Thursday, August 5, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा: आगे का हिस्सा 4


आग अभी बसासत से दूर थी. उस से निबटने को मेरे साथ केवल छः लोग थे और हम भवाली सैनेटोरियम से लगे जंगल को बचाने के प्रयास में जुटे हुए थे. जलते हुए लठ्ठों और चिंगारियों के कारण आग से जुझना मुश्किल हो रहा था. चूंकि हम रात का भोजन खाए बिना ही आ गए थे, हमने अपने साथ के दो लोगों को नज़दीक के गांव से कुछ खाना-पानी लेकर आने को कहा. सारे सद्प्रयासों के बावजूद हम सिर्फ़ इतना कर पा रहे थे कि दर्शक बने रहते हुए जलते हुए लकड़ी के टुकड़ों को सड़क पर आने से रोक रहे थे. सम्भवतः हम ने बारी बारी कुछ देर को नींद भी निकाली. इस समूचे मसले का दुखद पहलू यह था कि उन दिनों हमारे रेन्ज अफ़सर महोदय कैज़ुअल लीव पर गए हुए थे.

अगली सुबह चन्द और ग्रामीणों की मदद से हमने एक सूखे नाले से सटे बांज के जंगल में लगी आग को बुझाने का काम शुरू किया. इसके अलावा हम इस बात की निगरानी भी कर रहे थे कि चिंगारियां सुरक्षित इलाके को नुकसान न पहुंचा सकें. यह कार्य शाम तक चलता रहा. हम सब बेतरह थक चुके थे. उस रात हम एक नज़दीकी गांव में रहे जहां हमें अपनी नींद पूरी कर पाने का समय मिल सका. तीसरी सुबह मैंने देखा कि आग पर तकरीबन काबू पाया जा चुका था. इलाके की निगरानी करते हुए मैंने पहाड़ी से नीचे उतरते एक सन्देशवाहक को देखा. उसने पास आकर मुझे बताया कि उत्तर प्रदेश के चीफ़ कन्ज़रवेटर श्री एम. डी. चतुर्वेदी और कुमाऊं के कन्ज़रवेटर श्री जे. स्टीफ़ेन्स भवाली सैनेटोरियम कैम्पस के नज़दीक एक रिज पर मौजूद थे और मैंने तुरन्त उन्हें रिपोर्ट करना था. चूंकि मेरे तात्कालिक उच्चाधिकारी अनुपस्थित थे, मेरे कार्य की किसी भी कमी के लिए मुझे बचाने वाला कोई न था. ऊपर चढ़ते हुए मैंने अनुमान लगाया कि सम्भवतः भयभीत होकर भवाली सैनेटोरियम के सुपरिन्टेन्डैन्ट ने आला अफ़सरान को सूचित कर दिया होगा.

चूंकि उन दिनों नैनीताल राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी, हमारे विभाग के उच्चाधिकारियों से मामले को गम्भीरता से देखने को कहा गया होगा. ढाई दिनों तक आग से लड़ते हुए मेरा चेहरा काला पड़ा हुआ होगा और मेरे बालों और कपड़ों की दुर्गति अलग. मुझे ठीकठीक याद नहीं मुझसे क्या पूछा गया और मैंने क्या जवाब दिए. चूंकि उच्चाधिकारियों के सामने मैं आदतन मुखर रहा करता था मैंने ढाई दिन तक की मशक्कत और तनाव को लेकर काफ़ी कुछ कहा होगा. बाद में मुझे पता चला कि हमारे रेन्ज अफ़सर से अनुपस्थित होने के बाबत स्पष्टीकरण मांगा गया क्योंकि कैज़ुअल लीव को हमेशा ऑन-ड्यूटी माना जाता था. चीफ़ कन्ज़रवेटर ने लिखित में कहा कि उनका सामना एक बेवकूफ़ अफ़सर यानी मुझसे हुआ था.

जून के तीसरे हफ़्ते में मानसून से पहले की बारिश की मुझे आज तक याद है. हम उस दिन भी आग बुझाने में लगे हुए थे. बारिश के आने पर हम खुशी में झूम उठे और आत्मा तक उसके नीचे भीगते रहे. १९४८ के वनाग्नि काल का यह अन्त था.

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

पूरी कहानी में अब डूबा जा चुका है। बहाव बना रहे।

VICHAAR SHOONYA said...

जंगलों में लगी आग कि भयावहता तो वही समझ सकता है जिसने इसे पास से देखा हो. वास्तव में बहुत भयानक होती है जंगल कि आग. कथा का आनंद बढ़ता ही जा रहा है.