उस्ताद अमीर ख़ान – शख्सियत और उनका संगीत
प्रोफ़ेसर दीपक बनर्जी
१९७१
में हम कुछ लोग अमीर खान के साथ पश्चिमी बंगाल के एक छोटे कस्बे में गए, जहां
हमारे एक दोस्त का बड़ा सा बंगला था. किसी ने अमीर खान की राग यमन कल्याण की १९५९
की एक रिकॉर्डिंग बाहर निकाली. जब वह बज रहा था और पूरा ध्यान लगाए, आँखें मूंदे
उस्ताद सुन रहे थे, तो दबी ज़बान में एक दोस्त ने टिप्पणी की कि कुछ तानें शेर की
दहाड़ जैसी हैं. शायद वह उतनी दबी ज़बान से नहीं कह सका, क्योंकि तब तो नहीं, बाद
में जब संगीत खत्म हुआ, अमीर खान मुझसे बोले, “बंबई में मेरा एक दोस्त था जो
कारोबार के सिलसिले में बंगलौर चला गया था. पिछले साल जब मेरा बंगलौर जाना हुआ था मैं
उसे बीस सालों बाद मिला. उसने मुझ से पूछा कि क्या इतने सालों बाद अब भी मेरी आवाज़
शेर जैसी है? हुज़ूर, मैंने कहा, तब तो मैं जानवर था. अब तो फिर आदमियों में शामिल
हूँ.
(जारी)
एक पथप्रदर्शक के बतौर उस्ताद
इस
महान उस्ताद की सबसे बड़ी ईजाद बिलाशक विस्तार की उनकी शैली है. ख़याल में मानक के
हिसाब से जुमला-दर-जुमला विस्तार होता है जबकि अमीर खान के यहाँ स्वर-दर-स्वर
विस्तार का इस्तेमाल किया जाता है. वे हमेशा बेहद मंथर गति का इस्तेमाल करते थे,
ऐसी गति जिसका इस्तेमाल दूसरे लोग बाज़ वक्त किया करते हैं. मूड के ऊपर जोर,
विस्तार का प्रगाढ़ भावनात्मक कंटेंट, समकालीन शैली, ये सारी चीज़ें अलग अलग शक्ल
में हर किसी उस्ताद में पाई जा सकती हैं, लेकिन ऐसी एकीकृत सूरत में नहीं, और
हमारे समय में तो निश्चित नहीं.
लेकिन
इसके अलावा आप हमारी संगीत-परंपरा में अमीर खान के योगदान को दो चीज़ों से पहचान
सकते हैं. पहली, नए रागों की सर्जना, जो उनकी असमय मृत्यु के कारण थम गाया,
अलबत्ता वे इस बात पर ज़्यादा ध्यान देने लगे थे. इस सूची में तीन राग हैं
चंद्र्मधू, प्रिय कल्याण ओर खुसरो तोड़ी.
बागेश्वरी
कान्हड़ा (मध्यालय), बैरागी, भोपाली तोड़ी, नन्द (मध्यालय), मेघ और मारवा और सारे ही
तरानों में उनकी नई कम्पोजीशंस और भी महत्वपूर्ण हैं. उनका मेघ विलंबित (बरखा रितु
आई) और उसके साथ का तराना जिसमें फारसी कवि हाफ़िज की एक कविता है, आज हमारी संगीत
परम्परा का इस कदर हिस्सा है कि युवा लोग उन्हें उन्नीसवीं शताब्दी से विरासत में
मिली पारंपरिक कम्पोजीशन समझने लगते हैं. यह बात दर्ज की जानी चाहिए कि अमीर खान
ने मेघ, मारवा, अभोगी और नन्द रागों के लिए विस्तृत विलम्बितों की रचना की जिनमें
पहले छोटे ख़याल ही गाए जाते थे.
उनके
तरानों के बारे में कुछ शब्द प्रासंगिक ही होंगे. वे अक्सर विलंबित के बाद द्रुत
के स्थान पर उसी राग में तराना गाया करते थे. इन तरानों की संरचना द्रुत ख़याल जैसी
ही होती थी और अंतरे के हिस्से में कुछ कवितायेँ जड़ देते थे, जो अमूमन फारसी में
होती थीं और जिनके शब्द राग के मूड से मेल खाते थे. इस तरह उनके तराने एक सुस्पष्ट
फॉर्म हैं, दूसरे गवैयों द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले तरानों से अलहदा.
पहले
अमीर खान के ख़यालों में घुमाव, मोड़, चमक और उड़ान से भरपूर तानें होती थीं. संभवतः
अपने महान समकालीन बड़े गुलाम अली खान से टक्कर लेना इस का कारण रहा हो. इस हिसाब
से एक और बड़ा प्रभाव रजब अली खान की जटिल तानों का भी रहा होगा जिन से अमीर खान
खासे प्रभावित थे. वक्त बीतने के साथ उन्होंने ऐसी तानों का इस्तेमाल काफी कम कर
दिया. एक कारण यह भी हो सकता है कि वे अपनी आवाज़ को उस तनाव से बचाना चाहते थे जो
इन तानों की वजह से पड़ता था. उन्होंने अपनी आवाज का स्केल नीचा बना लिया था और
जीवन के आख़िरी पांच-छः सालों में उन्होंने कुछ रागों की प्रस्तुतियों के सरल बना
लिया था. यह सरलीकरण जटिल तानों को छाँटने की प्रक्रिया नहीं था, इसका ताल्लुक उनकी
प्रस्तुति की मूल संरचना से था. कई संगीतकारों का मानना है की ये बाद के संस्करण
पुराने वालों से श्रेष्ठतर हैं क्योंकि वे राग की संरचना को अधिक सीधे तरीके से
स्थापित करते हैं. यह स्पष्ट नहीं कि इसे ईजाद माना जाएगा या नहीं. आयु के साथ
दूसरों ने गायन में संगत के लिए अपने शिष्यों को साथ बिठाना शुरू किया ताकि बुढ़ाती
आवाज़ को थोडा आराम मिल सके. अमीर खान का कभी कोई संगतकार नहीं रहा क्योंकि उन्हें
लगता था की उस से उनके विचारमग्न मूड में दखल पड़ेगा. हम वास्तव में नहीं कि ऐसा
परिपक्वता के कारण हुआ या वृद्धावस्था के भय से कि अमीर खान ने रागों की प्रस्तुति
को सरल बना लिया था. जो भी हो इस से मुझे अपना सबसे अच्छा वाकया याद आ गया है.
(जारी)
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