Thursday, January 14, 2010

साल २०१०: हिंसा के विरुद्ध जनता और बुद्धिजीवियों की व्यापक एकजुटता हो- आलोक धन्वा


मौजूदा श्रृंखला में अब तक ज्यादातर साहित्यकारों ने अपनी राय संक्षिप्त रूप में दी है लेकिन आज जब हिन्दी के वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा से बात हुई तो उन्होंने हमें वस्तुस्थिति को विस्तार में समझाना उचित समझा. सो आज सिर्फ और सिर्फ आलोक धन्वा-- विजयशंकर

मैं यह चाहता हूँ कि राष्ट्र की जो धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतें हैं वे साम्राज्यवाद के विरुद्ध एकजुट हों. जितने भी वामपंथी संगठन हैं उनको भी इस मोर्चे में शामिल होना चाहिए. उन्हंं आपसी मतभेद स्थगित करके अपना एक व्यापक संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए क्योंकि राष्ट्र के सामने साम्प्रदायिक ताकतें आतंकवाद और दूसरी कई शक्लों में हमारी राष्ट्रीय एकता को तहस-नहस कर रही हैं. हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता, हमारी धर्मंनिरपेक्ष साझा-संस्कृति और हमारी लोकतांत्रिक उपलब्धियां ; आज सब भयावह चुनौतियों और ख़तरों से घिरी हैं. भारत को फिर से साम्राज्यवाद का नया उपनिवेश बनाने की साजिश रची जा रही है.


राजनीति और संस्कृति, दोनों क्षेत्रों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने नए बाज़ार तैयार कर रही हैं...अब भारत का पूंजीपति वर्ग भी उस राष्ट्रीय चरित्र से वंचित हो रहा है जो भारत के स्वाधीनता संग्राम में महात्मा गांधी के नेतृत्व में उसने हासिल किया था. हमारा भारतीय समाज बाहर के हमलों की अपेक्षा अन्दर के हमलों से बहुत ज्यादा टूट रहा है. अलगाववाद की सुनियोजित साजिशें हमारे संघीय स्वरूप के ताने-बाने को नष्ट कर रही हैं.

हमारा सांस्कृतिक परिदृश्य भी संतोषजनक नहीं है. इस क्षेत्र में भी रचना विरोधी घात-प्रतिघात का माहौल विभिन्न माध्यमों के जरिये बनाया जा रहा है. हमारी जो प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाएं हैं उनमें भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हस्तक्षेप शुरू हो चुका है. इसका सबसे ताज़ा उदाहरण साहित्य अकादमी के भीतर घुसपैठ करके सैमसंग कंपनी के द्वारा 'रवीन्द्रनाथ ठाकुर पुरस्कार' दिए जाने की घोषणा है.

इस सबके बावजूद जनता के सुख-दुःख के लिए सार्थक लेखन करने वाले साहित्यकारों की भी हमारे देश में कमी नहीं है. यह देखना सुखद है कि भारत के बेहद संकटपूर्ण माहौल में बहुमत जनता अपनी स्वाभाविक मानवीय सृजन-शक्ति के साथ सक्रिय है. नए वर्ष के लिए मेरी शुभकामनाएं हैं, साथ ही मैं यह चाहता हूँ कि आधुनिक भारत का जो गौरवशाली और संघर्षमय अतीत रहा है, हम उससे हमेशा प्रेरित होते रहें.

बीसवीं सदी एक महान सदी थी. देश और विदेश दोनों जगहों पर आज़ादी की बड़ी लड़ाइयां लड़ी गयीं. कई देशों ने उपनिवेशवाद से मुक्ति हासिल की जिनमें भारत भी शामिल है. फ़ासीवादी विरोधी युद्ध में विश्व भर की शांतिप्रिय और लोकतांत्रिक ताकतों ने मानवीय उत्कर्ष के नए महाकाव्य रचे.


बीसवीं सदी में एक ऐसी घटना घटी जो मानव इतिहास में कभी नहीं घटी थी. रूस में पहली बार मजदूरों और किसानों ने अपनी सत्ता कायम की जिसका प्रभाव पूरी दुनिया के लोकतंत्र पर पड़ा. बीसवीं सदी वैज्ञानिक विचारधाराओं की सदी थी. यह वही सदी थी जिसमें एक ओर लेनिन काम कर रहे थे तो दूसरी ओर महात्मा गांधी भी सक्रिय थे...एक ओर वर्टरैंड रसेल जैसे बड़े मानवतावादी दार्शनिक थे वहीं मैक्जिम गोर्की जैसे मजदूरों के बीच से आनेवाले लेखक थे. यह सदी नाज़िम हिकमत, पाब्लो नेरूदा, बर्तोल्त ब्रेख्त की सदी थी...साथ ही वह हमारे स्वाधीन भारत के सबसे बड़े सांस्कृतिक नेता प्रेमचंद और महाकवि निराला की भी सदी थी. हमारे स्वाधीन भारत की जो ज्ञान-संपदा है उसे जितना भारतीय बुद्धिजीवियों ने समृद्ध किया उतना ही विश्व के दूसरे बुद्धिजीवियों ने भी समृद्ध किया.


ज्ञान एक विश्वजनीन प्रक्रिया है, उसमें देशी-विदेशी का विभाजन छद्म है. अल्बेयर कामू, फ्रेंज़ काफ़्का और ज्यां पॉल सार्त्र जैसे बड़े लेखकों ने पूंजीवादी चिंतन प्रणाली को और उसकी सत्ता के तमाम अदृश्य यातना-गृहों को न सिर्फ उजागर किया बल्कि पूंजीवादी सत्ता को कटघरे में खड़ा करके उससे लगातार जिरह की. इससे लोकतंत्र के नए पाठ सामने आये.

बीसवीं सदी में हमारे देश में जहां राहुल सांकृत्यायन, रामचंद्र शुक्ल, फैज़ अहमद फैज़, फ़िराक गोरखपुरी, मक़दूम, रामविलास शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, नामवर सिंह जैसे बड़े साहित्य चिन्तक सक्रिय थे वहीं बांग्ला में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शरतचंद्र, काज़ी नज़रुल इस्लाम, विभूतिभूषण बन्दोपाध्याय, माणिक बंदोपाध्याय, जीवनानंद दास, सुभाष मुखोपाध्याय, सुकांत भट्टाचार्य जैसी विभूतियाँ सक्रिय थीं. इसी तरह पश्चिम और दक्षिण भारत में भी बड़े चिन्तक जनता के बीच काम कर रहे थे.

यहाँ नाम गिनाना मेरा उद्देश्य नहीं है बल्कि दरअसल मैं बीसवीं सदी के उस महान कारवां की मात्र कुछ झांकियां प्रस्तुत कर रहा हूँ क्योंकि आज हमारे बीच देश और विदेश दोनों जगहों पर ऐसे बुद्धिजीवी मंच पर सामने आ रहे हैं जो फिर से मध्ययुग के अर्द्धबर्बर समाज को कायम करना चाहते हैं. बाबरी मस्जिद के ध्वंस और गुजरात का भयावह नरसंहार, कश्मीर और पंजाब में हजारों निर्दोष लोकतांत्रिक नागरिकों का क़त्लेआम, ईराक़ और अफगानिस्तान पर निरंतर हमले...ये सारी घटनाएँ उसी मध्ययुगीन अर्द्धबर्बर सोच को सामने रखती हैं. यह एक ऐसा भयानक समय है जहां ज्ञान से पलायन की प्रवृत्ति बढ़ रही है.

ओसामा बिन लादेन और हमारे हिन्दू तालिबान लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी, मुरली मनोहर जोशी, अशोक सिंघल, प्रवीण तोगड़िया, आरएसएस के मोहन भागवत, इनके बीच कोई बुनियादी फर्क़ नहीं है. ये न हिन्दू हैं न मुसलमान, बल्कि ये उसी मध्ययुगीन अर्द्धबर्बर सोच के कारिंदे हैं.

कोसी की बाढ़ से विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिए जब मेधा पाटकर पटना आयीं तो एक पत्रकार वार्ता में पिछले वर्ष मैंने कहा कि जिसको प्राकृतिक आपदा कहते हैं दरअसल वह मानव-निर्मित आपदा है और पर्यावरण का मुद्दा भी लोकतंत्र का ही मुद्दा है. जो ताकतें नैसर्गिक सुषमा और प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर रही हैं वही ताकतें प्रेमचंद के देश में हज़ारों किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर रही हैं.

आज शिक्षण संस्थाओं में भी एक ऐसी प्रतियोगिता जारी है जहां हमारे प्रतिभाशाली नौजवानों में लगातार भय, आत्महीनता और आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. हमारी शिक्षा-प्रणाली का उद्देश्य एक ज्यादा मानवीय और संवेदनशील मानव समाज बनाना नहीं बल्कि नए बाज़ार के लिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा मुहैया कराना हो गया है. तो क्या २१ वीं सदी की शुरुआत आत्महत्याओं की सदी की शुरुआत है?

मैंने मेधा पाटकर से यह बात भी कही थी कि पर्यावरण के मुद्दे को पूरे समाज के दूसरे मुद्दों से जोड़कर देखा जाना चाहिए जो कि वैज्ञानिक सोच का एक नैतिक आधार है. जो आज हमारे जंगलों को काट रहा है वही आदिवासियों को भी ख़त्म करना चाह रहा है. शत्रुता, भय और हिंसा से आक्रान्त ऐसा सामाजिक परिदृश्य आधुनिक मानव सभ्यता में जल्दी दिखाई नहीं देता जहां सत्य और न्याय के लिए प्रतिरोध करनेवाली ताक़तें भी विसर्जन का शिकार होती जा रही हैं.

चूंकि मैं एक कवि हूँ इसलिए मैं अपने कवि भाइयों से, साथियों से यह विनम्र आग्रह करना चाहता हूँ कि हमारे बीच जो विरासत आचार्य शिवपूजन सहाय, यशपाल, रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, रांगेय राघव, परसाई, भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा, रेणु, धूमिल, श्रीलाल शुक्ल,राजकमल चौधरी,विजयदान देथा, अमरकांत, मोहन राकेश, मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह,मलय, सोमदत्त, ज्ञानरंजन, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, ऋतुराज, विजेंद्र, कुमार विकल, नरेश सक्सेना, देवताले जैसे कई बड़े साहित्यकारों ने हमें सौंपी है, हम उसे कैसे आगे बढ़ायें...उसके प्रति अपना दायित्व-बोध कैसे निभाएं.

हमारे साथ भी जो लोग लिख रहे हैं वे कम प्रतिभाशाली नहीं हैं. अब हमारे बाद दो पीढ़ियाँ आ चुकी है कवियों की...उनसे भी मैं बेहद प्रभावित हूँ.

इस नए वर्ष में मेरी अपेक्षा यह रहेगी कि हम न्याय के पक्ष में ज्यादा से ज्यादा काम करें...हर तरह की हिंसा के विरुद्ध सार्थक संवाद शुरू करें...लोकतंत्र और समाजवाद की बेहद जटिल चुनौतियों से जूझने की, सृजन करने की दिशा में सक्रिय हों.

मुझे याद आता है कि २००७ में जब हम लोगों ने पटना में शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जन्म शताब्दी के लिए समारोह समिति तैयार की उस मोर्चे में ४० से ज्यादा धर्मंनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक जन-संगठन शामिल थे. जब हमने शुरुआत की तो हमें यह पता नहीं था कि भगत सिंह जन्म शताब्दी के समारोहों में वर्ष भर तक जनता की इतनी व्यापक हिस्सेदारी होगी. भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफाक उल्ला खान, रामप्रसाद बिस्मिल, जैसे हमारे महान शहीद देश भक्तों की लोकप्रियता निरंतर बढ़ती चली गयी. मेरे लिए यह एक ऐसा अनुभव था जिससे मैं बेहद अभिभूत हुआ. यह भारतीय समाज के जीवंत और कृतज्ञ होने का एक उज्जवल उदाहरण था.

इन समारोहों ने यह जाहिर किया कि स्वाधीनता की चेतना को ख़त्म नहीं किया जा सकता. मनुष्य स्वाधीनता के पथ पर अपने सतत संघर्ष से जितनी यात्रा कर चुका है वहां से वह पीछे नहीं जाएगा. वह आगे ही जाएगा.धन्यवाद!

14 comments:

आशुतोष पार्थेश्वर said...

आलोक धन्वा को देख कर और पढ़ कर कई चीजें याद आ गयीं, बहुत मुमकिन है कि यह गैर मुनासिब चर्चा लगे, मुझे ३१ जुलाई २००४ की याद आ रही है, आलोक धन्वा पटना कॉलेज में प्रेमचंद जयंती पर बोल रहे थे, देश में कांग्रेस को शासन में आये अधिक दिन नहीं हुए थे, आलोक जी ने बहुत जोर देकर अपने ही अंदाज में कहा था, मुझे उनके शब्द पूरी तरह याद हैं.....पिछले दिनों एक अच्छी बात हुई है केंद्र से एक इन्हुमन, insensitive सरकार गयी है और एक अच्छी सरकार आई है, आलोक जी मजबूरियां क्या थीं, कहना मुश्किल है, या वे कांग्रेस के चल चरित्र से अनजान थे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है, अब ऐसी चर्चाएँ गप्प से अधिक नहीं जान पड़तीं, अपनी सुविधाओं से और अपनी इच्छाओं से समर्थन और विरोध, अमेरिका का विरोध ! और बोतल बंद विदेशी कम्पनी का पानी पीते एक बार नहीं कई बार आलोक जी को देखा है, इसे आप व्यक्तिगत टिप्पणी न समझें , पर क्या यह जरूरी नहीं है कि हम व्यक्तिगत जीवन में भी वही रहें, आलोक जी से उनकी कविता न जाने कब कि छूट गयी है, उनकी कविता मान जाएगी ,इसकी शुभकामनायें,

Ek ziddi dhun said...

Alok Ji ki chintayen aur nirasha aur ummeed is samy ke har sachhe buddheejeevi ya kahen har sachhe nagrik ka pratinidhitv kartee hain.
...unkee awaaj goonj rahee hai mastishk men ki wo kaise apko phone par bol rahe honge. unkee jaduii awaaj men unki kavita bhi paste kee jaaye to behtar ho

कामता प्रसाद said...

بات کْچھ حزم نھی حْاِیـ
बात कुछ हजम नहीं हुई। चिर-परिचित और रटी हुई बकवास। लगता है कि आलोक धन्‍वा और विजयशंकर दोनों सामाजिक जनवादियों की सोहबत-संगत में खूब रहे हैं। आज के समय में साम्राज्‍यवाद के विरुद्ध जनता को गोलबंद करने के लिए जरूरी शर्त है सिरे को वहां से पकड़ा जाये जहां पर माओ-लेनिन छोड़कर गये थे। फ्री थिकिंग का मंच नहीं है कबाड़खाना।
संसद की चौहद्दी के भीतर समस्‍या नहीं हल होने वाली- थोड़ा मार्क्‍सवाद की मूल किताबों को पढ़ो भाई।

neeraj pasvan said...

आलोक धन्वा जी ने हिंदी के महान लेखकों की सूची गिनाई है उसमें एक भी महिला महान बनती हुई नहीं दिखी. महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर उषा प्रियंवदा और कात्यायिनी तक. लगता है पुरुष ही महान हुआ करते हैं. फिर अगर विजय शंकर चतुर्वेदी पोस्ट लिखेंगे तो स्त्री के बारे में सोच भी कौन सकता है? आप लोग महान बनाने का कारखाना चलाते रहिए और बोतल बंद द्रव सरकारी खर्चे पर पीते रहिए. ज़िंदाबाद!

अमिताभ श्रीवास्तव said...

jab bhi koi apne vichaar rakhataa he, yah jaroori nahi hotaa ki usake vichaar hu ba hu svikaar kar liye jaaye.alok dhnva-vijayshankar ke vichaar bhi isi tarah ke he...kabhi to ekdam svikaary pratit hote lage.to kabhi asvikaary.., yahi hotaa chintan me bhi. khaaskar budhdhijiviyo ke chintan me. isliye chahe vo kamata prasad ji ho yaa amitabh yaani me, apne apne vichaar aour apni apni soch se alag alag tarike se aalekh ko padhhte he, kuchh arth nikalte he, yaa kisi parinaam ke sandarbh me dimaag doudate he./
ham jo MAAN beithte he, us par hi chalne lagate he yaa uske prati dusra kuchh sochne ki himaqat nahi karte..chahe vo aalokji ho yaa koi bhi..
yahi vajah he ki ham kisi nek parinaam tak nahi pahuch paate.

Ashok Kumar pandey said...

बात पर गौर किये बिना व्यक्ति पर हमले करना समकालीन परिदृष्य की लाक्षणिकता बन गयी है।

वैसे कबाड़खाना फ़्री थिंकिंग का ही मंच है। मुझे नहीं याद कि कहीं किसी लाईन से प्रतिबद्धता ज़ाहिर करने की बात की गयी है।

आलोक जी को उनकी उस ज़माने की लिखी कविता के लिये सब जानते हैं और जिलाधीश को ''व्यवस्था विरोधी नही है'' साबित करने वाले वर्तमान के लिये भी। यह अंतर्विरोध ही शायद उन्हें कविता रचने नहीं दे रहा।

यह फिर भी उन नक़ली परजीवी क्रांतिकारी कवि/कवित्रियों से ज़्यादा बेहतर है जो क्रांति के नाम पर प्रकाशन की दूकान लगाकर नक़ली कवितायें लिखे जा रहे हैं। कम से कम हम उनके दोनों चेहरे पहचानते तो हैं।

इस आलेख में भी उनका द्वंद्व साफ़ झलक रहा है और द्वंद्व इमानदार लोगों में ही होता है। यह मानने की भरपूर वज़हें हैं कि आलोक जी की सारी संभावनायें अभी ख़त्म नहीं हुई हैं।

Ashok Pande said...

आलोक धन्वा की कविताएं व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए आज भी बेशकीमती हैं. ख़ुद वे भी. लम्बे समय से बीमार हैं और बेसहारा भी. उनके नज़दीक रहने वाले जानते हैं मानवीयता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता असंदिग्ध है. रहा सवाल राजनैतिक प्रतिबद्धता का तो सत्तर के दशक के ज़माने को याद कीजिये.

छोड़िये! भाई अशोक कुमार पाण्डेय मेरी बात एक हद तक कह चुके हैं.

विजयशंकर चतुर्वेदी पर नीरज पासवान जी की टिप्पणी पर मैं घनघोर आपत्ति जताता हूं.

Ashok Pande said...

और हां फ़्री थिंकर्स वाली बात मनोरंजक है.

Ashok Pande said...

मेरा प्यारा बुढ़ऊ ये भी तो कह रहा है ना

... मैं यह चाहता हूँ कि राष्ट्र की जो धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतें हैं वे साम्राज्यवाद के विरुद्ध एकजुट हों. जितने भी वामपंथी संगठन हैं उनको भी इस मोर्चे में शामिल होना चाहिए. उन्हं आपसी मतभेद स्थगित करके अपना एक व्यापक संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए क्योंकि राष्ट्र के सामने साम्प्रदायिक ताकतें आतंकवाद और दूसरी कई शक्लों में हमारी राष्ट्रीय एकता को तहस-नहस कर रही हैं. हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता, हमारी धर्मंनिरपेक्ष साझा-संस्कृति और हमारी लोकतांत्रिक उपलब्धियां ; आज सब भयावह चुनौतियों और ख़तरों से घिरी हैं. भारत को फिर से साम्राज्यवाद का नया उपनिवेश बनाने की साजिश रची जा रही है.

... ना जी पाजी है!

ना वो हिन्दी वाला नईं!

पंज्जाबी दा, पैं!

Ashok Pande said...
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Ashok Pande said...
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Ashok Pande said...
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प्रीतीश बारहठ said...

अरे बहुत से कमेन्ट डिलीट हो गये।

जो भी होता है अच्छा ही होता है..

मेरा विजय शंकर जी से अनुरोध है कि वे सीरीज जारी रखें। मेरे जैसे नौसुखिए बहुत हैं जो कबाड़खाना को बहुत उम्मीद से पढ़ते हैं, हम किसी को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते हैं कौन क्या करता है, करता रहा है, किस बोतल का पानी पीता है, या .......या....

हम केवल यहाँ लिखे से ही लाभ प्राप्त करते हैं।

हमारी खातिर.... प्लीज..

हाँ एक दोहा, वामपंथी, दामपंथी, सामपंथी, पुरापंथी, पौंगापंथी, दलीय, दलदलीय और निर्दलीय
सभी के लिये

बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय
जो मन देखा आपना मुझसे बुरा न कोय

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

नीरज पासवान जी से मेरा कोई व्यक्तिगत विरोध नहीं है लेकिन वह भूल गए कि इस चर्चा में माननीया सुधा अरोड़ा, डॉक्टर सूर्यबाला और प्रत्यक्षा सिन्हा भी शामिल हैं. क्या उनकी नजर में ये सम्मानित महिलायें नहीं हैं! ... और मेरे अपने सीमित संपर्क भी इसकी एक वजह हैं. शुरू की कड़ी में ही मैंने आग्रह किया था कि जितना संभव हो साहित्यकार शामिल हों और ई-मेल भी दिया था एक टिप्पणी में. रही बात आलोक धन्वा की, तो उन्होंने यह कहीं नहीं कहा कि यह कोई इतिहास लेखन है और पूरी सूची है. फोन पर बातचीत में जो नाम याद आते गए उन्होंने गिना दिए.

नीरज पासवान जी का कोई दोष नहीं है. वह मेरी बना दी गयी छवि के आधार पर टिप्पणी कर रहे हैं. मेरी कवितायें और दीगर लेखन पढ़ने की जहमत वह नहीं उठाएंगे. इसे ही पूर्वग्रह और दुराग्रह कहा जाता है:)