेला में माँ जब स्नान करके अपने विशाल घने बालों को पीठ पर फैलाकर, नतमस्तक होकर, हाथ जोड़कर बैठ सूर्य एवं नाना देवी देवताओं के श्लोक भक्ति पूर्वक गाती तो ये सब भक्ति गान सुनकर मैं तन्मय हो जाती थी. बाद में मैंने माँ से वे सब सुन्दर श्लोक सिख लिये थे.

एक करूण व दुख की घटना याद आती है एक दिन सुबह उठी, उस समय सुना, सभी कह रहे हैं ‘अहा! लड़का तालाब के पानी में डूब कर कब तैरने लगा, ये कोई नहीं जान पाया. तैरना जानता तो शायद न मरता.‘

मैं बरामदे में खड़ी होकर सुन रही थी, कौन डूब कर मर गया? देखने के लिये बिना किसी को बताये मैं तालाब की ओर दौड़ पड़ी. तालाब के किनारे जाकर देखा कि सारे मिस्त्री भी वहाँ हैं. उस समय भी मृत शरीर को तालाब से निकालने का प्रयास चल रहा था. बहुत प्रयास के बाद जब निकाला गया, तो देखा गया, और कोई नहीं, उसी मिस्त्री का छोटा लड़का (हूसेन)- जिसके पास मैं गाना सीखने जाती थी. मिस्त्री फूट-फूट कर रो पड़ा, सभी के आँखों में आसू, मैं निःशब्द रोने लगी. मेरे मन को जो आघात लगा था, वह चीत्कार कर रोने से शायद मन हल्का हो जाता. किन्तु मैं पत्थर होकर खड़ी थी.

शिशुशिल्पी हुसेन अली को जब सुन्दर से नाना फूलों के गुलदस्तों एवं मालाओं से सजाकर समाधिस्थल की तरफ ले जाया जा रहा था, मैंने भी संग-संग चलना शुरू किया परन्तु अन्ततः अन्दर न जा सकी, दौड़ कर घर लौट आयी. घर आते ही माँ को बोली- ‘बहुत प्यास लगी है पानी दो. बहुत ठण्ड लग रही है, शरीर में कम्बल लपेट दो.’ माँ ने देह को छूकर कहा, ‘ये क्या पूरा शरीर तो जल रहा है. ठंड से पूरा शरीर काँप रहा है.’

इसके बाद मैं भयंकर बीमार पड़ी, बचने की कई आशा नहीं न थी. प्रायः डेढ़ महीने भुगतने के बाद, माँ की अथक सेवा यत्न से मैं स्वस्थ हो उठी. हुसेन की मृत्यु का संवाद कई दिनों बाद जब माँ ने जाना तो दूःख से टूट पड़ी थी. आज भी न भूल सकी, बालगायक हुसेन की वह मर्मांतक दुर्घटना की बात भूली नहीं है.

(“अभिव्यक्ति” से साभार)

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