Friday, August 6, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा: आगे का हिस्सा 5

फ़ॉरेस्टर ट्रेनिंग (१९४८-१९४९)

फ़ॉरेस्टर ट्रेनिंग के लिए चयनित इक्कीस लोगों में मेरा नाम भी था. हमें १ अक्टूबर तक फ़ॉरेस्टर्स ट्रेनिंग की कक्षाओं के लिए आल्मा लॉज पहिंचने को कहा गया. यह सेन्ट लो रिज पर अवस्थित एक दुमंज़िला इमारत थी. वहां हमें १५ नवम्बर तक रहना था. हमारी दिनचर्या में सुबह सात से आठ तक परेड होती थी. दस से चार तक कक्षाएं होती थीं जिनके बीच एक घन्टा लंच का होता था. उसके बाद हम लोग फ़्लैट्स में घूमा करते थे.

तत्पश्चात हम लोग फ़ील्ड ट्रेनिंग के लिए हल्द्वानी चले गए. यहां एक बड़ा फ़र्क़ यह था कि अब से हमें डबल फ़्लाई तम्बुओं में रहना था. एक तम्बू में तीन लोगों ने रहना था. यहां से हमें बरेली ले जाया गया जहां हमें बरेली के आसपास वनाधारित उद्योगों से परिचित कराया गया. बरेली के बाद हमें पश्चिमी और पूर्वी सर्किलों में साल के जंगलों का भ्रमण करवाया गया. इसके बाद हमें एक पखवाड़े की फ़ील्ड इंजीनियरिंग ट्रेनिंग के लिए रुड़की के बंगाल इन्जीनियरिंग ग्रुप सेन्टर ले जाया गया. रुड़की में हमारा प्रशिक्षण सेना के अधिकारियों की देखरेख में हुआ. यहां से हम देहरादून गए जहां फ़ील्ड अभियानों के साथ साथ हमने फ़ॉरेस्ट रिसर्च इन्स्टीट्यूट भी देखा. यह संस्थान एक विशाल लैन्डस्केप में फैला हुआ था और अपने शिल्प और वहां प्रदर्शित काष्ठ वस्तुओं के कारण यादगार था. अप्रैल से हमारा ग्रुप पहाड़ में चीड़ सिल्वीकल्चर समझने के लिए एक माह पहाड़ों में शिफ़्ट हुआ. १५ मई १९४९ को हम अपनी ट्रेनिंग के अन्तिम हिस्से के लिए वापस आल्मा लॉज पहुंचे. जुलाई १९४९ के पहले सप्ताह में कुछ परीक्षाओं और न्यू क्लब में हुए उपाधि-वितरण समारोह के बाद ट्रेनिंग समाप्त हो गई. इस ट्रेनिंग के बारे में ग़ौर करने पर मुझे अहसास हुआ कि इस ट्रेनिंग में आदमी हरफ़नमौला तो बन जाता है पर उसे महारत किसी क्षेत्र में हासिल नहीं होती.

कन्ज़रवेटर के साथ कार में

दिसम्बर के महीने में मेरे रेन्ज अफ़सर ने मुझसे कुमाऊं सर्किल के कन्ज़रवेटर मिस्टर जे. स्टीफ़ेन्स की सेवा में उपस्थित होकर उन्हें अपने साथ रामगढ़ से भवाली के पी डब्लू डी डाकबंगले तक लाने को कहा, क्योंकि वे स्वयं नैनीताल के डीएफ़ओ मिस्टर डब्लू. एफ़. कॉम्ब्स के साथ व्यस्त थे.

मैं पैदल रामगढ़ के लिए रवाना हुआ और नियत समय पर वहां पहुंच गया. कन्ज़रवेटर महोदय का अर्दली कैम्प-किट को टट्टुओं पर लाद कर भवाली लेकर जा रहा था. ड्राइवर ले अलावा कार में बैठने वाले हम दो ही लोग थे. औपचारिकता का तकाज़ा था कि मुझे गाड़ी में ड्राइवर की बगल में बैठना था, लेकिन इन नियम क़ायदों से अनभिज्ञ मैं अपनी टोपी लगाए लगाए कन्ज़रवेटर महोदय के साथ बैठ गया.

हमने बमुश्किल दस किलोमीटर का फ़ासला तय किया था जब कन्ज़रवेटर महोदय खरखराती आवाज़ में मुझसे पूछा : "क्या यह तुम्हारा आधिकारिक हैडगीयर है?" मैंने हिम्मत जुटाते हुए जवाब दिया : "नहीं सर नहीं है. मैं इसे इसलिए पहने हूं कि यह हमारे आधिकारिक हैडगीयर से अधिक सुविधाजनक है. सूत की भारी पगड़ी बेहद अटपटी होती है." कन्ज़रवेटर महोदय ने तुरन्त कहा : "तुम सही हो. पगड़ी पुराने समय के लिए ठीक थी जब लोग उसे रस्सी की तरह भी इस्तेमाल कर लेते थे." मैंने राहत की सांस ली क्योंकि मैं डांट खाने से बच गया था.

2 comments:

Himachal Mittra said...

वो गुजरा जमाना आंखों के सामने आता जा रहा है. बहुत अव्‍छे, ब्‍लॉगर कथावाचक या कहें ब्‍लावाचक.

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रवाह सुहा रहा है।