Monday, October 15, 2007

डोरिस लेसिंग को साहित्य का नोबेल




अगली 22अक्टूबर को अपना 88 वां जन्मदिन मनाने जा रही ब्रिटिश कथाकार डोरिस लेसिंग के लिये इससे ‘शानदार तोहफा और क्या हो सकता था ! उन्हें साहित्य का नोबेल पुरूस्कार मिलना कई मायनों में विशिष्ट और विलक्षण है । 1901 से शुरू पुरुस्कारों से नवाजी जाने वाली हस्तियो में वे अब तक सबसे उम्रदराज तो हैं ही साथ ही यह जानकारी भी गैरजरूरी नहीं है कि वे कुल जमा नोबेल पुरूस्कार प्राप्तकर्ताओं में 34 वीं और साहित्य का नोबेल पाने वाली 11 वीं स्त्री हैं ।



डोरिस ने सत्तर से अधिक किताबें लिखी हैं जिनमें ज्यादातर कथात्मक और आत्मकथात्मक कृतियां हैं। हालांकि उनका पहला उपन्यास ' द ग्रास इज़ सिंगिंग', 1950 में छप कर आ गया था जो कि नस्लभेद की पृष्ठ्भूमि में एक श्वेत मालिक और अश्वेत मुलाजिम के बीच मानवीय रिश्ते की पड़ताल को लेकर रचा गया था । इस रचना से उनके लेखनकर्म की जो शुरुआत हुई वह उम्र के इस मुकाम तक पहुचकर भी अविराम और अनवरत जारी है। ('द क्लेफ्ट' उनका नवीनतम उपन्यास है।) डोरिस को सबसे अधिक प्रसिद्धि ' द गोल्डन नोटबुक' उपन्यास से मिली । इससे उनकी पहचान एक तेजतर्रार स्त्रीवादी लेखक की बनी और यह भी उल्लेखनीय है कि इसी की वजह से उनकी जमकर बखिया भी उधेड़ी गई और अ -स्त्रीवादी या ' अन्फेमिनिन ' कहकर कोसा गया कि उन्होंनें स्त्री के भीतर के क्रोध , हिंसत्व, घृणा और अहंकार को इतना बेलाग क्यों चित्रित किया है । लेकिन डोरिस के अदम्य साहस ,विकट जिजीविषा और सच को बयान करने वाली शैली ने कभी पथ से विचलित नहीं किया । ऐसा नहीं है कि यह साहस और साफगोई अचानक मिली हो । व्यापक ,विविध और सुदीर्घ जीवनानुभवों , वैचारिक टकरावों तथा घाट-घाट का पानी पीकर बड़ी हुई इस लेखिका का जीवन बहुरंगी है । 1919 में ईरान में जन्मी, जिम्बाब्वे में पली बढ़ी, ऊंची पढाई से थोड़ी दूर रही ,पन्द्रह साल की उम्र में नर्सिंग सहायक की नौकरी करने वाली इस लेखिका ने द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका और फलस्वरूप उपजे विस्थापन को बहुत निकट से जाना और जिया है। विवाह, बच्चे, तलाक, वाम विचारधारा और दल की सदस्यता, अंतत: लेखन और लेखन और लेखन ...



यहां पर मै डोरिस लेसिंग की किताबों की सूची नहीं देने जा रहा हूं। आज की तारीख में जितनी कम मुश्किल में किताबों की सूची उपलब्ध है उससे बस थोड़ी -सी और कोशिश कर के उनकी किताबें पढ़ी जा सकती हैं । ऐसे समय में जब हिन्दी साहित्य के भीतर और बाहर का विमर्श स्त्री और दलित के सवालों से टकराता दीख रहा है तब डोरिस लेसिंग को मिले नोबेल पुरूस्कार का मतलब अंग्रेजी और अन्य विश्व भाषाओं के लिये जो हो सो लेकिन हिन्दी वालों के लिये जरूर खास लगता है कि हम कम से कम अब तो आत्म मुग्धता खोह से अपनी मुंडी बाहर निकालकर थोड़ा झांके और तब अपने आप को आंकें । बहरहाल मजबूत इरादों और अनुभव की आंच से दीप्त इस दादी अम्मा लेखिका को सलाम - नमस्ते ।

1 comment:

शिरीष कुमार मौर्य said...

भई इस दादी अम्मा को हमारी भी सलाम-नमस्ते! इधर नोबेल वाले साहित्य में ठीक चयन कर रये दिक्खें !