दिलीप मंडल
प्रोफेसर तुलसीराम अंतराराष्ट्रीय संबंधों के अध्येता थे. दिल्ली के
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में वे इसी विषय को पढ़ाते थे और उनसे पढ़ चुके
हजारों विद्यार्थी और शोधार्थी इस बात को पुष्ट करेंगे कि वे अपने विषय के बेहतरीन
विद्यार्थी और शिक्षक थे. लेकिन प्रोफेसर तुलसीराम के व्यक्तित्व का यह एक पहलू भर
है. उनके बौद्धिक जीवन का विस्तार असीम रहा है और इसलिए उनके पूरे जीवन के व्यापक
कोलाज के तमाम रंगो और बिंबों को एक स्थान पर न समेट पाने को मेरी सीमा माना जाए.
मैं यहां उनके बारे में चार स्थापनाओं की चर्चा तक खुद को सीमित रखूंगा. इस उम्मीद
के साथ कि बाकी विषयों पर संबंधित लोग अवश्य बात करेंगे.
1. वामपंथ और बहुजनवाद
के सेतु तुलसीराम: भारत में वामपंथ की ऐतिहासिकता में दलित और बहुजन प्रश्न एक समस्या की
तरह आया है. वर्गीय चेतना की केंद्रीयता की जिद ने भारतीय वामपंथ को जाति विनाश के
महाविमर्श यानी मैटानैरेटिव से अलगाव में डाल दिया है. इस वजह से विआप पाएंगे
कि बाबा साहब आंबेडकर के वामपंथ की और
झुकाव और मजदूरों, किसानों और महिलाओं के प्रश्नों पर उनकी क्रांतिकारिता का कोई
रेजोनेंस (समान समान सुर में बजना) वामपंथी धारा में नहीं मिलता है. कालांतर में जब
वामपंथ और दलित-बहुजनवाद आपस में टकराती दो धाराओं में तब्दील हो जाते हैं, तब
प्रोफेसर तुलसीराम उन चंद लोगों में रहे, जिनकी राय में वामपंथी प्रगतिशीलता और
जाति विनाश के महाविमर्श के बीच द्वंद्व नहीं है. वे इन दो विचारों की सिनर्जी और
एकता में यकीन करते रहे और बाद के दिनों में दलित लेखक संघ के अध्यक्ष चुने जाने
और अपनी आत्मकथा लिखते समय भी वे वामपंथ की अपनी टेक से अलग नहीं होते हैं.
राष्ट्रनिर्माण की उनकी अवधारणा में वर्ग का प्रश्न उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना
जाति का प्रश्न. वे हमेशा इस बात के पक्षधर रहे कि इन दोनों सवालों से साथ में
जूझा जाए.
इस मायने में वे भारत के जड़बुद्धि वामपंथियों से अलग लकीर खींचते हैं
और इटली के वामपंथी कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी अंतोनियो ग्राम्शी से खुद को ज्यादा
करीब पाते हैं. ग्राम्शी ने जिस तरह से अपनी जेल डायरी संख्य़ा 25 में सबऑल्टर्न की
व्याख्या करते हुए इतिहास के हाशिए के लोगों की समस्याओं को और उनकी संभावनाओं को
चिन्हित किया है, वह प्रोफेसर तुलसीराम की संकल्पनाओं के काफी करीब है. ग्राम्शी
जिस तरह इटली के वंचितों की बात करते हुए ‘सदर्न क्वेश्चन’ में वर्गीय प्रश्नों से परे जाते है, उसी
तरह प्रोफेसर तुलसीराम के वंचितों की परिभाषा में गरीब भी हैं और दलित-बहुजन भी.
इस मायने में प्रोफेसर तुलसीराम अपनी बौद्धिकता की ट्रेनिंग में वामपंथ की भारतीय
मुख्यधारा से अलग खड़े नजर आते हैं. बल्कि ऐसा करते हुए वे भारतीय वामपंथ को आगे
का नया रास्ता तलाशने की विचारभूमि भी प्रदान करते हैं. 2015 में यह प्रश्न और भी
अहम है कि क्या भारतीय वामपंथ इस विचारभूमि के आधार पर नई शुरुआत करने के लिए
तैयार है? और यह
प्रश्न बहुजनवादियों के लिए भी है कि क्या वे वामपंथ की प्रगतिशीलता से ऊर्जा लेकर
आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं? तुलसीराम का लेखन दोनों ही धाराओं को नए तरीके
से सोचने को मजबूर कर सकता है.
2. मिथकों के शवपरीक्षक
तुलसीराम: प्रोफेसर
तुलसीराम ने अपने असंख्य व्याख्यानों और लेखन में मिथकों को भारतीय समाज की बड़ी
समस्या के तौर पर चिन्हित किया है. इस मायने में वे 19वीं सदी के महान सामाजिक
क्रांतिकारी और चिंतक ज्योतिबा फुले के बेहद करीब हैं. आप पाएंगे कि प्रोफेसर तुलसीराम ऐसा करते हुए फुले की किताब
गुलामगीरी को अक्सर संदर्भ ग्रंथ के तौर पर कोट करते हैं. ब्राह्मणवादी मिथकों की
चीरफाड़ करने में वे पूरी वैज्ञानिकता बरतते हैं और बेहद निष्ठुर नजर आते हैं.
उनकी शिकायत उन तमाम वर्चस्ववादी प्रतीकों से है, जिनके सांस्कृतिक प्रभाव की वजह
से समाज में वैज्ञानिक और प्रगतिशील चेतना बाधित है. वे अपने भाषणों में और लेखन
के जरिए बताते हैं कि बहुजन समाज भी ब्राह्णवादी मिथकों की चपेट में है और यह उनके
विकास में अड़चन है. इस संदर्भ में प्रोफेसर तुलसीराम का यूट्यूब में मौजूद यह
भाषण देखा और सुना जाना चाहिए जो उन्होंने जेएनयू में महिषासुर शहादत दिवस के मौके
पर दिया था. प्रोफेसर तुलसीराम
ब्राह्मणवादी वर्चस्व के मुकाबले भारत की समानांतर बौद्ध परंपरा का जिक्र करते हैं
और उसकी वैज्ञानिकता और मानववादी दर्शन को भारत का आगे का रास्ता मानते हैं.
प्रोफेसर तुलसीराम इस प्रश्न को लेकर बाबासाहब भीमराव आंबेडकर के करीब हैं.
3. फासिज्म, कट्टरपंथ
और जातिवाद के विरोधी तुलसीराम: समकालीन राजनीतिक-सामाजिक प्रश्नों को लेकर प्रोफेसर
तुलसीराम एक आधुनिक लोकतांत्रिक चिंतक के तौर पर अपनी भूमिका का निर्वाह करते नजर
आते हैं. विचार और अभिव्यक्ति पर होने वाले हर हमले के खिलाफ उन्हें मुखर देखा
गया. हिंदू कट्टरता के साथ ही मुसलमानों के एक धड़े द्वारा हिंदुवाद की नकल में
अपनायी गई कट्टरता का भी वे विरोध करते हैं. कंवल भारती को उत्तर प्रदेश शासन
द्वारा प्रताड़ित किए जाने का विरोध करते हुए प्रोफेसर तुलसीराम आस्था के प्रश्न
को लेकर मुसलमानों को आक्रामक चित्रित किए जाने की समाजवादी पार्टी की कोशिशों की
आलोचना करते हैं. फासिज्म के खतरों को लेकर प्रोफेसर तुलसीराम लगातार सजग नजर आते
हैं और अपने आखिरी दिनों में भारतीय राजनीति की दिशा को लेकर उन्होंने कई बार
चिंता जताई. भारत के फासिस्ट दिशा में चल पड़ने को वे विश्व इतिहास की बड़ी
त्रासदी के तौर पर चिन्हित करते हैं और कहते हैं कि यह दुनिया के लगभग 50 छोटे
देशों के फासिस्ट हो जाने के बराबर है. इसके साथ ही वे विरोधी विचारों के बीच
संवाद के भी प्रबल समर्थक रहे. प्रोफेसर तुलसीराम अपने व्यक्तित्व में खरे
समन्वयवादी भी नजर आते हैं और वैचारिक प्रखरता के बावजूद उनकी सर्वस्वीकार्यता एक
ऐसी चीज है, जिससे सीखा जाना चाहिए.
4. बहुजन ‘अतिवाद’ के विरोधी तुलसीराम:
प्रोफेसर तुलसीराम
ब्राह्मणवाद के निर्मम आलोचक है लेकिन समकालीन दलित-बहुजन विचारधारा की कई
स्थापनाओं से वे निरंतन अपनी असहमति भी जताते रहे हैं. उन्हें गांधी से शिकायत
है कि वे वर्ण व्यवस्था को दैवी मानते थे, लेकिन वे यह नहीं मानते थे कि गांधी
दलितों के दुश्मन थे. गांधी को विलेन की तरह दर्शाए जाने से वे सहमत नहीं थे.
दलितों के उत्थान में वे गांधी की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते रहे और इस सवाल पर
कई दलित लेखकों से वे टकराते भी रहे. प्रेमचंद को दलित विरोधी बताए जाने से भी
प्रोफेसर तुलसीराम सहमत नहीं थे. इन सवालों पर वे अपनी राय खुलकर जताते रहे और
विरोध का खतरा उठाकर भी अपनी बात कहते रहे.
No comments:
Post a Comment