Sunday, August 1, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा: आगे का हिस्सा २

भर्ती बोर्ड

उक्त पद के लिए नुझे १६ अगस्त १९४६ को एक मौखिक साक्षात्कार हेतु ग्लेनथॉर्न, चीफ़ कन्ज़र्वेटर के दफ़्तर पहुंचने का निर्देश प्राप्त हुआ. भर्ती बोर्ड में तीन सदस्य थे - मि. सॉल्वोय, डाइरेक्टर रिलीफ़ एन्ड रिहैबिलिटेशन उ.प्र. और मि. डब्लू. टी. हिल, सीसीएफ़, उ.प्र. नामक दो ब्रिटिश आई सी एस और आई एफ़ एस जो अपने महकमों के मुखिया थे और तीसरे मि. एम. डी. चतुर्वेदी जो सबसे वरिष्ठ भारतीय आई एफ़ एस थे और उन दिनों कन्ज़रवेटर ऑफ़ फ़ॉरेस्ट्स वेस्टर्न सर्किल के पद पर कार्यरत थे. बाद में मि. चतुर्वेदी पहले या दूसरे इन्सपैक्टर जनरल ऑफ़ फ़ॉरेस्ट्स के पद पर भी रहे थे. यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि उन दिनों वन विभाग का वेतनमान रु. ३०-१-४५ हुआ करता था जो सेना के रु. ७० से अधिक की तुलना में बहुत कम था. जहां तक मुझे याद है कुल पन्द्रह चुने गए प्रत्याशियों में मैं एक था. मुझे भवाली रेन्ज में भवाली हैडक्वार्टर में तैनात किया गया.

फ़ॉरेस्ट सबॉर्डिनेट सर्विस में प्रवेश

मैं नियत तारीख को ड्यूटी पर पहुंच गया. मेरे साथ मेरी पत्नी भी आई थी और मुझे तीन कमरों का एक निवास मिला था. कुछ दिन तक मैंने रेन्ज ऑफ़िस में काम किया और एक दिन मेरे रेन्ज ऑफ़िसर ने मुझे सड़कों और भवनों की मरम्मत के अनुमानित खर्चों का विवरण (एस्टीमेट) तैयार करने को कहा. सच तो यह है कि तब तक मैंने एस्टीमेट शब्द का नाम भी नहीं था. मैंने इस बाबत अपने रेन्ज ऑफ़िसर से पूछा. उन्होंने मुझे सब समझाया. करीब एक सप्ताह के बाद मैं रेन्ज में अपने सारे काम कर रहा था - ग्रामीणों के अधिकारों और उनकी छोटी छोटी ज़रूरतों का हिसाब रखने से लेकर एस्टीमेट बनाने और चीड़ के जंगलों में नियन्त्रित आग लगाने तक. मेरी दिनचर्या तकरीबन रोज़ यह रहती थी कि मैं सुबह घर से खाना खाकर निकलता और शाम को ही लौटता.

एक दिन मुझे पता लगा कि वायरलैस के ज़माने के मेरे कुछ साथियों को देहरादून रेन्ज में रेन्जर्स कोर्स १९४७-४९ के लिए केवल इन्टरव्यू के आधार पर ही चुन लिया गया है. मुझे अपने आप पर बहुत गुस्सा आया. बाद में मुझे अहसास हुआ कि यह मेरी बेबात की शिकायत थी. ऐसा मेरे लिए भी तब सम्भव होता जब मैंने इस सिलसिले में अप्रैल १९४६ से ही प्रयास शुरू कर दिए होते यानी अपनी अर्ज़ी को सिर्फ़ फ़ॉरेस्टर की नौकरी तक ही सीमित न रख कर उसे विभिन्न विभागों में पहुंचाया होता. मैंने इसके लिए अपनी अपरिपक्वता और सूचना के अभाव को दोषी ठहराया. मैंने मार्च १९४७ में होने वाले इन्टरमीडियेट बोर्ड के सप्लीमेन्ट्री इम्तहान के लिए अनुमति हासिल की और उसे उत्तीर्ण भी कर लिया.

बाद में मुझे यह भी पता चला कि जो राडार ऑपरेटर पदावनति के बावजूद वायुसेना में बने रहे थे, उन्हें आज़ादी के बाद दोबारा उसी वेतनमान और उसी पद पर वापस बुला लिया गया था. राडार का अविष्कार दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हुआ था जिसकी मदद से जर्मनी की लगातार बमबारी से इंग्लैण्ड कई बार बचा. राडार जर्मन जहाज़ों की टोह ले लेते थे और उन्हें आर ए एफ़ फ़ाइटरों की मदद से ध्वस्त कर दिया जाता था.

जीवन उसी सरकारी ढर्रे पर चल रहा था.

2 comments:

मुनीश ( munish ) said...

@राडार का अविष्कार दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हुआ था ohh.. those were the days !अब तो तीसरे का बेसब्री से इंतज़ार है :)

प्रवीण पाण्डेय said...

बह रही है जिन्दगी अपनी लय में अब।