Monday, December 14, 2015

यह जीवन की हरी ध्वजा है


गेहूँ जौ के ऊपर सरसों की रंगीनी
- त्रिलोचन


गेहूँ जौ के ऊपर सरसों की रंगीनी छाई है, 
पछुआ आ आ कर इसे झुलाती है, 
तेल से बसी लहरें कुछ भीनी भीनी,
नाक में समा जाती हैं, 
सप्रेम बुलाती है मानो यह झुक-झुक कर. 
समीप ही लेटी मटर खिलखिलाती है, 
फूल भरा आँचल है, 
लगी किचोई है, 
अब भी छीमी की पेटी नहीं भरी है, 
बात हवा से करती, 
बल है कहीं नहीं इस के उभार में। 
यह खेती की शोभा है, 
समृद्धि है, 
गमलों की ऐयाशी नहीं है, 
अलग है यह बिल्कुल उस रेती की
लहरों से जो खा ले पैरों की नक्काशी.
यह जीवन की हरी ध्वजा है, 
इसका गाना प्राण प्राण में गूँजा है 
मन मन का माना.

बाबा त्रिलोचन

1 comment:

Digvijay Agrawal said...

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 15 दिसम्बर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!