Wednesday, August 4, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा: आगे का हिस्सा 3

ए आई एफ़ सी कक्षाओं का संचालन

जनवरी १९४८ में ऑफ़िसर-इन-चार्ज श्री शौरी के निर्देशन में ए आई एफ़ सी की १९४७-४९ कक्षा का प्रशिक्षण दौरा चल रहा था. वे लोग भवाली की मिलिट्री बैरकों में कैम्प किये हुए थे. मुझे चारकोल बर्निंग पर उन्हें प्रशिक्षण देने को कहा गया. नदी की धारा के बगल में स्थित होने के कारण मिलिट्री की बैरकें पाले से अटी रहती थीं. सारा इलाका जंगल से ढंका हुआ था और चारों तरफ़ सफ़ेदी नज़र आती थी. जब दोनों प्रशिक्षक कैम्प पहुंचे तो जब श्री शौरी ने पाया कि कुछ प्रशिक्षणार्थियों ने ऊन या चमड़े के दस्ताने पहने और थे सिर और गले भी ढंक रखे थे तो वे बहुत तेज़ आवाज़ में चिल्लाए: "इसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता! फ़ॉरेस्ट ट्रेनिंग अफ़सरों ने दस्ताने वगैरह पहने हुए हैं! उतारिये इन्हें!" अगले दिन मैं उन्हें नज़दीकी चीड़ के जंगल तक ले गया जहां मैंने उन्हें लीसा निकालने का तरीका बताने के साथ साथ कुमाऊं के लीसा उद्योग के इतिहास पर एक भाषण भी दिया. तीसरे दिन हम लोग नैनीताल और उसके आसपास के इलाके के भ्रमण के लिए गए. मुझे यह सब अच्छा लग रहा था क्योंकि बिना प्रशिक्षण के सिर्फ़ सवा साल की नौकरी के बाद भी मैं यह सब कर पा रहा था. इसके अलावा मेरा उठना बैठना बेहतर और स्तरीय लोगों के साथ हो रहा था. बाद के वर्शों में इन में से तीन प्रशिक्षणार्थियों के मातहत मुझे काम करने का अवसर मिला. ये थे श्री पी.सी.चटर्जी और श्री डी.सी.पाण्डे मेरे डी एफ़ ओ रहे थेजबकि श्री सी.एल.भाटिया चीफ़ कन्ज़रवेटर ऑफ़ फ़ॉरेस्ट, उ.प्र.

आग का मौसम - १९४८

यह साल मेरे लिए अविस्मरणीय था क्योंकि अप्रैल से जून के बीच मुझे चीड़ के इलाके में कुल अट्ठाइस वनाग्नियों से जूझना पड़ा. होता यह था कि जब तक हमारा स्टाफ़ गांव वालों की मदद से एक आग को बुझाता सामने की पहाड़ी पर दूसरी आग जलनी शुरू हो जाया करती. उस तरफ़ दौड़ पड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता था. कुछ घन्टों के बाद उसी पहाड़ी के किसी और हिस्से में आग की खबर मिलती. इस काम को करने के लिए काफ़ी तेज़ तेज़ पैदल चढ़ना और उतरना पड़ता था. कई बार स्टाफ़ को हकधारी ग्रामीणों के आने का इन्तज़ार करना पड़ता. समय की कमी के कारण ऊपरी हिस्सों में खासी आग लग जाया करती थी. अग्निशमन के इस काम में दिन-रात कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी.

चीफ़ कन्ज़रवेटर ऑफ़ फ़ॉरेस्ट और कन्ज़रवेटर ऑफ़ फ़ॉरेस्ट का अग्निपीड़ित स्थलों का दौरा

मई के महीने के मध्य में मुझे सूचना मिली कि पाइन्स-भवाली पैदल मार्ग पर चीड़ के जंगलों में आग लग गई है. एक स्थानीय फ़ॉरेस्ट गार्ड, बाकी स्टाफ़ और दो फ़ायर-वाचर्स के साथ मैं तुरन्त निकल पड़ा. वहां पहुचने में हमें एक घन्टा लग गया होगा. ऊपर की तरफ़ बढ़ रही आग तब तक रास्ते को पार कर लड़ियाकांटा रिज की तरफ़ बढ़ रही थी.

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

दावानलों में तपा जीवन।