Monday, August 12, 2013

थोड़ा सा बिल ब्राइसन और


बिल ब्राइसन की किताब 'द लाइफ़ एंड टाइम्स ऑफ़ द थंडरबोल्ट किड'  के तीन-चार पैराग्राफ़ आपने कल पढ़े थे. अब उस से आगे का हिस्सा पढवाने का लालच आ रहा है –

“अपने काम के हिस्से के तौर पर माँ हाउसकीपिंग की ढेरों पत्रिकाएँ खरीदती थीं – हाउस ब्यूटीफुल, हाउस एंड गार्डन, बैटर होम्स एंड गार्डंस – मैं उन्हें ईमानदार उत्सुकता के साथ पढ़ा करता था. इसकी एक वजह यह थी कि हमारे घर में ये पत्रिकाएँ जहां तहां पड़ी रहती थीं और फुर्सत के तमाम क्षणों को पढ़कर काटा जाना होता था. दूसरी वजह यह थी कि उनमें जिस जीवन का चित्रण होता था वह हमारे जीवन से इस कदर अलहदा होता था. मेरी माँ की पत्रिकाओं में जो औरतें दिखती थीं वे बहुत व्यवस्थित और संतुलित लगती थीं, और उनका खाना हमेशा परफेक्ट होता था – उनके जीवन परफेक्ट थे. वे अवन से खाना निकालने के लिए अलग पोशाक पहनती थीं! उनके चूल्हों के ऊपर काले घेरे नहीं होते थे, न भुला दिए गए सॉसपैन के किनारों पर लगातार परिवर्तित होता कचरा फंसा होता था. जब भी वे अवन का दरवाज़ा खोलती थीं तो बच्चों से दूर हट जाने को नहीं कहा जाता था. और उनका खाना – बेक्ड अलास्का, लॉब्स्टर न्यूबर्ग, चिकन कैसीटोर – ये वे व्यंजन थे जिन्हें आयोवा में देखना तो दूर हम उनके सपने तक नहीं देख पाते थे.

१९५० के दशक के आयोवा के ज़्यादातर लोगों की तरह हम लोग अपने घर में सावधानीपूर्वक खाना खाने के हिमायती थे. कभी कभी दुर्लभ मौकों पर जब हमें ऐसा खाना पेश किया जाता जिसकी हमें आदत न हो या जिसके साथ सुविधा न लगती हो – हवाई जहाज़ों में या रेल में मिलने वाला भोजन या किसी ऐसी स्त्री का पकाया भोजन जो ख़ुद आयोवा की न हो – हम तनिक सावधानी के साथ एक चाकू से उसे तिरछा करके हर संभव कोण से देखते थे जैसे कि तय कर रहे हो को उसे बम की तरह डिफ्यूज़ किये जाने की ज़रुरत तो नहीं. एक दफ़ा सां फ्रांसिस्को की यात्रा के समय मेरे पिताजी के कुछ दोस्त उन्हें एक चाइनीज़ रेस्त्रां में ले गए और बाद में इस किस्से को उन्होंने हमें ऐसी गंभीर आवाज़ में सुनाया जिस तरह मौत के मुंह से बच आने के अनुभव बताए जाते हैं.

“और बताऊँ, वे लोग स्टिक्स की मदद से खाते हैं” अपना ज्ञान बघारते हुए उन्होंने कहा.

“बाप रे!” माँ बोली.

“वहां दुबारा जाने से पहले मैं चाहूँगा मुझे गैन्ग्रीन हो जाए,” पिताजी ने मनहूस आवाज़ निकाली.

घर में हम इन चीज़ों को नहीं खाते थे –

  • ·        पास्ता, चावल, क्रीम चीज़, खट्टी क्रीम, लहसुन, मेयोनीज़, प्याज, कॉर्न बीफ, पास्त्रामी, सलामी, फ्रेंच टोस्ट को छोड़कर कोई भी विदेशी खाना नहीं.
  • ·        डबलरोटी जो सफ़ेद और कम से कम ६५% हवा से बनी न हो.
  • ·        नमक, मेपल सिरप और कालीमिर्च के अलावा कोई भी मसाला.
  • ·        मछली जो आयत के अलावा किसी और आकार की हो और उस पर चमकीले नारंगी डबलरोटी का चूरा न लिपटा हो. और वह भी सिर्फ़ शुक्रवारों को और केवल तब जब माँ को शुक्रवार की याद रह जाए, जैसा अक्सर नहीं होता था.
  • ·        कैसा भी समुद्री भोजन खासतौर पर जो बड़े कीड़े-मकोड़ों जैसा दिखता हो.
  • ·        सिर्फ़ कैम्पबेल के सूप और वे भी बहुत थोड़े.
  • ·        कोई भी चीज़ जिसका नाम “pone” या “gumbo” जैसा स्थानीय और संदिग्ध हो या वह भोजन जो किसी ज़माने में गुलामों और खेतिहरों की रोजाना की ख़ुराक रहा हो.
हमारे सारे मील्स बचे खुचे खाने से बनते थे. ऐसा लगता था कि टेबल पर पहले सर्व कर दिए गए भोजन की मेरी माँ के पास अक्षुण्ण सप्लाई रहती थी. कई दफ़ा वह खाना कई बार सर्व किया जा चुका होता था. सिवाय कुछ नाशवान डेयरी प्रोडक्ट्स के फ्रिज के भीतर की हर चीज़ उम्र में मुझ से बड़ी हुआ करती थी, कई बार तो कुछेक साल बड़ी. (उसकी सबसे पुरानी भोज्य संपत्ति, कहना न होगा, टिन के डिब्बे में रखा एक फ्रूटकेक था जिस पर लिखी हुई तारीख़ औपनिवेशिक काल से वाबस्ता थी.) मैं सिर्फ़ मान ही सकता हूँ कि मेरी माँ ने अपनी सारी कुकिंग १९४० के दशक में कर ली थी ताकि अपने जीवन का बाकी हिस्सा वह इस बात पर हैरान होते हुए काटे कि फ्रिज के पीछे वाले हिस्से में उसे क्या क्या मिल सकता है. मुझे याद नहीं पड़ता उसने कभी किसी खाने को नकारा हो. ज़ाहिर नियम यह था कि अगर आप ढक्कन खोलें और भीतर की चीज़ के कारण आप को वास्तव में कम से कम एक हकबकाया कदम पीछे न लेना पड़े, तो वह खाने योग्य है.”

अब देखिये यूट्यूब पर लगा इस किताब का एक हिस्सा बेहतरीन एनीमेशन की सूरत में -


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