Monday, December 31, 2012

घोरतम तमस के सच में विजन में जन हों अपनेपन में



अवधेश कुमार की एक और कविता याद आ रही है –

बादल राग

बादल इतने ठोस हों
कि सिर पटकने को जी चाहे

पर्वत कपास की तरह कोमल हों
ताकि उनपर सिर टिका कर सो सकें

झरने आँसुओं की तरह धाराप्रवाह हों
कि उनके माध्यम से रो सकें

धड़कनें इतनी लयबद्ध
कि संगीत उनके पीछे-पीछे दौड़ा चला आए

रास्ते इतने लम्बे कि चलते ही चला जाए
पृथ्वी इतनी छोटी कि गेंद बनाकर खेल सकें
आकाश इतना विस्तीर्ण
कि उड़ते ही चले जाएँ
दुख इतने साहसी हों कि सुख में बदल सकें
सुख इतने पारदर्शी हों 
कि दुनिया बदली हुई दिखाई दे

इच्छाएँ मृत्यु के समान
चेहरे हों ध्यानमग्न
बादल इस तरह के परदे हों
कि उनमें हम छुपे भी रहें
और दिखाई भी दें

मेरा हास्य ही मेरा रुदन हो
उनके सपने और उनका व्यंग्य हो
घोरतम तमस के सच में
विजन में जन हों अपनेपन में
सूप में धूप हो
धूप में सब अपरूप हो

बादल इतने डरे हों
कि अपनी छाती पर
मेरा सिर न टिकने दें
झरने इतने धारा प्रवाह न हों
कि मेरे आँसुओं को पिछाड़ सकें.

(चित्र- रूसी चित्रकार बोरिस अलेक्सांद्रोविच की रचना “बादल”)

2 comments:

naveen kumar naithani said...

अवधेश के गीत कहीं मिल सकें तो लगायें
हंस में छपे थे.जिन्होंने अवधेश को गाते सुना है वे भाग्यशाली थे. मेरी स्मॄति थोडा धोखा दे रही है;दो पंक्तियां आज याद आ रही हैं
है धुंए में शहर या शहर में धुंआ
आप कहते जिसे कहकशां-कहकशां

है अंधेरा यहां और अंधेरा वहां

तू बयानों से अपने बचा भी तो क्या
साफ दिखते तेरी उंगलियों के निशां

है अंधेरा यहां और अंधेरा वहां

naveen kumar naithani said...

अवधेश के गीत कहीं मिल सकें तो लगायें
हंस में छपे थे.जिन्होंने अवधेश को गाते सुना है वे भाग्यशाली थे. मेरी स्मॄति थोडा धोखा दे रही है;दो पंक्तियां आज याद आ रही हैं
है धुंए में शहर या शहर में धुंआ
आप कहते जिसे कहकशां-कहकशां

है अंधेरा यहां और अंधेरा वहां

तू बयानों से अपने बचा भी तो क्या
साफ दिखते तेरी उंगलियों के निशां

है अंधेरा यहां और अंधेरा वहां