Sunday, December 21, 2008

मीडिया का जूता और राष्ट्रवाद

क्या मीडिया उस तरह से राष्ट्रवादी हो सकता है, या उसे होना चाहिए, जैसा चालू अर्थों में किसी राष्ट्रवादी से उम्मीद की जाती है। या फिर मीडियाकर्मी के लिए पेशे के प्रति प्रतिबद्धता राष्ट्रवाद से बड़ा मूल्य है। इधर भारत के बाहर दो ऐसी घटनाएं घटी हैं जिनकी वजह से ऐसे सवाल भारत के मीडियाकर्मियों को मथ रहे हैं।

पहली घटना पड़ोसी पाकिस्तान में घटी। जिओ टी.वी. ने स्टिंग आपरेशन के जरिये खुलासा किया कि मुंबई हमलों का गुनहगार अजमल कसाब दरअसल पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में दीपालपुर कस्बे के पास फरीदकोट गांव का रहने वाला है। दूसरी घटना इराक की है, जहां एक टी.वी.पत्रकार ने दुनिया के सबसे ताकतवर समझे जाने वाले आदमी, अमेरिकी राष्ट्रपति पर जूते फेंके। पाकिस्तान में कथित राष्ट्रीय हित पर वहीं के चैनल ने चोट पहुंचाई तो इराक में राष्ट्रवाद का जुनून पेशे की मर्यादा पर भारी पड़ा। जाहिर है, दोनों के सही- गलत होने पर बहस हो रही है।

पहले बात जिओ टी.वी की। पाकिस्तान और भारत के बीच जारी शब्दयुद्ध के बीच इस चैनल ने सच्चाई जानने के लिए फरीदकोट गांव पहुंचकर स्टिंग आपरेशन किया। पता चला कि अजमल कसाब यहीं का रहने वाला है। कुछ समय पहले वो गांव आया भी था और बच्चों को कराटे के करतब दिखाए थे। साथ ही, अपनी मां से जेहाद पर जाने के लिए आशीर्वाद मांगा था। उसका पिता अमीर कसाब पकौड़े बेचता है और जब से अजमल कसाब के जिंदा पकड़े जाने की खबर आई है, ये गांव पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों की निगरानी में है। लोग पत्रकारों से बात न कर सकें और पत्रकार वहां तस्वीरें न खींच सकें, इसकी पूरी कोशिश की जा रही है।

ये सच सामने आते ही पाकिस्तान सरकार का वो दावा कमजोर पड़ गया कि मुंबई हमलों में पाकिस्तानियों का हाथ नहीं है और जिंदा पकड़े गए आतंकवादी के पाकिस्तानी होने का कोई सुबूत नहीं है। इसमें शक नहीं कि जिओ टी.वी. ने वही किया जो मीडिया का फर्ज है, यानी सच्चाई सामने लाना। लेकिन जरा गौर करें, उसके इस कदम से पाकिस्तान की कितनी किरकिरी हुई। दुनिया के सामने उसका दावा कमजोर पड़ गया। तो क्या जिओ ने गलत किया?

राष्ट्रवाद की चालू परिभाषा के लिहाज से देखा जाए तो वाकई जिओ ने अपने राष्ट्र को शर्मिंदा किया। पाकिस्तानी राष्ट्रवादियों की नजर में जिओ का ये काम देशद्रोह से कम नहीं। जाहिर है, उस पर हमले हो रहे हैं। जिओ के मशहूर पत्रकार हामिद मीर ने खुद की जान का खतरा बताया है। यही नहीं, लाहौर हाईकोर्ट ने जिओ के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा चलाने की याचिका स्वीकार कर ली है।

भारत में जरूर जिओ की पीठ ठोंकी जा रही है। अखबार और चैनलों में इस बात का ढिंढोरा है कि पाकिस्तानी मीडिया ने ही पाकिस्तान के झूठ की पोल खोल दी। ये अलग बात है कि भारत में कोई जिओ जैसी हरकत करे, तो उसे भी वैसे ही देशद्रोही करार दिया जाएगा जैसे पाकिस्तान में जिओ को कहा जा रहा है। इस खतरे के आगे सभी दंडवत हैं।

लेकिन एक दूसरा पहलू भी है। जिओ ने सच उजागर करके एक तरह से वहां की सरकार को मजबूर किया कि वो आतंकवाद के मुद्दे पर कठोर रुख अपनाए। अगर पाकिस्तानी सरकार वाकई ऐसा करती है तो उसे दुनिया भर से सहायता और समर्थन मिलना तय है। तभी शायद वो आईएसआई के कचक्रों का मुकाबला कर पाएगी और सत्ता पर झपट्टा मारने को तैयार खड़ी सेना को कदम पीछे करने को मजबूर कर सकेगी। इस तरह जिओ ने पाकिस्तान में लड़खड़ाते लोकतंत्र को सहारा दिया है।
बतौर राष्ट्र पाकिस्तान को मजबूत होने का मौका दिया है। ऐसा करना जिओ के लिए जरूरी भी है। उसे अच्छी तरह पता है कि मीडिया के लिए लोकतंत्र के क्या मायने हैं। सैनिक शासन होता तो जिओ फरीदकोट में स्टिंग आपरेशन कतई न कर पाता। करता भी तो प्रसारण की नौबत न आती। यानी राष्ट्रहित वही नहीं है जो किसी देश की मौजूदा सरकार के हक में हो, राष्ट्रहित वो है जो उन मूल्यों के हक में हो, जिस पर किसी देश की बुनियाद पड़ी है। इस तरह देखा जाए तो सच्चाई के प्रति मीडिया का आग्रह कभी भी राष्ट्रहित के विरुद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि झूठ की बुनियाद पर सरकारें खड़ी रह सकती हैं, देश नहीं।
पर अफसोस की बात ये है कि दुनिया भर में राष्ट्रहित के नाम पर मीडिया को अपने तरीके से चलाने की कोशिश हो रही है। सरकारों को 'एम्बेडेड जर्नलिज्म' ही चाहिए। यानी ऐसी बंधुआ पत्रकारिता, जो किसी सरकार के फौरी हित के हिसाब से ही खबरें लिखें। इराक युद्ध के दौरान यही हुआ। पत्रकारों को स्वतंत्र रूप से देखने-सुनने की मनाही थी। अमेरिकी सेना के साथ नत्थी पत्रकारों ने सेना से मिली सूचनाओं को ही परोसा। और जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई में सदियां खप जाएंगी। कल्पना करिए कि अमेरिकी पत्रकारों ने स्वतंत्र ढंग से जांचकर ये बताया होता कि इराक में जैविक हथियार नहीं हैं तो क्या होता। जनदबाव के चलते जार्ज बुश शायद ही इराक को तबाह करने की हिमाकत करते और बगदाद के विदाई समारोह में उनपर जूते न चलते।

पर ये नहीं भूलना चाहिए कि ये जूते एक पत्रकार ने चलाए जो उनकी प्रेस कांफ्रेंस कवर करने गया था। मुंतजिर अल जैदी ने जूते फेंककर पेशे की मर्यादा और भरोसे के साथ खिलवाड़ किया है। ये अलग बात है कि उसके साहस से अमेरिकी साम्राज्यवाद से संघर्ष करने वालों में खुशी की लहर है औऱ मुंतजर उनका नया नायक है। इसमें भी शक नहीं कि मेसोपोटामिया के जरिये दुनिया को सभ्यता का शुरुआती पाठ पढ़ाने वाले इराक को बुश ने इस कदर बर्बाद किया कि पुरानी हैसियत पाना अब सपना ही है। लोगों में स्वाभाविक ही इसके खिलाफ भारी गुस्सा और नफरत है। लेकिन असल राष्ट्रवादी पत्रकार इस गुस्से को आवाज देगा, जुल्म के खिलाफ लोगों का आह्वान करेगा, उम्मीद करेगा कि निहत्थे लोग किसी दिन जूता लेकर उठ खड़े होंगे। बुश पर जूता फेंकने के लिए पत्रकार होना जरूरी नहीं, लेकिन मुंतजिर उस राष्ट्रवाद का शिकार हो गया जो अंधा बना देता है। उसने जूता उठाकर एक आसान रास्ता चुना।

13 comments:

शिरीष कुमार मौर्य said...

जिओ और मुंतज़िर की बहुत िस्परिट में फर्क हैं जिसे पंकज श्रीवास्तव जैसा पत्रकार ही पकड़ सकता है। पंकज भाई भरोसा हुआ आपका लिखा पढ़कर कि सही सोचना भी संभव है हमारे इस अंधेरे समय में !

Naveen Joshi said...

I fully support Pankaj on this point. A very valid arguement and should be noted by every journalist. Professionalism should prevail over nationalsim, sply for an objective journalist.
Bhaut badhia Pankaj Ji, my compliments.

निर्मला कपिला said...

pankaj i also support you aaj aap jese patarkaaron ki bahut jaroorat hai lage raho bhaai

Unknown said...

सही है कि मुतंजर ने पत्रकारीय विशेषाधिकार का दुरुपयोग किया लेकिन सदुपयोग कौन कर रहा है राजीव शुक्ला, रजत शर्मा, बाल ठाकरे या वे तमाम मीडिया बैरन जो मुंतजर जैसों को चाकर रखते हैं। अगर असुरक्षा से चिंतित महाजन प्रेस कांफ्रेंसों में रिपोर्टरान को बुलाना, मिलाना बंद कर दें और पत्रकारिता के नाम पर चलता यह विवेकवान स्वांग कुछ दिन न चले तो क्या फर्क पड़ जाएगा साथी। जरा इस पर भी विचार होना चाहिए।

VIMAL VERMA said...

पंकज आपने बड़े सटीक तरीके से अपनी बात रखी,मै भी आपकी बातों से सहमत हूँ,और इस बात ने मुझे प्रभावित किया जिसमें आपने लिखा "बुश पर जूता फेंकने के लिए पत्रकार होना जरूरी नहीं, लेकिन मुंतजिर उस राष्ट्रवाद का शिकार हो गया जो अंधा बना देता है। उसने जूता उठाकर एक आसान रास्ता चुना।" आपने बड़े बेबाक तरीके से जटिल हो रहे मुद्दे को कितनी आसानी से समझा दिया बहुत बहुत शुक्रिया मित्र

स्वप्नदर्शी said...

I feel the comparison between the two situations is a little irrelavant. Iraq and pakistaan are two different situations, and this is simplification.

Iraqi patrkaar ka gussa aur vidroh, dono ko ek "jabardatee ke thope yuddh, aur usase uapajee vivbhishikaa me jeete aadamee kee nazar se dekhaa janaa chaahiye", na ki "raastrvaad kee tarah" .
jootaa fenk-kar iraaqi ne apanee sarkaar ko bhee apanaa dushman hee banaayaa hai, theek vaise hee, jaie ki paakistaanee patrkaar ne.

aur ise ek symbolic action kee tarah bhee dekhaa jaanaa chaahiye.

I do not say that either of these actions are right or wrong and there can always be a debate and different perspective.

Anil Pusadkar said...

सही लिखा आपने।

इरफ़ान said...

Ye sach hai ki "Patrakarita ki maryada" jaise shabd-punj aap hi istemaal kar sakte hain aur aap ko hee shobhaa dete hain.Kyonki aam taur par BITE SOLDIERS is Chidiya ka naam nahin jaante aur bataye jaane par aapko "Duniya Ke Pichhawade" rahane waala aadmi batate hain.Becharey BSs ko kyon kosein unke baap bhee yaqeenan is "Patrakarita ki maryada" ko bahut dinon baad sun rahe honge.Mazedar baat ye hai ki jab Muntazar ne patrakaron ke liye ek naee bhoomika kee zaroorat jagaee hai(iradatan ya ghairiradatan)tab to yeh "Patrakarita ki maryada" sab ko badi hee sashakt aur samayaanukool aur tarkpoorn lagegee. Is tarah aap to bhaaee duharee zimmedaaree nibhaa rahe hain aur iske liye aap zarur hee badhaaee ke paatra hain. YANI AAP KHUD TO "Patrakarita ki maryada" KA KHAYAAL RAKH HEE RAHE HAIN AUR JO MUNTAZAR KEE DIKHAAEE RAAH PAR NAHEEN CHAL SAKTE(Kyonki EMI ka sawal hai)UNHEIN BHEE "VAICHARIK" ASTRA SE LAIS KAR RAHE HAIN.
Aaj to bahut hee zarooree hai yeh "Patrakarita ki Maryada" urf Vicks action 500.

vipin dev tyagi said...

बहुत अच्छा लिखा आपने..पेशे के प्रति ईमानदारी,निष्पक्षता एक पत्रकार में होनी चाहिये..रोजी-रोजी और लोन के चक्कर में आज रीढ़ की हड्डी गायब होती जा रही है..लेकिन अगर जिनके जिम्मे जो काम है.वो ना करे..तो जैदी जैसे किसी को तो जूता या बंदूक उठानी पड़ेगी..पत्रकारिता और राष्ट्रीयता को बेहतरीन तरीके से आपने समझाया..लेकिन पत्रकार होने के साथ-साथ जैदी इराकी नागरिक और एक इंसान भी हैं..खामोशी कभी तो...कहीं तो..किसी के गुस्से में फूटेगी ही

sushant jha said...

lajawab lekh..

Unknown said...

मेरा निजी मत ये है है कि दोनों घटनाओं में पत्रकार कि मर्यादा का उलंघन नही हुआ है. पहले तो ये कि पत्रकार कि मर्यादा या ये कह कीजिये कि निष्ठां किसके प्रति है: देश के प्रति? और ये देश क्या होता है? इसके समारक और इसके राजनेता? ना. देश का मतलब होता है उसके लोग. आज पूरी दुनिया में पाकिस्तानी होना एक अभिशाप से कम नही. अगर जो टीवी ने अपनी सरकार कि पोल खोल दी तो बोहोत अच्छा किया. कामरेड मुन्तजिर भी अपने लोगों कि भावनाओं को व्यक्त कर रहे थे. क्या एक रिपोर्ट छापकर पत्रकार वोही नही करता - भावनाओं को व्यक्त करना. कलम ना सही जूता ही सही. बढ़िया रिपोर्ट फाइल कि है. कम से कम मेरे लिए.

इरफ़ान said...
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इरफ़ान said...

Rahul ki baat samajh_ne ke liye is Link par jaa sakte hain
http://tooteehueebikhreehuee.blogspot.com/2008/04/blog-post_4033.html