संगीत के आसपास कुछ कविताएं- ३
संगीत-घर
- शिवप्रसाद जोशी
कुछ बोलो तो आवाज़ गूँजती थी
घर था वो घाटी नहीं
न बियाबान
गिलास गिरने की आवाज़ भी देर तक रहती थी
जैसे ध्वनि की संगतकार हो उसकी
प्रतिध्वनि
नया था वह घर
सामान से नहीं भरा पहले संगीत से
पैक चीज़ों को एक एक कर खुलना था
जो खुले ही आए थे जैसे मेज़ कुर्सी और
पलंग वे अपने खिसकाए जाने की आवाज़ों में व्यस्त थे
कि तभी आया टेप का ख़याल
ये ख़याल अब गाया जाएगा
जगायें आसावरी को असद अली ख़ान अपनी
रूद्रवीणा पर
गाएँ भीमसेन जोशी ये गाकर दिखाएँ
प्राचीनतम रागों में एक
लगाएँ कोमल ऋषभ
हम बिछाते हैं चादर करीने से
नल खोल दो छत पर लगी टंकी में पानी चढ़ने
दो
नुसरत फ़तेह अली ख़ान की आवाज़ की मदद से
वह जाती है कितनी दूर आसमान में ऊपर और
ऊपर
कि घिर आते हैं बादल कहीं से ये आवाज़
सुनने कहाँ से आयी
जून की तड़प का महीना है
किससे भीगेंगे कैसे बुझेगी प्यास
लगेगी झड़ी ये रही असंख्य तानें अमीर
ख़ान साहब की
जिनके मन राम बिराजे.......
लो घर भर गया है आ गए मेहमान
झूम है सब तरफ़ चहलपहल
बंदिशों की दावत का दिन है
क्यों न बैठें अमीर ख़ान और बड़े गुलाम
अली साथ साथ
आसपास खाली कोने में सुस्ता रहे हैं अन्य
राग
देखो कौन ये कहकर गुज़रा किसी से कि ये
मेरा दोष नहीं
क्या विवाद हुआ
नहीं माइक की किर किर पर टिप्पणी आ रही
है कुमार गंधर्व की
भूप पर किंचित विश्राम के दरम्यान
दावत से तृप्त दिखते
सीढ़ियाँ उतर रहे थे अमानत अली सलामत अली
कि तभी मल्लिकार्जुंन मंसूर ने उन्हें
रोका
मारवा तो हुआ ही नहीं हमारा
बिना भोजन किए कोई न जाए
स्त्रियों ने खिलखिलाकर जवाब दिया
अमीर खुसरो के गीतों में
ये संगीत समारोह था कई युगों से यूँ ही
चला आ रहा या फ़कत
गृहप्रवेश था 2004 में.
1 comment:
बहुत ही बेहतरीन,स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।
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