Tuesday, June 3, 2008

हू इज़ अफ्रेड ऑफ़ सचिन तेन्दुलकर




सुर्ख़ियों में बने रहना दिएगो मारादोना की फ़ितरत का हिस्सा रहा है. चाहे १९८६ के फ़ुटबॉल विश्वकप के क्वार्टर फ़ाइनल में इंग्लैण्ड के खिलाफ़ 'हैण्ड ऑफ़ गॉड' वाला गोल हो, चाहे पेले को लेकर की गईं खराब टिप्पणियां हों या रिटायरमेन्ट के बाद ड्र्ग्स और नशे में गहरे उतर जाना हो, मारादोना चाहे-अनचाहे दुनिया भर के समाचारों पर छाये रहे हैं. वे निस्संदेह पिछली सदी के महानतम फ़ुटबॉलरों में थे. जो भी हो, उनके खेल का मैं बड़ा प्रशंसक हूं.

मेरे एक मित्र हैं हरमन. विएना में रहते हैं, फ़ुटबॉल के दीवाने हैं और मारादोना को भगवान मानते हैं. हरमन ने मुझे ऑस्ट्रिया से अभी एक फ़िल्म भेजी है. मारादोना पर बनी सर्बिया के लोकप्रिय फ़िल्मकार एमीर कुस्तुरिका की यह डॉक्यूमेन्ट्री अभी अभी समाप्त हुए कान फ़िल्म समारोह में दिखाई गई. डेढ़ घन्टे की इस फ़िल्म ने माराडोना की मेरी अपनी बनाई छवि को ध्वस्त करते हुए कई नई बातें बताईं.

अपने देश अर्जेन्टीना में मारादोना एक 'कल्ट' का नाम है, उनके चाहनेवालों ने उनके चर्च बना रखे हैं और खास तरह की प्रार्थनाएं भी. इन चाहनेवालों के कुछ हंसोड़ दृश्य फ़िल्म के शुरुआती हिस्से में हैं.

मारादोना के ड्र्ग्स के इस्तेमाल करने और उस जाल से सफलतापूर्वक बाहर आने की लम्बी जद्दोजहद की दास्तान भी इस में है. इसके अलावा वे एक प्यारभरे पिता भी हैं: उनकी दो पुत्रियों के साथ उनके संबंधों की ईमानदारी बहुत मार्मिक तरीके से फ़िल्म में देखने को मिलती है.

फ़िल्म के एक दृश्य में मारादोना फ़िदेल कास्त्रो का अपना टैटू दिखाते हैं और बहुत संजीदगी से कहते हैं कि वे प्रिन्स चार्ल्स से कभी हाथ नहीं मिलाएंगे और यह भी कि वे जॉर्ज बुश से बेपनाह नफ़रत करते हैं. अपनी बेबाकी के लिये 'बदनाम' मारादोना अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को "मानव कूड़े का हिस्सा" कहने में भी नहीं हिचकते. यह हिस्सा देखने के बाद मुझे अहसास हुआ कि दिएगो मारादोना असल में एक अलग मिजाज़ का चैम्पियन खिलाड़ी है जो इतनी शोहरत पा चुकने के बावजूद अपने विचारों को प्रकट करने में नहीं हिचकता. जाहिर है इस तरह के व्यक्तित्वों से आज का अमरीकी बाज़ारवाद डरता भी है और उनके बारे में कुप्रचार करने में बिल्कुल देरी नहीं करता.

मुझे यक़ीन है इस फ़िल्म के बाद सारे संसार में मारादोना को उनके विवादों की ही वजह से नहीं बल्कि राजनैतिक सजगता के लिये भी जाना जाने लगेगा और उनके प्रशंसकों की तादाद और भी बढ़ती चली जाएगी.

कान फ़िल्म समारोह में जब पत्रकारों ने उनसे बुश वाले दृश्य को लेकर सवालात किये तो मारादोना ने साफ़ साफ़ उत्तर दिया: "जब आपको दुनिया जानने लगती है तो आपको बुश या अमरीका के बारे में कुछ भी कहने की अनुमति नहीं होती. ऐसे और भी बहुत से निषिद्ध विषय होते हैं. जब यह फ़िल्म बन रही थी तो निर्देशक एमीर कुस्तुरिका ने मुझे सिखाया कि किसे कितनी इज़्ज़त दी जानी चाहिये. आप चाहे कितने ही मशहूर फ़ुटबॉलर या और कोई खिलाड़ी क्यों न हों, आपको एक हत्यारे व्यक्ति के बारे में अपने विचार व्यक्त करने का पूरा अधिकार है."



पुनश्च: इस पोस्ट को पढ़ने के बाद मेरे पास दो हितैषियों के फ़ोन आ गये हैं कि शीर्षक और कथ्य में ज़रा भी साम्य नहीं है और शायद मुझ से कोई भूलचूक हो गई है. तो साहेबान! कहीं कोई भूलचूक नहीं हुई है. अमरीकी नाटककार एडवर्ड एल्बी के मशहूर नाट्क 'हू इज़ अफ़्रेड ऑफ़ वर्जीनिया वूल्फ़' के शीर्षक से प्रेरित है मेरी पोस्ट का शीर्षक. अब 'हू इज़ अफ़्रेड ऑफ़ वर्जीनिया वूल्फ़' क्या है, मत पूछियेगा प्लीज़.

10 comments:

Rajesh Roshan said...

भारत और अर्जेंटीना में फर्क है. और उससे कही ज्यादा माराडोना और सचिन में फर्क है. सचिन इसलिए महान है क्योंकि वह सचिन हैं. विवादों से बचना और विवाद पसंद नही होना दो बाते हैं. सचिन को विवाद पसंद नही हैं.

Shiv said...

बिल्कुल नहीं पूछेंगे सर.

सचिन डरपोक आदमी है जी. डरता है जॉर्ज बुश से. वो क्या खाकर प्रिन्स चार्ल्स के बारे में कुछ कहेगा? गार्डन ब्राऊन अभी कह कर गए हैं न कि सचिन के 'नाईट हुडियाने' का चांस है. अब ऐसे में क्यों कहेगा भला? क्या हैसियत है सचिन की? इंग्लैंड में कई बार काउंटी क्रिकेट खेला लेकिन वहाँ एक भी अवैध संतान नहीं पैदा कर सका. वहीं माराडोना को देखिये. सुना है इटली में गली-कूचों में इन्ही की अवैध संतान दिखाई देती हैं. सचिन के पास कहाँ हिम्मत कि ड्रग्स ले. डरपोक है जी. सचिन की हैसियत नहीं कि पुलिस उसे अरेस्ट कर सके. वहीं माराडोना को देखिये. आय-हाय, क्या कहने. किससे-किससे पंगा नहीं लिया है सरकार ने. किस-किस केस में नहीं फंसे हैं जी? हैसियत वाले लोग ऐसे ही होते हैं जी...........................................

PD said...

:) ye shiv ji ke comment par.. :)
(Ashok ji, ye mat bhooliye ki hamare shiv ji Sachin ke Die Hard Fan hain.. :))

बालकिशन said...

आपकी और शिव की दोनों बातों से सहमत हूँ.
पर kahna ये चाहता हूँ की ये tulna baimani है.

Mihir Pandya said...

main film ki talaash me hoon. dekhne ki koshish hai jald se jald...
bahut kaam ki jankari...
thanks.

दिलीप मंडल said...

सचिन लीक हैं, मारादोना लीक से हटकर हैं। सचिन अब हिस्ट्री बनने की ओर बढ़ रहे हैं। आईपीएल में उनका एक रन एक लाख और कुछ हजार रुपयों का रहा। खेल छोड़े कई साल होने के बावजूद मारादोना वर्तमान हैं।

सचिन कल्ट नहीं बन सकते। लीक पर चला कोई शख्स कल्ट नहीं बनाता। मारादोना खेल छोड़ने के बाद भी प्रासंगिक हैं। लोक विमर्श में बने हुए हैं। सचिन की चर्चा खेल से इतर किन वजहों से होती है। इंजरी की वजह से? सचिन व्यवस्था के पैंपर्ड ब्वाय हैं। उनका खराब प्रदर्शन कभी भी उनके टीम से बाहर होने का कारण नहीं बना। लेकिन आईपीएल के युग में ऐसे पैंपर्ड ब्वॉय का खेल लंबा चलने वाला नहीं है।

कल्ट धूमिल का बनता है, पागल कहे जाने वाले स्वदेश दीपक के कोर्ट मार्शल का कल्ट बनता है, घासीराम कोतवाल कल्ट है। वहीं नामवर सिंह जैसे लोग नाम-पैसा कमाते हैं चापलूसों की फौज के बीच महान कहलाते रहते हैं और फिर खत्म हो जाते हैं। भगत सिंह कल्ट फिगर हैं, गांधी नहीं हैं। आंबेडकर हैं, नेहरू नहीं हैं। चे कल्ट हैं, दक्षिण अमेरिका के सबसे सफल शासक कल्ट नहीं है। यही नियम सभी जगह चलता है।

कामयाब होना किसी को जनमानस का हीरो बनाने की अनिवार्य शर्त नहीं है।

PD said...

आप तो गुरू चीज हैं साहब.. हर जगह अपनी नाक घुसाना नहीं छोड़ते.. :P (मजाक कर रहा हूं, मजाक कि तरह ही लिजीयेगा..) :)

Ghost Buster said...

हा हा हा. बहुत बढ़िया शिव जी. आप भी मेराडोना वाला ही काम कर गए. क्या जबरदस्त किक जमाई है.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

सचिन तेंदुलकर के खेल का मैं प्रसंशक रहा हूँ. लेकिन खेल के साथ-साथ अगर व्यक्तित्व भी महान हो तो सोने पे सुहागा जैसी बात होती है. माराडोना ने जो कुछ किया डंके की चोट पर किया और अपने देश के लिए फुटबाल का विश्व कप जीत कर लाये. वह पैसे के पीछे न तो इतने दीवाने हैं न ही डरपोक. अपने देश के लिए खुल कर बोलते हैं. वह ये परवाह नहीं करते कि कौन सी बहुराष्ट्रीय कम्पनी उनके बारे में नहीं सोचेगी और कौन सा दबंग नेता नाराज हो जायेगा. क्रिकेट की तरह फुटबाल भी एक टीम गेम है लेकिन सचिन के साथ व्यक्तिगत रिकोर्ड तो आप जोड़ सकते हैं जो उनके लिए विज्ञापन जुटाते हैं लेकिन विश्व कप जैसी उपलब्धियाँ उनसे बहुत दूर-दूर ही रही हैं. और ऐसा भी नहीं है कि उन्हें मौका न मिला हो. ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ विश्व कप फाइनल याद कर लीजियेगा.

सचिन को जब विदेशी गाडियाँ तोहफ़े के तौर पर मिलती हैं तो वह सरकार को ड्यूटी माफ़ करने का आवेदन देते हैं. यानी मुफ्त में मिली गाड़ी पर भी टैक्स नहीं देना चाहते कि वह पैसा देश के विकास में लग सके. आईपीएल में लगातार पिट रही मुम्बई की तरफ़ से खेलते हुए एक मैच में कैच लपकने पर जितनी और जिस तरह से खुशी उन्होंने जाहिर की थी वैसी किसी भी विरोधी टीम के ख़िलाफ़ किसी भी उपलब्धि में मैंने उनकी प्रतिक्रिया नहीं देखी. जाहिर है वह दर्शकों को नहीं बल्कि टीम के मालिकान को दिखाना चाहते थे कि वह कितनी जान लड़ा रहे हैं; अगली बार कांट्रेक्ट का पैसा बढ़ा दीजियेगा.

संविधान के ख़िलाफ़ काम करने वाले राज ठाकरे के ख़िलाफ़ भी सचिन कहीं कुछ नहीं कहते. जबकि हालत यह है कि अगर सचिन कुछ बोलें तो उसका असर मराठी लोगों पर बहुत ज़्यादा पड़ेगा और देश को तोड़ने की साजिश विफल हो सकती है. लेकिन इमेज बिगड़ने के भय से खामोशी ओढे हुए हैं. ठीक है मत बोलिए, लेकिन न बोलने के ख़िलाफ़ जो मजबूरी है उसे 'हम विवाद में नहीं पड़ना चाहते' वाली मुद्रा अपना कर लोगों को बरगालाइये तो मत!

पांडे जी ने 'हू इज अफ्रेड ऑफ़ वर्जीनिया वुल्फ' की मिसाल दी है जो उचित ही है. उस ड्रामे में वर्जीनिया वुल्फ कहीं नहीं आती. इसी तरह यह जुल्मी लोगों के ख़िलाफ़ माराडोना के बहाने सचिन तेंदुलकर जैसे कथित महानायक का विमर्श समझा जाना चाहिए.

..और प्रसंशक होना अलग बात है लेकिन भक्तगणों की बातों को भक्तजनों की ही तरह लेना चाहिए.

Ghost Buster said...

बात अगर व्यक्तित्व की हो तो सचिन के सामने मेराडोना पासंग भर भी नहीं हैं. मेराडोना एक चीटर है, १९८६ वर्ल्ड कप का "हेंड ऑफ़ गौड़" गोल हो या इतालिया ९० वर्ल्ड कप से ड्रग्स सेवन के चलते किक आउट किया जाना हो, अपने घर के सामने जमा पत्रकारों पर एयर गन से फायर करना हो या कोकीन के सेवन का शौक हो मेराडोना ने कुछ लोगों के लिए बड़ी उम्दा मिसालें पेश की हैं. ये लोग फ़िदा हैं उनपे क्योंकि इस ड्रामेबाज ने बुश और इंग्लैंड के खिलाफ कुछ टिप्पणियां कर दी हैं. किसी को महान बताने के लिए और चाहिए भी क्या?

सचिन अगर हिंदुस्तान में भगवान् की भांति पूजे जाते हैं तो उसके पीछे कुछ ठोस कारण हैं. करोड़ों लोगों की आशाओं के प्रतीक रहे सचिन ने कभी शालीनता का दामन नहीं छोड़ा. जहाँ थोडी सी सफलता इंसान का दिमाग ख़राब करने के लिए काफ़ी हो (क्रिकेट या फिल्मों की दुनिया में अनेक उदाहरण हैं) वहां लोकप्रियता के शीर्ष पर बैठ कर भी इतनी विनम्रता अद्भुत है.