Wednesday, September 8, 2010

समाचारों का सौदा और प्रेस परिषद के तिकड़मी

भारतीय प्रेस परिषद एक बार फिर कागज़ी शेर साबित हुआ है. पेड न्यूज छापने वाले कॉर्पोरेट मीडिया के दबाव में अपनी ही कमेटी की रिपोर्ट पर पर्दा डाल दिया है. इस रिपोर्ट में चुनावों के दौरान नेताओं और राजनीतिक दलों से पैसा लेकर ख़बर छापने वाले प्रकाशनों के नाम गिनाये गए हैं और उनकी आलोचना की गई है.

ये बात तो पहले से ही जग ज़ाहिर थी कि प्रेस परिषद अपनी जांच में भले ही किसी मीडिया हाउस को दोषी पा ले, उसके पास उचित दंडात्मक कार्रवाई के अधिकार नहीं हैं. अब जिस तरह से पेड न्यूज़ वाली रिपोर्ट दबाई गई है उससे पता चलता है कि इस संस्था की आंतरिक संरचना ही कॉर्पोरेट हितों की रक्षा करने वाली है.

प्रेस परिषद ने पेड न्यूज़ पर हो-हल्ला मचने पर स्व प्रेरणा से जांच के लिए एक सब-कमेटी गठित की थी. इस कमेटी में वरिष्ठ पत्रकार प्रंजॉय गुहा ठकुरता और के श्रीनिवास रेड्डी शामिल थे. कड़ी मेहनत के बाद इस कमेटी ने पेड न्यूज़ से संबंधित इकहत्तर पृष्ठों की एक रिपोर्ट तैयार की थी. हाव करप्शन इन द इंडियन मीडिया अंडरमाइन्स डेमोक्रेसी (भारतीय मीडिया में भ्रष्टाचार और लोकतंत्र का क्षय) नाम से जैसे ही ये रिपोर्ट तैयार हुई प्रेस परिषद में बैठे मीडिया घरानों के प्रतिनिधियों में खलबली मच गई. उन्होंने इस रिपोर्ट को सामने न आने देने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया. आख़िरकार वे अपनी करतूत में सफ़ल रहे और इकहत्तर पृष्ठ की रिपोर्ट दबा दी गई. उसके बदले में तीस जुलाई को प्रेस परिषद ने सरकार को बारह पृष्ठों की एक संक्षिप्त रिपोर्ट सौंपी. जिसमें पेड न्यूज़ छापने वाले मीडिया घरानों का नाम नहीं छापा गया. पूरी रिपोर्ट का ज़िक्र सिर्फ़ फुटनोट में किया गया. उसमें बताया गया है कि वो रिपोर्ट प्रेस परिषद के पास सुरक्षित है. परिषद ने रिपोर्ट को अपनी वेब साइट पर भी नहीं डाला है. इस तरह रिपोर्ट क्यों नहीं सार्वजनिक की गई है इस बात को बड़ी चालाकी से छुपा लिया गया है.

प्रेस परिषद की संक्षिप्त रिपोर्ट में पहली बार पेड न्यूज़ को परिभाषित किया गया है. रिपोर्ट के मुताबिक़ कोई भी समाचार या विश्लेषण अगर पैसे या किसी और तरफ़दारी के बदले किसी भी मीडिया (इलेक्ट्रोनिक या प्रिंट) में जगह पाता है तो उसे पेड न्यूज़ की श्रेणी में रखा जाएगा. कोई बच्चा भी समझ सकता है कि सिर्फ़ परिभाषित करने से पेड न्यूज़ को नहीं रोका जा सकता है. जब तक इसके आर्थिक-राजनीतिक पहलुओं की सही पड़ताल नहीं की जाएगी तब तक इसे रोकना लगभग असंभव है. प्रंजॉय वाली रिपोर्ट में भले ही ऐसे सभी कारणों की पड़ताल न की गई हो लेकिन इसमें वर्तमान हालात पर कुछ ठोस सवाल ज़रूर उठाये गए हैं.

मूल रिपोर्ट में पाया गया है कि मीडिया घराने अपने आर्थिक स्वार्थों को ध्यान में रखकर संपादकीय विभाग को कमज़ोर बना रहे हैं, जिस वजह से पत्रकारों पर प्रबंधन के लोग हावी हो रहे हैं. रिपोर्ट में पत्रकारों के काम करने के हालात और काम की सुरक्षा की व्यवस्था करने के लिए भी ठोस कदम उठाने की बात कही गई है. सुझाव दिया गया कि पत्रकारों को ठेके पर रखने की प्रथा समाप्त हो और वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट को मज़बूत किया जाए. जिससे समाचारों के चयन और प्रस्तुतिकरण में आर्थिक पक्ष हावी न होने पाए. रिपोर्ट में माना गया है कि ऐसा करने पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रतता और पत्रकारों की नौकरी की सुरक्षा की गारंटी हो पाएगी. सरकार को दी जाने वाली रिपोर्ट से ये बात भी ग़ायब कर दी गई है.

प्रंजॉय गुहा ठकुरता कहते हैं कि उन्हें आख़िर वक़्त तक भरोसा था कि मूल रिपोर्ट संक्षिप्त रिपोर्ट के साथ अनुलग्नक (एनेक्सचर) के तौर पर ज़रूर डाली जाएगी. लेकिन प्रकाशक लॉबी के दबाव की वजह से ऐसा नहीं हो पाया. वे अफ़सोस जताते हैं कि सरकारी पैसे से उन्होंने छह महीने की कड़ी मेहनत के बाद रिपोर्ट तैयार की थी. उस रिपोर्ट के साथ प्रेस परिषद में इस तरह का मज़ाक होना जनता के साथ धोखा है.

पेड न्यूज़ की विस्तृत रिपोर्ट पर तीस जुलाई को परिषद के सभी सदस्यों की बैठक बुलाई गई थी. कुछ सदस्य इससे जानबूझ कर ग़ायब रहे तो कुछ कोई भी पक्ष लेने से बचते रहे. ऐसा करने वाले मुख्य लोगों में कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियों से जुड़े नेता हैं. बहस के दौरान उस दिन तीस में से चौबीस सदस्य ही बैठक में पहुंचे. प्रेस परिषद के चेयरमैन जस्टिस जीएन रे चाहते हुए भी बैठक में विस्तृत रिपोर्ट को सार्वजनिक कराने पर सहमति नहीं बना पाए. हालांकि मीटिंग में हाथ खड़े कर सबने रिपोर्ट को सार्वजनिक करने और न करने को लेकर अपनी राय दी. रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के पक्ष में सिर्फ़ नौ लोग थे. इनमें जस्टिस जीएन रे, प्रंजयॉय गुहा ठकुरता, कवि-पत्रकार विष्णु नागर, इंडियन जर्नलिस्ट यूनियन के एसएन सिंहा, मातृभूमि के संवाददाता एमके अजीत कुमार, द हिंदू के जी प्रभाकरन, पीटीआई के वीएस चंद्रशेखर और असम ट्रीव्यून के कलवम बरूआ शामिल थे.

तटस्थ रहने वालों में लोकसभा में बीजेपी के सदस्य अनंत कुमार, प्रेस काउंसिल की सचिव विभा कुमार और राज्य सभा में बीजेपी सदस्य प्रकाश जावड़ेकर का नाम शामिल है. इतनी महत्वपूर्ण बैठक से जान-बूझकर अनुपस्थित रहने वालों में कांग्रेस के लोकसभा सदस्य विलास मुट्टेमवार, कांग्रेसी राज्य सभा सदस्य के केशव राव, राष्ट्रवादी कांग्रेस के लोकभा सदस्य संजय दीना पाटिल, बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया के मिलन कुमार डे, साहित्य अकादमी के ललित मंगोत्रा और वर्किंग न्यूज़ कैमरा मैन असोसिएशन के जोगेंद्र चावला थे.
प्रकाशक लॉबी की तरफ़ से रिपोर्ट का विरोध करने वालों में बोम्बे समाचार के हरमुसजी सुसरवानजी कामा, फिल्मी दुनिया के विजय कुमार चोपड़ा, SaryuTat Se से सुमन गुप्ता, स्वतंत्र पत्रकार मिहिर गंगोपाध्याय, मुजफ्फ़रनगर बुलेटिन के संपादक उत्तम चंद्र शर्मा, जन मोर्चा के शीतला सिंह, एशियन डिफेंस न्यूज़ के योगेश चंद्र हालन, अमरावती मंडल के अनिल गुंजल किशोर अग्रवाल, जन्मभूमि प्रवासी वीकली के कुंदन रमन लाल व्यास, तेज़ वीकली के रमेश गुप्ता और अरुण प्रभा के सुशील झलानी शामिल थे. इन सभी की आपत्ति थी कि प्रकाशन संस्थान का नाम लेने की कोई ज़रूरत नहीं है. साथ ही ये लोग वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट को लागू करने का भी विरोध कर रहे थे. यहां पर वे प्रेस काउंसिल के ज़िम्मेदार सदस्य के तौर पर बात करने की बजाय कॉर्पोरेट मीडिया के दलालों की भाषा में बात कर थे.
प्रेस परिषद की संरचना को देखें तो इनमें से ज़्यादातर लोग मीडिया घरानों के प्रभाव वाले ही होते हैं. हालांकि इसकी अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट का कोई पूर्व न्यायाधीश करता है और इसके बीस सदस्य प्रेस का प्रतिनिधित्व करते हैं. लेकिन कुल मिलाकर देखा जाए तो इसमें बहुमत हमेशा मालिकों के पक्ष में झुका हुआ ही होता है. क्योंकि संपादक, समाचार पत्रों के मालिक और प्रबंधक मिलकर परिषद में जो बहुमत बनाते हैं उसमें श्रमजीवी पत्रकार और आम जनता की बात कहीं खो-सी जाती है. इसके अलावा इसमें संसद के दोनों सदनों से भी पांच सदस्य भी होते हैं. वर्तमान रिपोर्ट के परिप्रेक्ष्य में ये पांचों सांसद पेड न्यूज़ की रिपोर्ट को सार्जनिक करने के पक्ष में कितने थे ये बात सामने आ चुकी है. कहने को साहित्य अकादमी, विश्व विद्यालय अनुदान आयोग और बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया की तरफ़ से भी एक-एक सदस्य इसमें शामिल होता है लेकिन उनकी नियुक्ति भी अक्सर सरोकारों की वजह से कम संपर्कों की वजह से ही ज़्यादा होती है. इस लिहाज से अगर देखा जाय तो वर्तमान संरचना वाली प्रेस काउंसिल से बहुत ज़्यादा उम्मीद पालना मुंगेरी लाल के हसीन सपने देखने की तरह ही है.
पेड न्यूज़ पर विस्तृत रिपोर्ट को सार्वजनिक न किए जाने की बात सीपीएम सांसद बृंदा करात राज्य सभा में भी उठा चुकी हैं लेकिन उसका भी कोई ठोस असर होता नहीं दिखता. रिपोर्ट की कॉपी हालांकि हमारे पास है लेकिन इसे प्रेस परिषद की तरफ़ से आधिकारिक तौर पर जारी किया जाता तो इसका ज़्यादा न सही थोड़ा बहुत असर तो होता ही. इसे प्रेस परिषद की तरफ़ से उन मीडिया घरानों की आधिकारिक आलोचना माना जाता और सरकार की भी इस सिलसिले में कोई न कोई कदम उठाने के लिए ज़रूर सोचना पड़ता. ऐसा न होने के पीछे के कारण देखें तो लगता है कि कॉर्पोरेट का हमारी सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं में हस्तक्षेप कितना ज़्यादा बढ़ गया है. इस पूरे घटनाक्रम से ये बात बिल्कुल साफ़ हो जाती है कि हमेशा मुनाफ़े पर नज़र रखने वाले मीडिया घरानों को अगर इस तरह खुली छूट दी जाती रही तो आने वाले दिनों में भारतीय मीडिया अपने पतन के और ज़्यादा प्रतिमान गढ़ेगा.
(मूल रूप से समयांतर में प्रकाशित)

2 comments:

brandMARIO said...

namaste... meri hindi itni achchi nahin hain lekin koshish kartha hoon :-)

aapki ek help chahiye thi... mein indiblogger me ek contest me

bhaag le raha hoon aur aapki vote ki bohut zaroorat hain..
krupya post padkar zaroor vote karein...

http://www.indiblogger.in/indipost.php?post=30610

bahut bahut dhanyavaad... bahut mehebaani hogi...

Unknown said...

disgusting!