Monday, June 18, 2012

वह जो छुप-छुप कर एकांत ढूंढने के लिए छुपना

बचपन

-आलोक  धन्वा 

क्या किसी को पता है
कि कौन-सा बचपन
सिर्फ उसका बचपन है
उतने बच्चों के साथ
मैं भी एक बच्चा

क्या किसी को पता है
कि बचपन की बेला बीत गई
वे जो पीले नींबू के रंग के सूर्यास्त
जो नानी को याद करो
तो मामी भी वहीं बैठी मिलेगी
और दोनों के
नकबेसर का रंग भी पीला

जो गली से बाहर निकलो
तो खेत ही खेत
किसी में छुपा लेने वाली फसल
कहीं खाली ही खाली

अगर बाएं हाथ की पगडंडियां
दौड़ लो तो
जैतूनी रंग का तालाब
और तालाब के घाट की सीढ़ियां
उतरते  हुए यह महसूस होता
कि खेत ऊंचाई पर हैं
और तालाब का पानी
छूने के लिए आना पड़ता नीचे
बचपन की प्रतिध्वनियां
आती रहीं हर उम्र में
आती रहती हैं

किशोर उम्र की वासनाएं भी
शरीर में कैसी अनुगूंज
बारिश के बुलबुले
और लड़कियों की चमकती आंखें

वह जो छुप-छुप कर
एकांत ढूंढने के लिए छुपना
वह जो एकांत में बनी गरमाहट

हम किशोरों को
उन किशोरियों ने सिखाया
कि खाने-पीने और
लिखने-पढ़ने से अलग भी
एक नैसर्गिक सुख है
जो आजीवन भटकाएगा

उन दिनों दिन हमेशा छोटे
और रातें तो और भी छोटी
पेड़ों के बीच
हमारी पाठशाला
पढ़ने के लिए हमें
बुलाती
कभी हम वहां सिर्फ
खेलने के लिए भी जाते
उसके पास जो
मैदान था
याद करने पर आज भी
बिना कोशिश के याद आता है।

1 comment:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बचपन की यादें ... बहुत कुछ भूली बिसरी हो जाती हैं ... सुंदर प्रस्तुति