Tuesday, March 21, 2017

इसे बनाते मुसलमान हैं और स्वर फूंकते हैं हिन्दू

यह आलेख और फोटो निबंध हमारे स्टार फोटूकार कबाड़ी रोहित उमराव ने बहुत मशक्कत से तैयार किया है. इस से पहले रोहित ने इस ब्लॉग पर आपको मांझे और सिवइयों के निर्माण पर अद्भुत फ़ोटो-कथाओं से रू-ब-रू कराया है. ऐसी शानदार पोस्ट्स से ही कबाड़खाना वह है जो इतने सालों में बन सका है. थैंक्यू रोहित.

पीलीभीत की बांसुरी
- रोहित उमराव 

बांस की बनी बांसुरी और उसकी मधुर-सुरीली तान आखिर  किसे नहीं रिझाती? बांसुरी भारत वर्ष का ऐतिहासिक वाद्य यंत्र है. महाभारत काल में श्रीकृष्ण-बांसुरी-गोपिका और गायों की लीलाओं से विश्व परिचित है. उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले में कारीगरों की कई पीढियां बांसुरी बनाने के काम को बखूबी आगे बढ़ा रही हैं. वह इसे अपनी पुश्तैनी विरासत मानती हैं. ज्यादातर मुश्लिम परिवार के लोग इसे बनाते हैं. लेकिन यदि कहा जाय कि "इसे बनाते मुसलमान हैं और स्वर फूंकते हिन्दू है" तो यह एकदम सही होगा.  पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, राजेंद्र प्रसन्ना जैसे ख्यातिप्राप्त बांसुरी वादकों की पसंद बनी पीलीभीत की बांसुरी देश-दुनियां में अपना नाम रोशन कर रही है.

पीलीभीत जिले में बांसुरी बनाने का काम बड़े पैमाने पर होता आया है. आज से 10 साल पहले यहाँ करीबन 500 से ज्यादा परिवार बांसुरी बनाते और उसकी आय से ही बसर करते थे. पर अब हालात बदल गए हैं. इनकी संख्या घटकर 100 के करीब ही रह गई है और आने वाले दिनों में कम ही होती जा रही है. हाथ के हुनर का उचित मूल्य न मिल पाने के चलते इस काम से उनका पारिवारिक गुजर-बसर नहीं हो पा रहा है. जीविका और रोजी-रोटी पर संकट के बदल गहराते जा रह है. इस अँधेरे से उबरने के लिए वे दूसरे रोजगार ढूंढ रहे हैं. जिसमे चार पैसे की बचत भी हो सके.

हुनरमंद कारीगर खुर्शीद, अज़ीम, इसरार और गुड्डू का कहना है कि आसाम से आने वाले बांस के यातायात की समस्या है. पहले ये बांस आसाम से ट्रेन द्वारा बड़े लठ्ठे के रूप में आता था. ट्रेने बंद हो गईं उनका बांस अब ट्रक में छोटे टिकड़ों के रूप में बोरों में भरकर आने लगा. कई जगह बदला जाता है. लाने-ले जाने में बहुत सारा बांस टूट जाता है. सरकार इस हैंडीक्राफ्ट इंडस्ट्री की ओर ध्यान दे. राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में इन कारीगरों के काम को प्रदर्शित करने को निःशुल्क बढ़ावा मिले. राहत फण्ड यदि की समस्या हल हो. तब तो फिर से कारीगरों को आशा की किरण नजर आने लगे. और वे जी लगाकर इसी पारंपरिक काम को आगे बढ़ाये.

पेश है पीलीभीत में बनायीं जाने वाली बांसुरियों की एक बानगी. देखते हैं -       

आसाम से आये बांस की गोलाई, मोटाई,
लंबाई और सिधाई को परखता कारीगर

बांसुरी बनाने के चार सोपान सामने हैं. पहले कारीगर साधारण बांस को तराश
कर मुहाने को गोलाई देता है.
फिर उसकी जीभ तराशता है. फिर उसमें अरहर की लकड़ी को तराशकर ढाठ बनाता है.
फिर ढाठ को तराशकर जीभ से मिला देता है

बांसुरी के बांस की पेंसिल से सिधाई परखकर, फर्मा के सहारे
सुरों के छेदों के अनुपात पर निशान लगा लिए जाते हैं.
और फिर आग में तपती सुर्ख सलाखों से उसमे छेद किये जाते हैं

साधारण बांस में हांथों के हुनर से
अग्नि की तापिश के बाद स्वरों का गुंजन स्वतः उत्पन्न हो जाता है

परिवार के सभी सदस्य महिलाएं और पुरुष
मिलकर बांसुरियों की पैकिंग करते हैं और यहीं से फिर उन्हें बाजार भेज दिया जाता है

2 comments:

HARSHVARDHAN said...

आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति विश्व जल दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।

अनूप शुक्ल said...

वाह ! रोचक जानकारी !