Friday, July 24, 2009

गाता हुआ पहाड़



हम इंदौर शहर में नहीं, इंदौर घराने में हैं ...

उस्‍ताद अमीर ख़ां साहब के बारे में सोचते हुए मुझे और कुछ नहीं सूझता सिवाय इसके कि उन्‍हें एक गाता हुआ पहाड़ कहूं. मेरू पहाड़. आज उनके वक्‍़त से 35 बरस बाद टेप-कैसेट पर उनकी आवाज़ सुनकर हम बस अंदाज़ा ही लगा सकते हैं उन्‍हें सामने बैठकर सुनना कैसा लगता होगा.

इसी इंदौर शहर में उस्‍ताद अमीर ख़ां रहे थे. यहां हम आज भी उनके अंतिम राग के अंतिम षड्ज की अनुगूंज छूकर देख सकते हैं... हमारे लिए इंदौर एक शहर नहीं, एक घराना है.

मुझे नहीं मालूम उत्‍तरप्रदेश के कैराना और इंदौर के बीच की दूरी कितनी है. शायद सैकड़ों किलोमीटर होगी, लेकिन संगीत की सरहद में सांसें लेने वालों के लिए इन दो शहरों की दूरी तानपूरे के दो तारों जितनीभर है- षड्ज और पंचम-कुल जमा इतनी ही. जैसे स्‍पेस की छाती में अंकित दो वादी और सम्‍वादी सुर. कैराना गाँव में ही उस्‍ताद अब्‍दुल करीम ख़ां और उस्‍ताद अब्‍दुल वहीद ख़ां (बेहरे ख़ां) जन्‍मे और जवान हुए. उन्‍हीं के साथ परवान चढ़ा गायकी का वह अंदाज़, जिसे किराना घराने की गायकी कहा जाता है. कोमल स्‍वराघात और धीमी बढ़त वाला शरीफ़ ख्‍़याल गायन. इन दोनों उस्‍तादों के बाद इस घराने में सवाई गंधर्व, गंगूबाई हंगल, पं. भीमसेन जोशी, हीराबाई बड़ोदेकर जैसे गाने वाले हुए. उस्‍ताद अमीर ख़ां देवास वाले उस्‍ताद रज्‍जब अली ख़ां साहब की परंपरा से इंदौर घराने में आते हैं, लेकिन सच तो यह है किराना घराने वाले उन्‍हें अपना सगा मानते हैं. आप बात शुरू करें और कोई भी किराना घराने वाला कह देगा- ग़ौर से सुनिए, क्‍या गायकी की यह ख़रज और गढ़न हूबहू हमारे बेहरे ख़ां साहब जैसी नहीं है.

उस्‍ताद को पहले-पहल नौशाद साहब के मार्फत सुना था. बैजू बावरा में पलुस्‍कर के साथ. ये भी नौशाद साहब ही थे, जिन्‍होंने 'मुग़ले-आज़म' में उस्‍ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ां साहब से शायद दरबारी कानड़ा में) वो कमाल की चीज़ गवाई थी- 'प्रेम जोगन बन के'. लेकिन लड़कपन के उन दिनों में 'पक्‍का गाना' सुनने और समझने की कोई तासीर न रही थी. गो सुगम गाने और पक्‍के गाने के बीच में लकीरें खेंचना कोई वाजिब चीज़ फिर भी नहीं है (इसकी ताईद करने के लिए कुमार गंधर्व का लता मंगेशकर पर लिखा लेख पढ़ लेना काफ़ी होगा.), तब भी इतना तो है ही कि ये दोनों मौसिक़ी के दो अलग-अलग मौसम हैं. दो अलग-अलग मूड. सुगम में हल्‍के और पारदर्शी रंग हैं, पक्‍के गाने में ख़ूब गाढ़ापन है. जैसे वो दूध, तो ये खीर.

बचपन के बाद फिर बहुत से रोज़ गुज़र गए.

तक़रीबन तीन बरस पहले एक नितांत संयोग के तहत उस्‍ताद का एक ऑडियो टेप हाथ लगा. इसमें रिकॉर्ड था आध घंटे का राग यमन बड़ा और छोटा ख्‍़याल. आध घंटे से थोड़ा कम राग तोड़ी बड़ा और छोटा ख्‍़याल. और कोई दसेक मिनट का राग शाहना मध्‍यलय. आज मैं बयान नहीं कर सकता उस नादमय पाताली आवाज़ का उन दिनों मुझ पर क्‍या असर हुआ था. दर्जनों दफ़े ये ऑडियो मैंने सुना है. एक दौर ऐसा भी आया कि अमीर ख़ां का तोड़ी या सितार पर विलायत ख़ां का सांझ सरवली सुने बिना सूरज नहीं बुझता था. उसके बाद उस्‍ताद का मालकौंस, दरबारी और अभोगी कानड़ा ढूंढ-ढूंढकर सुने... कर्नाटकी संगीत वाला वही अभोगी कानड़ा, जिसे उस्‍ताद की आवाज़ में सुनकर पं. निखिल बनर्जी ठिठक गए थे और फिर छोड़ी हुई सभा में लौट आए थे, जैसे सितार की गत झाला से आलाप पर लौट रही हो.

जब हम हिंदुस्‍तानी शास्‍त्रीय संगीत के एस्‍थेटिक्‍स और उसके स्‍थापत्‍य की बात करते हैं तो ज़ाहिराना तौर पर हम यह भी साफ़ कर लेना चाहेंगे कि इस कला में ऐसी क्‍या ख़ूबी है जो दुनियाभर के बाशिंदों के कानों में यह सदियों से पिघला सोना ढालती रही है और इसके फ़न की सफ़ाई हासिल करने के लिए सैकड़ों उस्‍तादों ने अपनी पूरी की पूरी जिंदगी बिता दी है. दरअस्‍ल, अगर इस तरह कहा जा सके तो, हिंदुस्‍तानी शास्‍त्रीय संगीत उस आदिम संसार से उठकर आता है, जो कंठ की कंदराओं में बसता है और जहाँ आज भी अर्थध्‍वनियों की दख़ल नहीं हो सकी है. यह बात मैं यह जानने-बूझने के बावजूद कह रहा हूं कि भारतीय शास्‍त्रीय संगीत पूर्णत: पद्धति आधारित संरचना है और इसके हर चरण, हर मात्रा का मुक़म्‍मल हिसाब उस्‍तादों के पास हुआ करता है. तब भी- बाय टेम्‍परामेंट- मुझे ये एहसास है कि वो एक अछूती और अंधेरी खोह से आता है. वह अनहद का आलाप है. समूचे अस्तित्‍व के मंद्रसप्‍तक से उठता हुआ एक आलाप... जिस मंद्र में आलम के तमाम रास्‍ते रुके हुए हैं.

हिंदुस्‍तानी संगीत के दो हिस्‍से मेरे लिए हमेशा ही सबसे ज्‍़यादा रोमांचक रहे हैं और उस्‍ताद अमीर ख़ां की गायकी में ये दोनों हिस्‍से अपनी पूरी धज के साथ मौजूद रहते हैं. इनमें पहला है सम पर आमद और दूसरा है षड्ज पर विराम. मुझे सम पर हर आमद घर वापसी जैसी लगती है. लगता है दुनिया में केवल एक ही घर है और वो है सम. षड्ज के विराम को मैं निर्वाण से कम कुछ नहीं मान सकता. अंत के बाद फिर-फिर... जैसे दिया बुझ जाए और हम घुप्‍प निर्वात में अनुगूंज के वलय देखते रहें.

लेकिन सबसे बड़ी चीज़ है वह पुकार, वह आह्लाद, वह बेचैनी और वह अधूरापन, जो संगीत की बड़ी से बड़ी सभा के बाद पीछे छूट जाता है. न जाने क्‍यों, मैं यह मानने को मजबूर हूं कि महानतम कला वही है, जो हमें हमारे उस अपूर्ण आह्लाद पर स्‍थानांतरित कर दे. बोर्खेस के लफ़्ज़ों में 'साक्षात की तात्‍कालिक संभावना'... एक अजब-सी सुसाइडल और ट्रांसेंडेंटल शै, जो सदियों से इंसानी रूह को रूई की मानिंद धुनती रही है. मैं लिखकर बता नहीं सकता अमीर ख़ां के तोड़ी में 'काजो रे मोहम्‍मद शाह' पर पड़ने वाली पहली सम क्‍या बला है और मालकौंस के पुकारते हुए आलाप के हमारी जिंदगी और हमारे वजूद के लिए क्‍या मायने हैं.

उस्‍ताद अमीर ख़ां की शालीन और ज़हीन शख्सियत के कई किस्‍से हैं. और ये भी कि सालोंसाल रियाज़ करने के बाद पहली दफ़े जब वे सार्वजनिक रूप से गाना सुनाने आए, तो उन्‍हें शुरुआत में ही अज़ीम उस्‍ताद क़बूल लिया गया. लेकिन बंबई के भिंडी बाज़ार में उस्‍ताद अमान अली ख़ां साहब के घर की सीढियों पर खड़े होकर गाना सुनने-सीखने वाले अमीर ख़ां ने अपनी आवाज़ और अपने संगीत को किस तरह धीमे-धीमे ढाला, इसके अफ़साने ज्‍़यादा नहीं मिलेंगे क्‍योंकि उन्‍होंने इन्‍हें ज़ाहिर करने की कभी इजाज़त नहीं दी. अपने एक संस्‍मरण में अशोक वाजपेयी ने लिखा है कि वे हमेशा गुम-गुम से रहने वाले शख्‍़स थे. जब गाते थे, तब भी लगता था, कुछ सोचते हुए गा रहे हैं. चैनदारी के साथ. कुछ वही, जिसे फिराक़ ने 'सोचता हुआ बदन' लिखा है. लेकिन उसी शख्सियत का एक दूसरा पहलू ये भी है कि उज्‍जैन में पं. नृसिंहदास महंत के बाड़े में पंडितजी के बच्‍चों को अलसुबह चिडियों की आवाज़ निकालकर भी उन्‍होंने सुनाई थी- एक ख़ास पंचम स्‍वर में. पं. ललित महंत आज भी उस आवाज़ को पुलक के साथ याद करते हैं. उस्‍ताद ने ठुमरियां भी गाई हैं, लेकिन न कभी उसे मंच पर लेकर आए और न कभी उन्‍हें कैसेट में नुमायां होने दिया- वजह, ठुमरी गाने में सिद्धहस्‍त उस्‍ताद बड़े ख़ां साहब के होते हुए उनके सामने वे ठुमरियां पेश करना नहीं चाहते थे. उनका इलाक़ा ख्‍़याल का इलाक़ा था. उस्‍ताद की गाई हुईं दुर्लभ ठुमरियों के रिकॉर्ड इंदौर के गोस्‍वामी गोकुलोत्‍सवजी महाराज के पास अब भी सुरक्षित हैं.

उस्‍ताद को सुनते हुए मैं अक्‍सर सोचा करता था कि क्‍या इस शख्‍़स के सामने वक्‍़त जैसी कोई दीवार खड़ी है या नहीं. टाइम और स्‍पेस आदमियत के दु:ख के दो छोर हैं- ऐसा मैंने हमेशा माना है- और उस्‍ताद को सुनते हुए हमेशा मैंने हैरानी के साथ ये महसूस किया है कि ज़मानों और इलाक़ों के परे चले जाना क्‍या होता है... जहाँ मौत एक मामूली-सा मज़ाक़ बनकर रह जाती है. उस्‍ताद की भरावेदार आवाज़ ने कई स्‍तरों पर हमारी जिंदगी को एक कभी न ख़त्‍म होने वाली सभा बना दिया है.

और तब मैं एक फ़ंतासी में दाखि़ल हो जाता हूं, जहाँ झूमरा ताल की बेहद धीमी लय सरकती रहती है... तानपूरे की नदी 'सा' और 'पा' के अपने दोनों किनारे तोड़ रही होती है... लय द्रुत होती चली जाती है और मात्राएँ तबले से फिसलकर गिरने लगती हैं... सन् 74 का साल आता है और कलकत्‍ते के क़रीब एक मोटरकार दुर्घटनाग्रस्‍त होकर चकनाचूर हो जाती है... कार में से एक लहीम-शहीम मुर्दा देह ज़ब्‍त होती है, लेकिन बैकग्राउंड में बड़े ख्‍़याल की गायकी बंद नहीं होती...वह आवाज़ बुलंद से बुलंदतर होती चली जाती है और तमाम मर्सियों के कंधों पर चढ़कर गहरी-अंधेरी खोहों के भीतर सबसे ऊँचे पहाड़ झाँकते रहते हैं...गाते हुए पहाड़, धीरे-धीरे पिघलते-से... जैसे वजूद की बर्फ गल रही हो.

उस्‍ताद को याद करते ये शहर एक घराना है... उस्‍ताद को सुनते ये सुबह एक नींद.

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प्रस्तुत है उस्ताद का गाया राग रामदासी मल्हार:

Amir KHAN - Amir KHAN, Ramdasi Malhar
Found at bee mp3 search engine


और राग बहार 'द ग्रेट वॉइसेज़ ऑफ़ इन्डिया' अल्बम से:

19 comments:

विवेक रस्तोगी said...

बहुत अच्छी जानकारी मिली आपके इस चिट्ठे से और आपका चिट्ठा महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस विषय पर हम क्या हमारी बुजुर्ग और नई पीढ़ी कुछ भी नहीं जानते हैं।

Udan Tashtari said...

आभार इस आलेख द्वारा प्रद्द्त जानकारी के लिए.

दीपा पाठक said...

इतना खूबसूरत लेखन और साथ में संगीत की जानकारी देते शानदार पेंचोखम। आपके शब्दों में भी संगीत की सी लयात्मकता है।

आशुतोष उपाध्याय said...

ये शब्द नहीं बजते हुए स्वर हैं. आपने आज की सुबह को जैसे बैठक में तब्दील कर दिया. ऐतिहासिक लेख. कबाड़खाना समृद्ध हुआ. आपकी हाजिरी का इंतजार रहेगा.

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर ज्ञानवर्द्धक आलेख .. धन्‍यवाद !!

Rajesh Joshi said...
This comment has been removed by the author.
Rajesh Joshi said...

अजीब सी उलझन हुई. तीसरा पैराग्राफ़ पढ़ते हुए बेचैन हुआ जाता था कि लिखा किसने है. लेकिन नीचे पहुँच कर नाम देखूँ तो कैसे, कैसा तो गछा हुआ, मँझा हुआ लेखन है. और कैसी अद्भुत लेखकीय लयकारी. तीन पैराग्राफ़ और पढ़ गया तो और उलझ गया कि आख़िर लिखा किसने है. रुका नहीं गया. बिना पूरा आलेख पढ़े नाम जानने को उतावला हुआ और समझ में आया कि सुशोभित सक्तावत भाषा और संगीत, दोनों के ही संस्कार में रचे पगे हैं. वाह, क्या बात है.

rishi upadhyay said...

nishshabd hun!!!

rishi upadhyay said...

Nishshabd hun!!!

पारुल "पुखराज" said...

behtareen !

siddheshwar singh said...

सधा लेखन , बाँधने वाली प्रस्तुति !

ravindra vyas said...

सुंदरतम।

Ashok Pande said...

अब और क्या कहा जाए इतने शानदार गद्य के बारे में. भाई सुशोभित के आने से कबाड़खा़ने की समृद्धि हुई है. अभी कुछ दिन पहले उनका माइकेल जैक्सन पर इतना शानदार पीस लगा था और अब उस्ताद पर.

भीतर तक मन भीग गया.

हमें रवीन्द्र व्यास जी का भी आभारी होना चाहिये जिनकी वजह से सुशोभित यहां हैं.

शानदार पोस्ट है.

varsha said...

हमारे लिए इंदौर एक शहर नहीं, एक घराना है.

vah...

Priyankar said...

मन-प्राण को तृप्त और बेचैन एक साथ करने वाला लेखन . जीवन जैसा,संगीत जैसा .सहज भी और संश्लिष्ट भी . सरल भी और संवेष्टित भी . नाद से भरा और अनुतान से संवरा . आज कबाड़खाना सच में सुशोभित हो गया . डिठौना लगाइए .

आइए यूट्यूब पर उपलब्ध इस डॉक्यूमेंटरी के माध्यम से उस्ताद को थोड़ा और जानें/महसूस करें :

http://www.youtube.com/watch?v=lU_2JynptFU

http://www.youtube.com/watch?v=s-z8_oTu4T8

Ashok Pande said...

प्रियंकर जी ये क्या दिखवा दिया आपने ... !

ग़ज़ब. दुर्लभ! हमें कैसे पता लगता अगर आप न बताते!

आपका भी शुक्रिया. हुआ तो अमीर ख़ान साहेब पर किसी अगली पोस्ट में इन्हें एम्बेड कर दूंगा.

(पर्सनल क्वेरी: वो बड़े ख़ान साहेब के पोस्टर का क्या बना, सर?)

Priyankar said...

भारत के सर्वश्रेष्ठ कबाड़ी के लिए ऐसा एक नहीं,ऐसे कई पोस्टर सहेज कर रखे हैं . डाक से भेजने पर खराब हो जाएंगे . किसी के साथ भेजूंगा या फिर खुद लेकर हाज़िर होऊंगा .

संजय पटेल said...

कबाड़ख़ाना सुरीला कर दिया आपने सुशोभित भाई.दो बार ख़ाँ साहब को रूबरू सुना था उसकी चर्चा फ़िर कभी. एक वाक़या इस सुरीले पहाड़ का जितना बखान करो , शब्द कम पड़ जाते हैं.अपने विद्यार्थी काल में मेरे वालिद उसी मोहल्ले में रहे थे जहाँ उस्ताद अमीर ख़ाँ बसते थे.ख़ा साहब के जीजा सारंगीनवाज़ उस्ताद मुनीर ख़ाँ के मकान के पीछे पिताजी का कमरा था....(यू ट्यूब वाली रेकॉर्डिंग में भी मुनीर ख़ाँ ही नज़र आते हैं)ख़ैर इसी वजह से पिताजी का अमीर ख़ाँ साहब से भी राब्ता बना था. बहरहाल पिताजी ख़ुद बताते हैं (और यह ताकीद भी करते हैं कि सुनी सुनाई बात नहीं है;आँखन देखी है)कि उस्ताद तीन तीन दिन के लिये अपने घर शाहमीरे मंज़िल के एक कमरे में अपने को क़ैद कर लेते थे....एक राग पकड़ा है और लगे हैं उसे साधने ..उसकी तानों को तराशने.इन्दौर में अपने घर से सभागार के लिये गाने पैदल निकलते तो अकेले नहीं , चालीस पचास मुरीदों का जुलूस साथ चलता ...अब ये सब सुनना किसी कहानी सा लगता है.उन्हें याद करना भी उनकी आलापचारी में मगन हो जाने जैसा है सुशोभित भाई...रवीन्द्र भाई को इस आलेख को पढ़ने का इसरार करने के लिये शुक्रिया.

Dr.R.C.Mishra said...

AAP KI LEKHAN KALA LAAJWAB HAI.Man ko seedhe bandh leti hai.Ameer Khan saheb ki gayaki sada dheer gambheer aur bejod rahi hai.Film 'Mughal-E-Azam'mein UstadBade Ghulam Ali Khan ne raag Sohini mein 'Prem jogan..' aur raag Raageshwari mein 'Shubh din aayo..'gaya tha.(mishraraag.blogspot.com)