ग़ुलाम सबसे ज़्यादा तब गाते हैं जब वे दुखी और ग़मज़दा होते हैं
- फ़्रेड्रिक डगलस
बिली हॉलिडे |
गोरों के क़ानूनों ने भले ही ग़ुलामों के नगाड़ों पर
पाबन्दी लगा दी हो, उनको दसियों तरीक़ों से ज़लालत
भुगतने पर मजबूर किया हो, उन्हें उनके वतनों से जबरन एक
पराये देश में ला कर ग़ुलामी की ज़ंजीरों से बांध दिया हो, मगर
वे न तो वे इन अफ़्रीकी लोगों की जिजीविषा को ख़त्म कर पाये, न
उनके जीवट को और न उनके अन्दर ज़िन्दगी की तड़प को. वाद्यों की कमी को इन लोगों ने
कुर्सी-मेज़ पर या फिर टीन के डिब्बों और कनस्तरों और ख़ाली बोतलों पर थपकी या
ताल दे कर पूरा कर लिया था.
जहां एक ओर इसमें कोई शक नहीं है कि इन विस्थापित और उत्पीड़ित लोगों का जीवन आम तौर पर अकथनीय कष्टों से भरा था, वहीं दूसरी ओर यह भी एक सच्चाई है कि इन सभी मज़लूम लोगों ने अपने दारुण जीवन और उसके नीरस, निरानन्द, निराशा-भरे माहौल का सामना करने के लिए राहत के अपने शाद्वल बना लिये थे. कला के अन्य रूपों का रास्ता अवरुद्ध पाने पर उन्होंने संगीत में राहें खोज निकालीं. उन्नीसवीं सदी के मध्य तक आते-आते जब खेतों और फ़सलों की सालाना कटाई हो चुकती तो कुछ दिन मौज-मस्ती के लिए अलग कर दिये जाते. कई इलाक़ों में इन अवसरों पर जो उत्सव मनाये जाते, उनमें नर्तक सिर पर सींगों वाले पहरावे और ऐसे लोक-परिधान पहन कर नाचते जिनमें गाय-बैलों की दुमें लगी होतीं. वाद्यों में घरेलू नगाड़े, लोहे के तिकोन और मवेशियों के जबड़ों की हड्डियां इस्तेमाल की जातीं. वक़्त के साथ अफ़्रीकी धुनों और रागों में यूरोपीय धुनों की मिलावट भी होने लगी.
एक
और असर जो इस विस्थापित अफ़्रीकी समुदाय पर पड़ा, वह
ईसाई भजनों का था. बहुत-से ग़ुलामों ने ईसाई गिरजे में गाये और बजाये जाने वाले
धार्मिक संगीत के स्वर-संयोजन को सीख लिया था और उसे अपने मूल अफ़्रीकी संगीत में
घुला-मिला कर एक नया रूप तैयार कर लिया था जिसे वे "स्पिरिचुअल" कहते थे
- आध्यात्मिक संगीत.
चूंकि
उस दौर में आस-पास के इलाक़े से बहुत-से व्यापारिक जहाज़ अमरीका के दक्षिणी हिस्से
में आते, इसलिए कैरिब्बियाई क्षेत्र के अफ़्रीकी विस्थापितों
का संगीत भी मल्लाहों और मज़दूरों के माध्यम से आता. इन कैरिब्बियाई इलाक़ों में
फ़्रान्सीसी और स्पेनी असर लिये हुए अफ़्रीकी संगीत विकसित हुआ था. धीरे-धीरे यह भी
उस धारा में आ कर शामिल होने लगा जो अमरीका में लाये गये ग़ुलामों ने विकसित किया
था.
यहीं
यह बात ख़ास तौर पर ध्यान देने की है कि अफ़्रीका से ग़ुलाम बना कर अमरीका लाये गये
लोगों के संगीत की चर्चा जब की जाती है तो अक्सर उस अवधि पर ध्यान नहीं दिया जाता
जब वह संगीत उभर कर सामने आया. गीत-संगीत के जमावड़ों,
फ़सलों की कटाई के बाद मौज-मस्ती के पलों या फिर संगीत मण्डलियों का
विकास बहुत करके १८६२-६४ के अमरीकी गृह-युद्ध और अमरीका में दास-प्रथा के उन्मूलन
के बाद के दौर में हुआ और इसे भी किसी ढब का बनते-बनते चार-पांच दशक लग गये. जिन
लोगों को ग़ुलामी और उस भयंकर नस्लवादी भेद-भाव का तजरुबा नहीं है, जो अमरीका में अफ़्रीकी मूल के लोगों को भुगतना पड़ा (और यह शायद आज तक पूरी
तरह दूर नहीं हुआ है), वे अपनी सादालौही में मान लेते हैं कि
इन ग़ुलामों का संगीत उनके सुख-सन्तोष का इज़हार है. ग़ुलामी से भागने में सफल होने
के बाद एक भूतपूर्व दास फ़्रेड्रिक डगलस(१८१८-१८९५) ने, जो
आगे चल कर दास-प्रथा के उन्मूलन और नीग्रो समुदाय के हक़ों के जाने-माने
आन्दोलनकारी और सुप्रसिद्ध वक्ता बने, अपनी आत्म-कथा में
लिखा :
"...मैंने कभी-कभी सोचा है कि ग़ुलामी के बारे में फलसफ़े की पूरी-पूरी किताबों
को पढ़ने की बनिस्बत महज़ इन गीतों को सुनना कुछ लोगों के दिमागों पर ग़ुलामी की
भयानक फ़ितरत के बारे में एक गहरी छाप डाल सकता है....जब मैं ग़ुलाम था तब मैं इन
रूखे, बीहड़ और प्रकट रूप से अबूझ गीतों के गहरे अभिप्रायों
को नहीं समझता था. मैं ख़ुद दायरे के भीतर था; लिहाज़ा न तो
मैं उस तरह देखता था न सुनता था जैसे वे लोग देख-सुन सकते थे जो बाहर थे. ये गीत
दुख की ऐसी कथा बयान करते थे जो मेरी कमज़ोर समझ के बिलकुल परे थे; ये ऊंचे, लम्बे और गहरे सुर थे; उनमें उन आत्माओं की प्रार्थनाएं और शिकायतें बसी हुई थीं जो अत्यन्त कड़वी
व्यथा से छलक रही थीं. हर सुर ग़ुलामी के ख़िलाफ़ एक गवाही था और ज़ंजीरों से छुटकारे
के लिए ईश्वर से एक प्रार्थना...अगर किसी को ग़ुलामी के अमानुषिक और आत्मा का हनन
करने वाले प्रभाव के बारे में जानना हो तो उसे कर्नल लौयेड के बगान पर जाना चाहिए
और दिहाड़ी वाले दिन चुपके से चीड़ के सघन वन में छिप कर ख़ामोशी से उन
ध्वनियों को जांचना-परखना चाहिए जो उसके कानों और आत्मा के गलियारों से गुज़रती हैं
और तब अगर वह अविचलित रह जाये तो ऐसा तभी हो सकता है जब ’उसके
निष्ठुर हृदय में ज़रा भी मांस न हो’....अमरीका के उत्तरी
हिस्से में आने के बाद मुझे ऐसे लोगों से मिल कर अक्सर बेइन्तहा हैरत हुई जो
ग़ुलामों के बीच गीत-संगीत को उनके सन्तोष और ख़ुशी का सबूत मानते हैं. इससे ज़्यादा
बड़ी भूल मुमकिन नहीं है. ग़ुलाम सबसे ज़्यादा तब गाते हैं जब वे दुखी और ग़मज़दा होते
हैं. ग़ुलामों के गीत उनकी व्यथाओं और पीड़ा की निशानियां हैं; उसे उनसे राहत मिलती है, वैसे ही जैसे दर्द-भरे दिल
को आंसुओं से मिलती है. कम-से-कम मेरा तो यही अनुभव है. मैंने अपने दुख को व्यक्त
करने के लिए अक्सर गीत गाये हैं, बिरले ही अपनी ख़ुशी ज़ाहिर
करने के लिए. जब तक मैं ग़ुलामी के जबड़ों में जकड़ा हुआ था, ख़ुशी
में रोना और ख़ुशी में गाना मेरी कल्पना से परे था. किसी ग़ुलाम का गाना उसी हद तक
सन्तोष और ख़ुशी का सबूत माना जा सकता है जिस हद तक किसी निर्जन टापू पर ले जा कर
छोड़ दिये गये आदमी का गाना; दोनों के गीत उसी सम्वेदना से
उपजते हैं."
-फ़्रेड्रिक डगलस का जीवन-वृत्तान्त
***
अमरीका
में दास-प्रथा लगभग तीन सौ साल तक रही और ये ग़ुलाम चूँकि अफ्रीका के अलग-अलग
हिस्सों से लाये गये थे, इसलिए उनके संगीत-रूपों में भी विविधता थी- जहाँ
तक यूरोपीय संगीत का सवाल है तो उसका अधिकांश ब्रिटेन से आया था, लेकिन अमरीका के लूज़ियाना राज्य पर बीच-बीच में फ्रांस और स्पेन का भी
क़ब्ज़ा रहा, इसलिए फ्रान्सीसी और स्पेनी संगीत भी वहाँ की
फ़िज़ा में रचा-बसा था- यूरोपीय संगीत में भजन और फ़ौजी धुनें तो थीं ही, साथ ही नाच के समय बजाया जाने वाला संगीत भी था-
क्रिस्टोफ़र
कॉडवेल ने कविता के स्रोतों पर विचार करते हुए कविता को गीत से और गीतों को श्रम
से, काम की लय से, जोड़ा था-
जैज़-संगीत के स्रोत भी अमरीकी नीग्रो दासों की इसी काम की लय में खोजे जा सकते हैं-
मज़दूरों के गीत, जैसा कि नाम से ज़ाहिर है, ऐसे गीत थे, जिन्हें लोग काम करते समय गाते थे-
हमारे यहाँ भी धान की बोआई या गेहूँ की कटाई करने वाले किसान, गंगा पर बजरे खींचने वाले मल्लाह और मकान बनाने वाले मजूर इसी किस्म के
गीत गाते हैं- इन गीतों की ताल और सुर, तुक और धुन काम की लय
से जुड़ी होती है और इस तरह इन गीतों में गुहार और जवाब की एक बिनावट नज़र आती है-
एक आदमी गुहार लगाता है और बाकी लोग जवाब में गीत की कडि़याँ दोहराते हैं और यह
तान बराबर चलती रहती है- मैंने एक बार किसी इमारत के निर्माण के दौरान मज़दूरों की
एक टोली को लोहे के बड़े-बड़े गर्डर उठाते समय ऐसी ही गुहार-जवाब लगाते सुना था-
टोली का नायक गुहार लगाता-‘शाबाश ज्वान,’ ‘खींच के तान,’ आदि और हर गुहार के बाद टोली रस्सा
खींचती हुई जवाब में ‘हेइस्सा’ कहती और
लोहे का गर्डर इंच-इंच कर ऊपर चढ़ता जाता.
अमरीकी
नीग्रो ग़ुलामों के ये मजूर-गीत भी इसी प्रकार के थे, जीवन और श्रम से जुड़े हुए, जो अपने आप में एक
अफ्रीकी विशेषता थी- दिलचस्प बात है कि गुहार और जवाब की यह ‘जुगलबन्दी’ वहाँ भी बरकरार रही, जहाँ एक ही अकेला कामगार होता था- उस स्थिति में वह गीत की कडि़याँ
बारी-बारी से मोटे और पतले सुरों में गाता - बेस (भारी) सुर में एक कड़ी और फिर ‘फ़ौल्सेटो’ (स्त्रैण, पतले) सुर
में दूसरी- आज जैज़-संगीत के परिष्कृत, शुद्ध सुरों को सुनते
हुए भले ही यह कल्पना करना कठिन हो कि वह मज़दूरों के इन्हीं गीतों और उनकी
गुहार-जवाब से विकसित हुआ होगा, लेकिन ध्यान से सुनने पर यह ‘जुगलबन्दी’ बराबर जैज़-संगीत में मौजूद मिलती है-
अमरीका
के ग़ुलामी के दौर में और भी बहुत से संगीत-रूप निकल कर सामने आये और आज भी अमरीका
के सुदूर ग्रामीण इलाकों में सुने जा सकते हैं, हालाँकि
जब वे धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं- ऐसी ही एक मिसाल है खेतिहरों के टिटकारी
गीत, जिन्हें खेतों पर काम करने वाले मजूर, कहा जाय कि ख़ुद अपने आप से या अपने मवेशियों से बात करने के लिए, गाया करते थे- इन गीतों की टिटकारियाँ और भारी तथा पतले सुरों की
जुगलबन्दी काफ़ी हद तक मज़दूरों के गीतों की ही तरह की थी और इन्हीं से हो कर जैज़
संगीत का सफ़र अपनी अगली मंज़िल - ब्लूज़ - तक पहुँचा.
आज
जब ब्लूज़ की बात की जाती है तो यह ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है कि ब्लूज़ के शुरुआती
दौर की कोई रिकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं है- मौजूदा रूप में जो ब्लूज़ उपलब्ध है,
वह भी जैज़-संगीत की तरह अपनी जड़ों से इतनी दूर चला आया है कि उसके
स्रोत अँधेरे में खोये हुए हैं- तो भी बुनियादी तौर पर ब्लूज़ की जड़ें मज़दूरों के
गीतों और खेत-मजूरों के टिटकारी गीतों में ही खोजी जा सकती हैं- खेत के किसी अकेले
कोने में काम करने वाला अमरीकी ग़ुलाम अपनी जातीय स्मृति में कैद बिम्बों को एक नयी
सीखी भाषा में ढालते समय ज़ाहिरा तौर पर बेहद निजी गीतों का ही माध्यम अपना सकता था-
इसीलिए ब्लूज़ मुख्य रूप से उदासी के, अवसाद के, विषाद के गीत हैं - निजी और ज़्यादातर एकालाप में निबद्ध- अपने आप से की
गयी संगीत-भरी बातचीत- शुरू के ब्लूज़ गाये ही जाते थे, पर
आगे चल कर ब्लूज़ की धुनें बजायी भी जाने लगीं-
यहां
एक ही धुन के दो रूप दिये जा रहे हैं. पहला, मशहूर
गायिका बिली हौलिडे के स्वर में ब्लूज़ का प्रसिद्ध गीत "सेंट लूइज़
ब्लूज़" है और दूसरा, जाने-माने जैज़ वादक लूई आर्मस्ट्रॉन्ग द्वारा बजायी गयी वही धुन है
जिसमें उनके साथ संगत वेल्मा मिडलटन कर रही हैं.
(बिली हॉलिडे - सेंट लूइज़ ब्लूज़)
(लूई आर्मस्ट्रॉन्ग - सेंट लूइज़
ब्लूज़)
(जारी)
No comments:
Post a Comment