Tuesday, October 13, 2009

हमने क्यों ओढ़ रखी है अजनबियत से भरी जमी हुई मुस्कान ?


अन्ना अख़्मातोवा (जून ११, १८८९ - मार्च ५, १९६६) की कवितायें अप 'कबाड़ख़ाना' पर एकाधिक बार पढ़ चुके हैं और उन्हें पसन्द भी किया गया है , ऐसा भान है। तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद कविता के लिए जगह बची है और सदैव बनी रहेगी. हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में तरह - तरह की कवितायें आ रही हैं, इसमें हिन्दीतर और खासकर वैश्विक कविता का भी एक बड़ा हिस्सा सामने आ रहा है. इस सिलसिले में 'कबाड़ख़ाना' की कोशिश संभवत: अथाह - अतल समुद्र में विलीन हो जाने को आतुर एक बूँद के बराबर हो सकती है लेकिन यह कोशिश जारी रहे तो बुरा क्या है! इस बीच अनुवाद के जारी क्रम में अन्ना की कविताओं से बार - बार गुजरते हुए अक्सर यह ( यह भी ) लगता रहा है कि छोटी - छोटी चीजें कैसे एक कवि के संवेदन जगत का अंग बनकर स्वयं बड़ी व कालातीत बन जाती हैं. अच्छा हो कि कवितायें खुद बोलें , कवि को जो कहना था कह गया है और पाठकों के हिस्से में गुनना - बुनना- सुनना - समझना रह गया है ,सो अनुवादक कुछ न ही बोले तो ठीक है. तो लीजिए प्रस्तुत हैं अन्ना अख़्मातोवा की दो कवितायें -

गर बीमार पड़ो तो हो जाना चाहिए नीमपागल

गर बीमार पड़ो तो हो जाना चाहिए नीमपागल
और करनी चाहिए सबसे फिर से मुलाकात.
हवा और धूप से भरपूर
सागर तट की बगीची की चौड़ी पगडंडियों पर
करनी चाहिए बेमकसद घुमक्कड़ी।
आज के दिन
मृतात्मायें भी आने को हैं सहर्ष तैयार
और मेरे घर वास करना चाहता है निर्वासन भी.
किसी खोए बच्चे की उंगली थाम
इधर - उधर डोलने का मन कर रहा है आज के दिन.

मृत मनुष्यों के साथ चखूँगी मैं नीले द्राक्ष
पीऊँगी बर्फानी शराब.
और अपने कड़ियल बिस्तरे पर
गिर रहे जलप्रपात को
निहारती रहूँगी खूब देर तलक.

जब आप पिए हुए हों, खूब होती है मौज

तयशुदा समय से थोड़ा पहले
आ पहुँचा है पतझड़
पीले परचमों के साथ शोभायमान हैं एल्म के पेड़.
वंचनाओं की जमीन पर बिखर गए हैं हम
पछतावे में उभ - चुभ करते
और तिक्तता से लबरेज.

हमने क्यों ओढ़ रखी है
अजनबियत से भरी जमी हुई मुस्कान ?
और शान्तचित्त प्रसन्नता के बदले
चाह रहे हैं बेधक संताप....

मैंने खुद को त्याग नहीं दिया है साथी !
अब मैं हूँ व्यसनी और सौम्य
जानते हो साथी !
जब आप पिए हुए हों, खूब होती है मौज !

( अन्ना अख़्मातोवा की विस्तृत जीवनकथा से कुछ अंश शीघ्र ही आप यहाँ देख सकेंगे.अन्ना का पोर्ट्रेट: निकोलाइ यर्सा , १९२८ )

5 comments:

शरद कोकास said...

अन्ना अख़्मातोवा की दोनो कवितायें बेहतरीन है । जीने का यह अन्दाज़ है कि बीमार होना भी सुखकर लगता है औए पीने के बाद सौम्यता आती है । यकीनन यह ओढ़ा हुआ दुख नही है , सुख तो कदापि नही ं

डॉ .अनुराग said...

मने क्यों ओढ़ रखी है
अजनबियत से भरी जमी हुई मुस्कान ?
और शान्तचित्त प्रसन्नता के बदले
चाह रहे हैं बेधक संताप....

मैंने खुद को त्याग नहीं दिया है साथी !
अब मैं हूँ व्यसनी और सौम्य
जानते हो साथी !
जब आप पिए हुए हों, खूब होती है मौज !





well said.....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

अन्ना अख़्मातोवा की कविताएँ सार गर्भित है।
धनतेरस, दीपावली और भइया-दूज पर आपको ढेरों शुभकामनाएँ!

प्रदीप जिलवाने said...

उम्‍दा कविताएं, अच्‍छा अनुवाद. बधाई
- प्रदीप जिलवाने, खरगोन म.प्र.

Himalayi Dharohar said...

सार्थक लेखन हेतु बधाई ......