Tuesday, December 27, 2016

अत्र कुशलं तत्रास्तु मिर्ज़ा

चचा ग़ालिब की चिठ्ठियों में "अत्र कुशलं तत्रास्तु" वाला वह शिष्टाचार देखने को नहीं मिलता. उल्टे वे इस परम्परा की मज़ाक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते. चिठ्ठियों अपने गद्य के बारे में उनका कहना था - "मैंने वो अंदाज़-ए-तहरीर ईजाद किया है के मुरासिले (चिठ्ठी) को मुकालिमा (बातचीत) बना दिया है. हज़ार कोस से बज़बाने-क़लम (क़लम की जीभ) से बातें किया करो. हिज्र में विसाल के मज़े लिया करो."


एक दोस्त को लिखी उनकी चिठ्ठी -


"तुम मेरे हमउम्र नहीं जो सलाम लिखूं. मैं फ़क़ीर नहीं जो दुआ लिखूं. तुम्हारा दिमाग़ चल गया है, लिफ़ाफ़े को करेदा करो. मसविदे के कागज़ को बराबर देखा करो, पाओगे क्या? याने तुमको वो मुहम्मदशाही रविशें पसंद हैं, यहाँ खैरियत है, वहां की आफ़ियत (कुशलता) मतलूब (अभीष्ट) है. ख़त तुम्हारा बहुत दिन के बाद पहुंचा. जी खुश हुआ. ... हमेशा इसी तरह खत भेजते रहो. क्यों, सच कहिये. अगले के ख़ुतूत की तहरीर की यही तर्ज़ थी या और? हाय क्या अच्छा शेवा (ढंग) है. जब तक यों न लिखो वो ख़त ही नहीं है ... अगर तुम्हारी खुशनूदी (खुशी) उसी तरह की निगारिश (लेखन) पर मुन्हसिर (आधारित) है तो भाई साढ़े तीन सतरें वैसी मैंने भी लिख दीं."

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