Monday, April 30, 2012

बाबू - ३


(पिछली किस्त से आगे)

दोनों ही के प्रताड़ित प्रेतों के-से चेहरे! दोनों ही अब नहीं रह गए, कल को मैं भी चला जाऊँगा. इस लिए इन पर अब दया करने से भी इन्हें भला क्या मिलेगा! लेकिन मन में करुणा उपजती है, ओस कण पर पहले-पहले उजास की मानिंद मौन, उदास और कोमल काँपती हुई, करुणा. माँ अगर धरती से भी अधिक भारी थीं तो पिता मेरे लिए आकाश से अधिक ऊँचे. 'माता गुरुतरा भूमेः खात् पितोच्चतरस्तथा' (महाभारत.) मैंने कभी एक बार भी उनसे या कि अपने मन में भी बचपन ही से उनसे अलग होने की शिकायत न की. हाँ, उन पर गर्व, पिता के नाते, कभी न कर पाया - क्योंकि वह सदा बेचारे ही लगे - मगर प्यार उन्हें सब से अधिक करता आया, मैंने अपने बच्चों को जितना प्यार किया, उससे भी अधिक! माँ सपने में एक बार भी न दिखलाई दीं मगर बाबू साल में तीन-चार बार दिखलाई देते हैं - और हर बार का सपना वर्षों तक भूलता नहीं! सुमियोशिकु वाले घर में एक बार सुनाई दिया कि उन्होंने मुझे पुकारा है. मैं चौंक पड़ा - कमरे से निकलकर देखता हूँ, वह सीढ़ी के नीचे खड़े हैं, "प्यास लगी है, पानी होए तो दै देओ." उन्होंने कहा. उनकी आवाज़ बहुत धीमी थी, जैसे कि कहीं बड़ी दूर से चलकर आए हों. एक बार किसी मेले की भीड़ में वह आगे जाते हुए दिखलाई दिए, मैं पैर बढ़ाता हुआ उन तक पहुँचूँ, कि वह भीड़ में खो गए! इधर वह सपने में दिखलाई देते हैं तो उनका चेहरा साफ़ नहीं दिखलाई पड़ता - मेरी आँख और ज़्यादा ख़राब हो जाने से यों भी चेहरे धुँधले दिखलाई देते हैं! अभी हफ़्ता भर हुआ, एक संस्मरण पुस्तक में लेखक के बचपन की यादों के बीच, 'घुंघू मनैया, खंता खनैया' - यह लोरी पढ़ने के बाद सारी रात मुझे नींद न आई! मैं चार-पाँच बरस का था, तब बाबू स्वंय पीठ के बल लेटकर और अपने दोनों पैरों पर मुझे चढ़ाकर यही लोरी गाते हुए 'घोड़ा' चढ़ाया करते थे. उनसे कैसे कहूँ कि अब तुम सपने में न दिखलाई दिया करो!

उनका सारा जीवन - उनकी किशोरावस्था से लेकर शिमला धर्मशाला के कमरे में आत्महत्या करने की रात तक - मुझे अपनी आँखों के आगे घटित होता दिखलाई देता है. और मेरे गले में चीख़ घुटकर रह जाती है, बाबू, क्यों! तुम ऐसा जीवन! क्यों? क्यों? क्यों? क्यों?




ये बाबू की जवानी के फ़ोटो हैं, एक जब वह म्योर सेंट्रल कालेज, बी ए के पहले साल में थे. (दूसरा, शायद, बंबई का कारोबार त्यागने के बाद का.) इतने सारे तमगे़ और कप उन्होंने डिबेट में जीते थे. बी ए पहले साल मैं इससे कह रहा हूँ कि बी ए वह कभी पास न हो पाए! एक बार फ़ेल हुए, तो बहुआ ने उनके आँसू पोंछने के लिए उन्हें दूध पीने का चाँदी का बड़ा कटोरा दिया था दूसरी या तीसरी बार फ़ेल होने पर उन्हें पोखराज की अँगूठी बनवा दी. हाँ, वह अमरीका में पैदा न हुए थे, जहाँ पिता अपने बेटे के कमरे की दीवार पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख देते हैं , CHECKOUT TIME IS EIGHTEEN YEARS!  बाबू के पिता एक विश्वविद्यालय के संस्थापक लेकिन उन्होंने अपने ही बेटे से यह कभी न पूछा होगा, "तुम्हारे पैर किस जगह पर टिके हैं!"'

बाबूजी ने अपने चार बेटों में से किसी के साथ पक्षपात न किया - सच पूछें तो चारों की ओर वह वीतराग ही थे. परिवार तक के लिए उनके मन में यही भावना रही होगी. मैं यह शिकायत थोड़े ही कर रहा हूँ, उनके सामने मैं 12-13 वर्ष का हो गया था मगर उन्होंने मुझसे यह न पूछा कि बच्चा, अब तुम स्कूल की किस कक्षा में हो - एक बार भी नहीं!

फिर एक पुत्र को अपने से परे हटकते हुए उन्हें कष्ट भला क्यों न हुआ होगा! 'तुम निष्कलंक नहीं हो, अन्यथा मैं तुम्हें अंगीकार करता.' बाबू के नाम उनके एक पत्र के ये शब्द, "यदि तुम ऋण से ग्रस्त न होते तो हम तुमको अपने पास रखते. उसमें हमको सुख होता है, किंतु ..."

बाबूजी के साथ राउंड टेबुल कान्फ्ऱेंस में, उनके सहायक के रूप में, बाबू लंडन जाने को थे. वहाँ की ठंड के लिहाज़ से बाबू के गर्म कपड़े तक बन गए थे. मगर बाबूजी साथ ले गए छोटचा को. बाबूजी की परख, मनुष्य की, अचूक हुआ करती थी. उन्हें अपना तीसरा पुत्र भरोसे का न लगा - क्या जाने यह लंडन में किसी अँग्रेज़ पुरुष या महिला को 'कृष्णाय वासुदेवाय' श्लोक सिखाने लग जाएँ!

याद है मुझे, बाबूजी के देहांत पर हज़ारों की संख्या में शोक संवेदना प्रकट करने को तार और चिट्ठियाँ आए थे. छोटचा ने उसके उत्तर में पत्र छपवाया था - ऊपर संबोधन स्थान पर भेजने वाले का नाम ख़ुद अपने हाथ से लिखने को ख़ाली, नीचे उत्तरदाता का नाम छपा हुआ था, 'गोविंद मालवीय'.

मेरे सामने की बात है, बाबू ने उनसे कहा, "मुनुआ, थोड़े से छपे हुए पत्र मुझे दे दो." छोटचा ने बिना कोई उत्तर दिए 10-12 पन्ने बड़े भाई की ओर बढ़ा दिए थे. क्यों, बाबूजी के अंतिम समय में उनकी सेवा, मूड़ी बलिहारी नौकरों के समान, बाबू ने की थी! क्या किया होगा बाबू ने? छपा हुआ 'गोविंद' काटकर क्या 'मुकुंद' लिखा होगा? नहीं, छोटे भाई ने चुप रहकर ख़ारिज किया, बड़े भाई को! उनकी चुप्पी बोलती थी कि तुम्हारे होने का, कि न होने का, कोई महत्व नहीं! तुम काफ़्का की 'मेटामर्फ़ासिस' शीर्षक कहानी के लाड़ले बेटे हो जो धीरे-धीरे कर कीड़ा बन गया था.

बाबू से उनके माँ-बाप, भाई बहिन, नाते-रिश्ते के किसी व्यक्ति ने न कहा, "पैर ज़मीन पर रख!"

मामूली से मामूली जीव-जंतु तक तो अपने जाए हुए को अपने आप जी सकने का हुनर सिखलाते हैं! मादा गिद्ध अपने चिरौटे को जब वह कुछ-कुछ उड़ने क़ाबिल हो जाता है मगर डर के मारे ऊँचे घोंसले से बाहर नहीं निकलना चाहता, मादा गिद्ध उसे बाहर धकेल देती है. बाघिन शिकार लाकर पहले अपने छौनों को खाने देती हैं, मगर बच्चा बड़ा हो जाने पर भी माँस में हिस्सा बँटाना चाहे तो बाघिन उसे लात से बार-बार मार कर दूर कर देती है.

मेरे एक कटु व्यंग्य करने पर मेरे आगे से भोजन की अध-खाई थाली खींच ली थी, मेरी माँ ने! "ये अगर कल जेल जाने को हों तो आज ही चले जाएँ!" यह मेरी माता के नहीं, नानी के शब्द हैं, अपने किशोर वय सबसे बड़े बेटे के लिए.

पैदा होते ही अपने पैरों पर कोई भी जीव खड़ा नहीं हो जाता - वह अपनी मरज़ी से खड़ा होता है, नहीं तो बेमरज़ी उसे खड़ा किया जाता है. ठीक से खड़ा हुआ जीव अपने आप चलता है, उड़ता है, धावे मारता है, आहार जुटाता है, अपना जोड़ा ढूँढ़कर लाता है, रुपया-पैसा और नाम कमाता है.

नहीं तो जैसे डैंडेलियन या कुकरौंधे का भुआ हवा में इधर से उधर उड़ता फिरता, वह मनुष्य भी, केवल 'आज' जीता है, जीवन के अंत तक. भुआ तो खै़र, हवा के पंखों पर सवार होकर दूर-दूर तक बीज बोता है, ऐसा मनुष्य अपने पीछे कुछ भी नहीं छोड़ जाता.

(जारी)

गुरु विठ्ठल देवता विठ्ठल


विठ्ठल देवता की स्तुति में पंडित भीमसेन जोशी का गाया संत नामदेव का यह भजन सुनिए. पंडिज्जी का चित्र शबनम गिल का बनाया हुआ है. -


बाबू - २

(पिछली किस्त से आगे)


बाबू को टैक्सी पर लाद-फाँदकर हबड़ा स्टेशन. जीजा अपने आफ़िस का एक सहयोगी साथ ले आए थे. रिज़र्वेशन न था. शाम की एक ट्रेन पर भीड़ के मारे चढ़ ही न पाए. उसके बाद वाली गाड़ी पर, दो-तीन कुलियों की मदद से नीचे की एक बर्थ पर बाबू को खिड़की के सहारे अधलेटा कर कलकत्ता से रवाना हुए.

बाबू कभी होश में, कभी बेहोश. सीधे बैठने की कोशिश करते मगर फिर लुढ़क जाते. माँ ने अपनी एक धोती बाबू की जाँघों के बीच में भर दी थी. बाबू के आगे माँ और मैं पारी-पारी से उन्हें आगे गिरने से बचाने के लिए बैठते.

जैसे शिमला में बाबू का शव खड्ड में ले जाकर जलाने के बरसों पहले मैंने उस स्थान को सपने में देखा था, इस कलकत्ता से इलाहाबाद की बड़ी लंबी आतंकपूर्ण यात्रा की भयावनी छाया भी उसके बरसों बाद मुझे एक स्वप्न में दिखलाई दी थी -


मैं पिता को साथ लेकर घर लौट रहा हूँ. यात्रा के बीच रात होती है. पिता ऊपर की बर्थ पर. रात में उठकर पेशाब करने के बाद लौटता हूँ तो पाता हूँ, उनका मुँह खुला, ठोढ़ी ऊपर उठी हुई है. पता चलता है, सोते-सोते उनकी मृत्यु हो चुकी है. अधिकतर यात्री सो रहे हैं. अगले, किसी छोटे स्टेशन पर गाड़ी ठहरती है. मैं ख़ाली हाथ डिब्बे के नीचे उतर जाता हूँ. कुछ ही देर बाद वह ट्रेन सीटी देकर चल देती है.


खुले हुए दिन में मैं हबड़ा स्टेषन के यार्ड में खड़े तमाम डिब्बों में से एक-एक में जाकर उस एक डिब्बे को तलाश रहा हूँ, जिसकी ऊपरवाली बर्थ पर आज चौथे रोज़ भी मेरे पिता का शव पड़ा होगा!


राम-राम करते हुए अगले रोज़ तीसरे पहर इलाहाबाद पहुँचे. ताँगे पर लादकर घर.


डॉ. कृष्णाराम झा घर आए थे, देखने. इन्हें अस्पताल में भरती कराइए, उन्होंने कहा. आगरा किसी तरह पहुँच सकें तो वहाँ गोकुल मामा हैं - फिर तो यमराज की भी एक न चलेगी! मोहल्ले में फ़ोन किसी के यहाँ नहीं. रानीमंडी के डाकघर से आगरा में मामा के यहाँ फ़ोन करने गए. माँ पूरा हाल कह भी न पाईं, बीच में उनका गला रुँध गया.


"धीरज से काम लो. हम कामता को भेजते हैं."


तीसरे रोज़ कामता भैया इलाहाबाद आए. वह स्वयं भी डाक्टर थे. साथ में दवा ले आए थे. इलाहाबाद से आगरा तक एक कूपे रिज़र्व करा चुके थे. तड़के की ट्रेन से रवाना होकर दोपहर के बाद आगरा पहुँचे. स्टेशन से सीधे मेडिकल कालेज के अस्पताल - मामा ने वहाँ एक कमरा रिज़र्व करा रखा था.


मामा मेडिकल कालेज में प्रिंसिपल थे. दिन भर के क्लास पूरे कर, शाम के वक़्त आए, बाबू को देखने. पूरी जाँच करने के बाद मामा मुस्कराते हुए बोले, "मुकुंदजी, आपकी सारी बात मैं मानूँगा; मैं डाक्टर हूँ, इस लिए मेरी सलाह पर आपको पूरी तरह से चलना होगा."


माँ को उन्होंने बाबू को खिलाए जाने वाली चीज़ें बताईं, उनकी मात्रा भी. तली हुई चीज़ एक भी नहीं. उबला आलू, दही और हल्का नमक-ज़ीरा - और मामा की दी हुई दवाएँ.


"इस पर अमल हो, यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी है" सख़्त लहजे में उन्होंने माँ से कहा.


दोनों के अलग-अलग फ़ोटो मैंने अपने कोडक बाक्स कैमरे से लिए थे. उनके चेहरे पर के भाव मेरे मन पर अमिट रह गए थे, इस लिए फ़ोटो प्रिंट कभी न कराया - आज उन्हीं दुखद चेहरों को प्रिंट में देख रहा हूँ, पहली बार - तब से 55 साल बाद.


(जारी)

Sunday, April 29, 2012

बाबू - १


निर्वासन की थीम पर आधारित 'जलसा' के अंक में लक्ष्मीधर मालवीय का बेहद मार्मिक संस्मरण छपा है. पत्रिका के संपादक श्री असद ज़ैदी ने न केवल इसे कबाड़खाने में पोस्ट करने की अनुमति दी, इसका यूनिकोड संस्करण भी मुहैय्या कराया. उनका धन्यवाद.
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बाबू


लक्ष्मीधर मालवीय

हिंदी लेखक, शिक्षक, चित्रकार और फ़ोटोग्राफ़र लक्ष्मीधर मालवीय (जन्म 1934) पिछले 45 बरस से जापान में बसे हुए हैं, लेकिन अपने बचपन से जवानी तक का पूरा ज़माना उनके सीने में एक अमानत की तरह ज्यों का त्यों सुरक्षित है, और वह गद्य भी जिसे वह अपने साथ लेकर गए थे. कुछ साल पहले ‘लाई हयात आए’ नाम से उनके संस्मरणों का पहला खंड किताब की शक्ल में छपा था. यहाँ हम दूसरे (अब तक अप्रकाशित) खंड ‘क़ज़ा ले चली चले’ का एक अध्याय प्रकाशित कर रहे हैं.
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rid me of the invisible people
who forever move about my house!

- गार्सीया लोर्का


मैं इंटर में था, कि गिलबिल्लीवाला मकान किराएदारों से ख़ाली हुआ. तीन मंज़िल का घर, रहने वाले हम माँ-बेटे, दो प्राणी. पहले एकाध साल एक परिवार, नीचे के हिस्से में किराएदार रहा. फिर भगीरथमल नवलगढ़िया, मारवाड़ी आढ़ती व्यापारी का परिवार नीचे के हिस्से में आकर बसा.

भगीरथजी तो बाहर-बाहर रहते थे, आसाम वगै़रह से थोक भाव माल मँगाते, मुनाफ़े से बेचते. दो-चार महीने में एक बार घर आते. स्थायी रूप से रहते थे, उनकी पत्नी बींदणी, मारवाड़ी में 'बहू', और उनके दो बेटे बिस्सू और ओम. छोटा 13-14 साल का ओम अध-पगला था. उसके चेहरे पर - विशेषकर पुतलियों की चमक में - व्यंग्यपूर्ण मुस्कान थिरकती रहती. एक बार वह बाहर गली के नल पर नहाकर बाहर के दरवाज़े से नंग धड़ंग वापस आ रहा था, कि मैं तभी बाहर निकल रहा था - मैंने उसकी भरपूर पिटाई की थी. उसका बड़ा भाई बिस्सू उसे मारता-पीटता तो वह चिल्ला-चिल्लाकर रोता, इस पर उनकी माँ उन दोनों से अधिक ज़ोर से चिल्लाती. मगर मारवाड़ी भाषा में होने से सब रोना-चिल्लाना मिलकर महज़ शोर बनकर तीसरी मंज़िल के मेरे पढ़ने के कमरे तक सुनाई देता.

बीच-बीच में बाबू बाहर से आते. कुछ हफ़्ते-महीने घर में रहते और अचानक फिर कहीं चले जाते. हाँ, जहाँ भी वह रहते, पत्र हर हफ़्ते-दस रोज़ पर अवश्य भेजते, अधिकतर मेरे नाम. उन पत्रों में उनके बारे में कम, मेरे लिए बातें अधिक रहती, कि मुझे अपना जीवन बनाने में किन बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए.

पिछले कई माह से वह कलकत्ते में थे. वहाँ मेरी दोनों बड़ी बहिनें भी रहती थीं. बाबू चितपुर रोड पर टीवड़ावाला की भव्य धर्मशाला में रहते थे - उसकी ऊपर की मंज़िल पर एक कमरा प्रायः सदा बाबू के लिए ख़ाली रख छोड़ा जाता था, कि वह जब ही चाहें उसमें आकर टिक सकें. बाबू के साथ सामान सदा अधिक रहता था - एक तो ठाकुरजी का धातु का बना भारी सिंहासन ही 30-40 किलो का रहा होगा! (उसे कोई बीस वर्ष तक बंबई में काकूमाँ ने, फिर उनकी बेटी अजब ने, अपने यहाँ रख छोड़ा था, सन 48 में मैं उसे बाबू के दूसरे सामानों के साथ वहाँ से इलाहाबाद ले आया था.) काठ की बनी उसकी फ़ोल्डिंग चैकी. जब तक बाबू उसे न ले गए थे, मैं घोर गर्मी की रातें उसे ऊपर वाली छत पर लगाकर उस पर सोता - सिर से चूतड़ तक ही उस पर समाता. मधु कुछ ही माह की रही होगी, एक रात वह कमरे के अंदर बिस्तर से नीचे गिरकर चीख़ी कि मैं लंगूर कुदान से वहाँ पहुँच उसे उठा लाया और उसे अपने नंगे सीने पर औंधे मुँह लिटाकर थपकियाँ देते हुए सुला दिया था. भोजन बाबू स्वयं न बनाते थे, निकट में तिवाड़ी का भोजनालय था. तिवाड़ी बनारस का था. इनसे दाम न लेता था. यहाँ तक कि वह स्वयं वहाँ तक न जा सकें तो धर्मशाला के चैकीदार से कहला देने पर इनकी थाली वह धर्मशाला में भेज देता!

कोई महीने भर से बाबू का कोई पत्र न आया था. दिद्दी का पत्र आया. उन्होंने लिखा था कि बाबू सख़्त बीमार पड़े हैं, उन्हें खू़नी पेचिश हो रही है. फिर बाबू की चिट्ठी मिली, मेरे नाम. नीले काग़ज़ पर. उनकी लिखावट से लगा, उनका हाथ बुरी तरह से काँप रहा था. चंद सतरें. उन्होंने माँ का ध्यान रखने को कहा था. अपनी समझ में उन्होंने यह अंतिम पत्र भेजा था.

फिर दिद्दी का तार मिला, माँ को कलकत्ता पहुँचने का बुलावा. माँ और मैं हाबड़ा स्टेशन पर उतरकर, दिद्दी का घर शहर बाहर घूघूडाँगा में होने से, सीधे टीवड़ावाला की   धर्मशाला पहुँचे.

बाबू थे नहीं, चैकीदार ने बताया, कई दिन बाद आज बाहर निकले हैं.

कोई एक घंटे प्रतीक्षा करने के बाद फाटक पर बाबू दिखलाई दिए, लड़खड़ाते पैरों घीरे-धीरे आते हुए. वह तिवारी के यहाँ भोजन करने गए थे. उन्हें स्वयं इसका भान न था कि उनकी लुंगी में खू़नी पाख़ाना लगा है! रास्ते में उन्हें दस्त हो गया था. रेंगते हुए अपने कमरे में पहुँचे और बिस्तर पर गिर गए - बेहोश होकर.

दिद्दी के यहाँ फ़ोन न था. रहती थीं वह डमडम हवाई अड्डे के रास्ते में, एकदम गाँव जैसे स्थान पर, बी सी राय के कारख़ाने के क्वार्टर में - जीजा वहाँ स्टोर कीपर थे.

माँ ने बाबू से घर लौट चलने को कहा तो उन्होंने मना कर दिया. बताया, वैद्यजी की दवा खा रहे हैं, शरीर के अंदर से सारा दोष निकल जाने पर ठीक हो जाएँगे.

हर 5-10 मिनट पर उन्हें दस्त होता, खू़नी. नीमहोशी और कमज़ोरी के मारे, अधिकतर तो उन्हें इसका पता भी न होता. कमरे के एक किनारे ठाकुरजी का मंदिर था. बालगोविंदा की पूजा क्या, उस पर कई रोज़ पहले चढ़़ाए हुए फूल सब मुरझा गए थे. बालगोविंदा की पीतल की वह मूर्ति बहुआ द्वारिका से ले आई थीं.

एक कोने में 6-7 लुंगियों का ढेर लगा था. उन्हें धोने के लिए ग़ुसलख़ाने तक जाने की शक्ति तक बाबू में न थी.

तीसरे रोज़ दिद्दी बाबू का हाल देखने आईं. उन्हें हमारे पहुँचने का पता न था. माँ ने बाबू को इलाहाबाद ले चलने का निश्चय किया. दिद्दी बोलीं, "रेल का लंबा सफ़र करने क़ाबिल यह नहीं हैं. मान लो, रास्ते में इनकी जान निकल गई तो!"

माँ ने उत्तर दिया, "यहाँ परदेस में तो अपना कोई है नहीं, वहाँ अपने लोग तो हैं!"

(अगली किस्त में जारी. फोटो में लक्ष्मीधर मालवीय अपनी पत्नी अकिको और पुत्री तारा के साथ.)

पग घुँघरू बाँध मीरा नाची


उस्ताद मुनव्वर अली खान (१९३०-१९८९) सुना रहे हैं मीराबाई का भजन. पटियाला घराने के खलीफा उस्ताद बड़े गुलाम अली खान के सुपुत्र उस्ताद मुनव्वर अली खान की अपेक्षाकृत छोटी आयु में हुई मृत्यु ने भारतीय शास्त्रीय संगीत का बड़ा नुकसान किया.

Saturday, April 28, 2012

अगर होनी ही है यात्रा, तो होना चाहिये उसने अनन्त!


आज महमूद दरवेश के अनुवादों को टटोलता रहा. एक कविता पर ध्यान दुबारा से अटका. फिर याद आया जलसा के दुसरे अंक में भी यह छाप चुकी है. हो सकता है कबाड़खाने पर भी लगी हो कभी. फिर से लगाने में क्या हरज है -


एक रहस्यमय घटना की तरह

प्रशान्त महासागर के तट पर, पाब्लो नेरूदा के घर में
मुझे यान्निस रित्सोस की याद आई.
एथेन्स उनका स्वागत कर रहा था जो समुद्र से आए थे
रित्सोस की चीख से चमकते एक एम्फ़ीथियेटर में:
"ओ फ़िलिस्तीन
मिट्टी के नाम
और आकाश के नाम
विजयी होओगे तुम ..."

और उसने मुझे गले लगाकर, विजय का संकेत बनाते हुए मेरा परिचय कराया:
"यह मेरा भाई है,"

तब मुझे लगा कि मैं जीत गया, और यह कि टूट गया
किसी हीरे की मानिन्द, और रोशनी के सिवा मेरा कुछ बचा नहीं.

एक आरामदेह रेस्त्रां में, हमने अपने दो पुराने देशों
को लेकर कुछ अंतरंग बातें कीं, और आने वाले कल की बात
कुछ स्मृतियों को लेकर: एथेन्स ज़्यादा ख़ूबसूरत था.
जहां तक याबनूस की बात है, उस में कुछ और समा ही नहीं सकता था, जनरल
ने रोने और शिकार हुओं के आंसू चुराने के वास्ते
पैग़म्बर का मुखौटा उधार ले लिया था: "मेरे प्रिय शत्रु!
मैंने तुम्हें बिना जाने-बूझे मारा था, मेरे प्रिय शत्रु,
क्योंकि तुम मेरे टैंक को तंग कर रहे थे."

रित्सोस बोले: लेकिन स्पार्टा ने
एथेन्स की कल्पना की उठान को तोड़ डाला. सत्य
और न्याय दो जुड़वां भाई हैं जो साथ जीतते हैं. कविता में
मेरे भाई! कविता बीते और आने वाले कल के
दरम्यान एक पुल होती है. हो सकता है थके हुए मछेरे
मिथकों से बाहर जा रहों के साथ घुलमिल जाएं.
और साझा करें थोड़ी वाइन.

मैंने कहा: कविता क्या है ... थोड़े शब्दों में है क्या कविता?
उन्होंने कहा: यह एक रहस्यमय घटना होती है, कविता
मेरे दोस्त, वह अबूझ उत्कंठा होती है
जो किसी चीज़ को बदल देती है इन्द्रजाल में, और
इन्द्रजाल को बना देतॊ है कोई चीज़. तो भी यह सार्वजनिक सौन्दर्य को
साझा करने की हमारी ज़रूरत को समझा सकती है ...

पुराने एथेन्स में उनके घर में कोई समुद्र नहीं,
जहां देवियां जीवन के कामकाज सम्हालती हैं
दयालु मनुष्यों के साथ-साथ, और जहां युवा इलेक्ट्रा
बूढ़ी इलेक्ट्रा को बुलाकर उस से पूछती है: क्या तुम
वास्तव में मैं हो?

और उनके संन्यासियों जैसे संकरे कमरे में छतों के ऊपर
कोई रोशनी नहीं धातु को जंगल को देखती हुई.
उनके चित्र कविताओं की तरह पानी के रंग होते हैं, और मेहमानों के उनके कमरे के
फ़र्श पर चुने हुए कंकड़ों की तरह मढ़ी हुई किताबें.


उन्होंने मुझसे कहा: जब कविता ज़िद्दी हो जाती है, मैं तीतर को
पकड़ने के लिए चट्टानों पर कुछ जालों के चित्र खींच देता हूं.

मैंने कहा: आपकी आवाज़ में समुद्र कहां से आता है, जबकि समुद्र
तो मेरे दोस्त, पहले से ही घेरा जा चुका है?

उन्होंने कहा: स्मृतियों की दिशा से, हालांकि
"मुझे याद नहीं कि कभी युवा था मैं भी."
मैं दो शत्रु भाइयों के साथ जन्मा था:
मेरी क़ैद और मेरी बीमारी.

और आपने अपना बचपन तब कहां खोजा, मैंने पूछा?
अपनी भावुक आन्तरिकता में. मैं बच्चा हूं
और उम्रदराज़ भी. मेरा बच्चा मुझे सिखाता है मेरी उम्रदराज़ उपमाएं.
और मेरा उम्रदराज़ मेरे बच्चे को मेरी वाह्यता में चिन्तन करना सिखाता है.
मेरा वाह्य है मेरा अन्तर
जब भी क़ैद संकरी होने लगती है मैं हर चीज़ में पसर जाता हूं,
और जब जब रात अपनी गश्त पर होती है
मेरी भाषा किसी मोती की तरह चौड़ी हो जाती है

और मैंने कहा: मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा. मैंने अपने आप को
जीवन से प्रेम करने को
प्रशिक्षित करना सीखा और यह कि सफ़ेद भूमध्यसागर में
कैसे चलाए जाएं चप्पू रास्ता या घर या
रास्ते और घर के द्वैत को खोजते हुए.
उन्होंने इस तारीफ़ पर ध्यान नहीं दिया. उन्होंने मुझे कॉफ़ी प्रस्तुत की.
तब कहा: तुम्हारा ओडीसियस सुरक्षित वापस लौट आएगा,
वह 
लौट  आएगा ...

 प्रशान्त महासागर के तट पर, पाब्लो नेरूदा के घर में
मुझे अपने घर में मौजूद यान्निस रित्सोस की याद आई.
वे प्रवेश कर रहे थे उस वक़्त अपनी एक मिथक में,
देवियों में से एक से कहते हुए: अगर होनी ही है यात्रा,
तो होना चाहिये उसने अनन्त!

Wednesday, April 25, 2012

मखदूम की गज़ल


अली सरदार ज़ाफरी के बनाए टीवी सीरियल "कहकशां" से एक गज़ल पेश है, मखदूम मोहिउद्दीन की गज़ल है जिसे स्वर दिया है आशा भोंसले और जगजीत सिंह ने. वीडियो लिंक हामिद सर के ब्लॉग Hamid's Cauldron से उठाया गया है. थैंक्यू सर.

 

Monday, April 23, 2012

चन्द्र सिंह गढवाली अमर रहें!


आज तेईस अप्रैल है. पेशावर कांड को बहत्तर साल होने आए. पेशावर के किस्सा खानी बाज़ार में चन्द्र सिंह गढवाली नाम के एक सिपाही ने बलूचिस्तान के अहिंसक आन्दोलनकारियों पर गोली चलाने के अपने अँगरेज़ अफसर के आदेश को मानने से इनकार कर दिया था. इस अपराध के एवज में उन्हें जेल में कई साल काटने पड़े और तमाम प्रताड़नाएं भुगतनी पड़ीं.

खैर! इस घटना से जुडी तमाम बातें आपको इन्टरनेट पर आसानी से मिल जाएँगी. यहाँ एक बात बताना चाहूँगा. जब गांधी से इस घटना की बाबत पूछा गया तो उन्होंने गढ़वाली के इस कदम की सराहना करने के बजाय कहा था की सेना के अनुशासन को तोडना अच्छी बात नहीं होती.

चन्द्र सिंह गढवाली अमर रहें!

याद है, यह कोट एक मेले में खरीदा था



अमेरिकी मूल की कवयित्री डेबोरा डिग्ज़ (६ फरवरी १९५०- १० अप्रैल २००९) पेशे से अध्यापिका थीं. डॉक्टर पिता और नर्स माता की छठी संतान थीं वे. अपने जीवनकाल में उन्होंने कविता की चार किताबों के अलावा दो संस्मरणात्मक पुस्तकें भी प्रकाशित कराईं. साहित्य के कई बड़े पुरुस्कारों से उन्हें नवाजा गया. उन्होंने क्यूबाई कवयित्री मारिया एलेना क्रूज वारेला की कविताओं का अंग्रेज़ी तर्जुमा करने का श्रेय भी जाता है. अंतिम दिनों में वे डिप्रेशन की शिकार हुईं और ५९ की आयु में एक ऊंची इमारत से कूद कर उन्होंने अपनी जान ले ली. 


दर असल इस पोस्ट के लिए वरिष्ठ साहित्यकार आग्नेय जी जिम्मेदार हैं. इधर भोपाल के पहले पहल प्रकाशन से उनकी सात किताबों का एक सैट छपा है जिसे मुझे भिजवाने का उन्होंने अहसान किया. इन्हीं में से एक किताब "रक्त की वर्णमाला", जो उनके द्वारा किये गए विश्व-कविता के अनुवादों का संचयन है, से मैं डेबोरा डिग्ज़ की इस कविता को कबाड़खाने पर लगा पाने से अपने को रोक न सका. 

कोट

जब तुम
शहर से बाहर गए थे
मैंने तुम्हारे कपड़ों को पहना
मैंने अपने पैजामों के साथ
तुम्हारी सफ़ेद और हल्की नीली कमीजें पहनी
जब मैं कुत्तों को घुमाने ले जाती
मैं तम्हारे कोट को पहने रहती
हम रुक जाते एक तरफ
और घोड़ों को देखते
याद है, यह कोट एक मेले में खरीदा था
वह तिब्बती उन से बना हुआ था
मैं उसके टोप को इस तरह कस कर
अपने सर पर बाँध लेती थी
मेरे बालों से बंद हो जाती थी ठण्ड
हिमकणों में खोया मेरा हृदय
एक धवल पताका जैसा है
अपवादस्वरूप केवल आज
तुम्हारी लंबी बीमारी के
उन अंतिम हृदय विदारक महीनों से आता
तुहारे जैसा एक चेहरा देखा
एक ऐसे आदमी का चेहरा
जो उसके अस्तित्व से उड़ रहा था
पीलियाग्रस्त, मुश्किल से यहाँ उपस्थित
किन्तु तत्काल अपरिचित
क्षमा करना
मैं सुखी हूँ
तुम्हारे कोट में
तुम्हें देखती

Sunday, April 22, 2012

जब तेरे नैन मुस्कराते हैं


खान  साहब मेहदी हसन की क्लैसिकल वाली सीरीज़ में चार-पांच प्रस्तुतियाँ अभी बची हुई हैं. आज पेश है अब्दुल हमीद अदम (1910-1981) की गज़ल. अदम साहब अपने ज़माने में खासे लोकप्रिय थे. उन पर एक विस्तृत पोस्ट किसी दिन -

जब तेरे नैन मुस्कुराते हैं
ज़ीस्त के रंज भूल जाते हैं

क्यूँ शिकन डालते हो माथे पर
भूल कर आ गए हम जाते हैं

कश्तियाँ यूँ भी डूब जाती हैं
नाख़ुदा किसलिये डराते हैं

इक हसीं आँख के इशारे पर
क़ाफ़िले राह भूल जाते हैं



आप कविता कैसे लिख सकते हैं?


निक्की जियोवानी की एक और कविता -



आप कविता कैसे लिख सकते हैं?

आप कविता कैसे लिख सकते हैं
ऐसे शख्स के बारे में जो इस कदर करीबी
की जब आप कहें आ..आ...आ...
वे कहें छू
वे आपसे किस चीज़ को कागज़ पर
उतारने को कह सकते हैं
जो वैसे ही नहीं लिखा हुआ है
तुम्हारे चेहरे पर
और क्या कागज़
और भी वास्तविक बना सकता है
जीवन को जो
उनके बगैर असंभव तो नहीं
पर शर्तिया बेहद मुश्किल होगा
और किसी को भी
क्यों दरकार हो कविता की ये कहने को
की जब मैं घर आऊँ और अगर तुम वहाँ न हो
कि मैं तुम्हारी खुशबू को
हवा में खोजती हूँ
अगर मैं यह बात संसार को बतलाऊं
तो क्या मैं खोजना कम कर दूंगी
मैं ज़रा भी परवाह नहीं करती
और इतना सम्पूर्ण होता हो प्रेम
कि एक दूसरे को छुएं या नहीं
हम हम एक दूसरे को इस कदर घोल लेते हैं
चीज़ों में कि मसला एक दूसरे के साथ
हमबिस्तर होने भर का नहीं
(मुझे दिन भर हमबिस्तर रखा जा सकता है)
मगर एक ऐसी जगह ढूंढने का है
जहां मैं आज़ाद हो सकूं
तमाम जिस्मानी और
जज़्बाती बकवास से
और बस कॉफी का एक प्याला
लेकर बैठूं और तुमसे कहूँ
"मैं थक गयी हूँ" क्या तुम्हें नहीं पता
ये मेरे मोहब्बत में पगे लफ्ज़ हैं
जो तुमसे कहते हैं "तुम्हारा दिन
कैसा था?" क्या ये बात नहीं दिखलाती
कि मैं तुम्हारी परवाह करती हूँ और तुमसे कहती हूँ
"हमने एक दोस्त खो दिया" और मैं नहीं चाहती
इस नुक्सान को अजनबियों के साथ साझा करना
क्या तुम्हें अब तक यह नहीं पता
मुझे कैसा लगता है और अगर
तुम्हें नहीं पता तो हो सकता है
मुझे जांचना चाहिए अपने जज़्बातों को

Saturday, April 21, 2012

मैंने एक उम्दा ऑमलेट लिखा


निक्की जियोवानी की इस कविता में रोज़मर्रा की ज़िंदगी से उठाई गयी चीज़ों और क्रियापदों को इस ख़ूबसूरती से (अ)व्यवस्थित किया गया है कि नए-नए प्यार के उद्दाम आवेग और उसके साथ उड़ा लिए जाने के अहसास को पूरी तरह महसूस किया जा सकता है. आप बस मुस्करा सकते हैं. इसे समझने के लिए आपको किसी आलोचक की टिप्पणियों की दरकार नहीं होती. जनाब लाल्टू ने यह कविता मुझे मेल से भेजी. पढते ही मुझे लगा कि इसका तुरंत अनुवाद नहीं किया तो फिर बात टलती चली जाएगी.


मैंने एक उम्दा ऑमलेट लिखा

मैंने एक उम्दा ऑमलेट लिखा ... और खाई एक गर्म कविता ...
तुम्हें मोहब्बत करने के बाद

अपनी कार के बटन कसे ... और अपने कोट को ड्राइव पर ले गयी ... बारिश
में ...
तुम्हें मोहब्बत करने के बाद

मैं लालबत्ती पर चला की ... और हरी पर थमी ... दोनों
के दरम्यान तैरती हुई कहीं ...
तुम्हें मोहब्बत करने के बाद

मैंने अपना बिस्तरा लपेटा ... अपने बालों की आवाज़ हल्की की ... थोड़ी सी
भ्रमित थी मगर ... परवाह नहीं मुझे ...
मैंने अपने दांतों को फैलाया सामने ... और अपने गाउन का कुल्ला किया ... फिर मैं
खड़ी हुई ... और खुद को नीचे रखा ...
सो जाने के लिए ...
तुम्हें मोहब्बत करने के बाद

तमाम पशुओं में सिर्फ इंसान ही रोना सीखता है




वर्जीनिया में अंग्रेजी की प्रोफ़ेसर रह चुकीं योलांडे कौर्नेलिया “निक्की” जियोवानी अमेरिका की अश्वेत कविता परंपरा को एक कदम आगे ले जाने वाली कवयित्री हैं. ७ जून १९४३ को जन्मी निक्की की कवितायेँ अपनी जातीय जड़ों के लिए गहरी आस्था, परिवार के सम्मान और एक पुत्री, एक्टिविस्ट और माँ के तौर पर हुए अनुभवों के इर्द गिर्द बुनी हुई हैं. आज पेश है उनकी एक कविता.

यह अनुवाद मैं जनाब लाल्टू के लिए समर्पित करता हूँ. निक्की की कुछेक और कवितायेँ यहाँ देखी जाएँगी जल्दी ही.


विकल्प

अगर मैं वह नहीं कर सकती
जो मैं करना चाहती हूँ
तो मेरा काम यह है
कि मैं उसे न करूं जिसे
मैं नहीं करना चाहती

यह ठीक वैसा तो नहीं
लेकिन सबसे अच्छा है
जो मैं कर सकती हूं

अगर मेरे पास वह नहीं हो सकता
जो मुझे चाहिए ... तो मेरा काम
है उसकी इच्छा करना जो मेरे पास है
और संतुष्ट हो रहूँ
की कुछ तो और है
जिसकी इच्छा की जा सकती है

चूंकि मैं वहाँ नहीं जा सकती
जहां मुझे जाना
चाहिए ... तो मुझे ... हर हाल में
वहाँ जाना चाहिए जिसकी तरफ संकेत हो रहा है
अलबत्ता हमेशा यह समझते हुए
कि समानांतर गति
नहीं होती पार्श्व गति

अगर मैं उसे व्यक्त नहीं कर सकती
जो मुझे वाकई महसूस होता है
तो मैं अभ्यास करती हूँ
उसे महसूस करने का
जिसे मैं व्यक्त कर सकती हूँ

मैं जानती हूँ एक बराबर नहीं ये दो बातें
लेकिन यही वजह है कि तमाम पशुओं में
सिर्फ इंसान ही
रोना सीखता है.

कब मैंने ये कहा था सज़ाएं मुझे न दो



जनाब मेहदी हसन की शास्त्रीय प्रस्तुतियों की सीरीज़ में अगली प्रस्तुति राग किरवानी में अहमद फराज़ की गज़ल -

शोला था जल बुझा हूँ हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदाएं मुझे न दो 

जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया 
अब तुम तो ज़िंदगी की दुआएं मुझे न दो 

ऐसा कभी न हो के पलट कर न आ सकूँ 
हर बार दूर जा के सदाएँ मुझे न दो 

कब मुझको ऐतराफ़-ए-मुहब्बत न था 'फ़राज़' 
कब मैंने ये कहा था सज़ाएं मुझे न दो

Friday, April 20, 2012

शाम का वह आदमी सुबह के एक ऐक्सीडेंट हो चुके आदमी में बदल गया है



जनाब हरजिंदर सिंह उर्फ लाल्टू हिन्दी के उन प्रतिबद्ध रचनाकारों में हैं जो हिन्दी की साहित्यिक तिकडमों से सदा दूर रहे हैं और लगातार-लगातार रचनारत रहे हैं. मेरे जिन-जिन मित्रों की उनसे मुलाक़ात है वे उन्हें एक बेहद सादा आदमी बताते हैं और बहुत मीठा भी. इधर हमारे बीच दो-चार बार जी मेल पर कुछ आदान-प्रदान शुरू हुआ है. आज उनकी एक कविता पेश है. यह कविता आज ही उन्होंने मुझे मेल की है. उनका धन्यवाद. जल्द ही उनकी एक छोटी कहानी और ढेर सारी कवितायेँ आपको इस ठिकाने पर पढ़ने को मिलेंगी.  

मेरे सामने चलता हुआ वह आदमी

मेरे सामने चलता हुआ वह आदमी
बड़बड़ाता हुआ किसी से कुछ कह रहा है
अपनी बड़बड़ाहट और कान में बँधी तार में से आती कोई और आवाज के बीच
मेरे पैरों की आवाज सुनकर चौंक गया है और उसने झट से पीछे मुड़कर देखा है
मुझे देख कर वह आश्वस्त हुआ है
और वापस मुड़कर अपनी बड़बड़ाहट में व्यस्त हो गया है।
मैं मान रहा हूँ कि उसने मुझे सभ्य या निहायत ही कोई अदना घोषित किया है खुद से
जब मैं सोच रहा हूँ कि रात के तकरीबन ग्यारह बजे उसकी बड़बड़ाहट में नहीं है कोई होना चाहिए प्रेमालाप
और है नहीं होना चाहिए बातचीत इम्तहानों गाइड बुकों के बारे में

उसकी रंगीन निकर की ओर मेरी नज़र जाती है
मैं सोचता हूँ उसकी निकर गंदी सी होती तो उसके कान में तार से न बँधी होती बड़बड़ाहट
और उसकी आवाज होती बुदबुदाहट कोई गाली सही पर प्यार होने की संभावना प्रबल थी

शाम का वह आदमी सुबह के एक ऐक्सीडेंट हो चुके आदमी में बदल गया है
और इस वक्त आधुनिक वाकर टाइप की बैसाखी साइड में रख दीवार के सामने खड़ा हो पेशाब कर रहा है.

क्या उत्तराखंड कोई लेबोरेटरी है

शिव प्रसाद जोशी उठा रहे हैं कुछ ज़रूरी सवालात -



गंगा की धारा और लोगों की ज़िंदगियां

-शिवप्रसाद जोशी

गंगा के उद्गम गोमुख और गंगोत्री से कुछ किलोमीटर नीचे उत्तरकाशी की तरफ़ यानी डाउनस्ट्रीम, तीन अहम जलबिजली परियोजनाएं थीं. केंद्र की लोहारी नागपाला और राज्य सरकार की पालामनेरी और भैरोंघाटी. लोहारी नागपाला पर करीब 40 फीसदी काम हो चुका था. बाक़ी दो परियोजनाओं का ऑडिट किया जा चुका था. स्थलीय परीक्षण भी हो चुका था. क़रीब एक हज़ार मेगावॉट क्षमता वाली ये तीनों परियोजनाएं अब बंद हैं. बताया जाता है कि अकेले लोहारी नागपाला में 600 करोड़ रुपए खर्च हो चुके थे.

लोहारी नागपाला में अगर आप आज जाएं तो आपको वहां देखकर लगेगा कि क्या कोई पहाड़ को नोचखसोट कर ले गया है. जैसे किसी ने जंगल में डाका डालकर कुछ पहाड़ कुछ पत्थर कुछ नदी कुछ खेत कुछ ज़मीन चुरा ली हो. सबकुछ बिखरा हुआ सा है. धूल और गुबार है और परियोजना का कबाड़ इधरउधर बिखरा पड़ा है. पहाड़ खोदकर बनाई सुरंगे अब ख़तरा बन गई हैं. गंगोत्री घाटी में भूधंसाव और भूस्खलन की वारदात बढ़ गई हैं. कुदरत का बुरा हाल तो हुआ ही लोग भी बदहाल हुए हैं. पहले जब यहां परियोजनाएं लाई जा रहीं थीं तो स्थानीय लोगों ने भारी विरोध किया था( उस समय उनका साथ देने गिनेचुने ही थे) लेकिन इस विरोध को भी जैसा कि होता है येनकेन प्रकारेण शांत कर दिया गया. रोज़गार और तरक्की के वादे किए गए. ठेकेदारी चमक उठी. कमोबेश यही स्थिति अलकनंदा घाटी में भी हुई.

फिर गंगा की अविरलता का किस्सा उठा. पर्यावरण और विकास के आगे आस्था के सवाल आ गए. और फिर गंगा की स्वच्छता पवित्रता और निर्बाध जल धारा की गेरुआ लड़ाई शुरू हुई. अनशन हुए. लोहारी नागपाला 2008 में बंद कर दी गई और फिर 2010 में पाला मनेरी और भैरोंघाटी का काम जहां का तहां रोक दिया गया. लोग एक बार फिर स्तब्ध और बेचैन रह गए.

उनके खेत जा चुके थे. ज़मीनें जा चुकी थीं. पेड़ कट चुके थे और नदी कटान का शिकार हो चुकी थी. मशीनों और कलपुर्जो का जखीरा जो पहाड़ में धंसा था वैसा ही रह गया. अब मानो ये एक झूलती हुई सी हालत है. इधर जब गंगा को लेकर आंदोलन हो रहे हैं उसमें एक बहस विकास के इस मॉडल को लेकर भी जुड़ गई है. आस्था बनाम पर्यावरण के तर्क विद्रूप की तरह हमारे सामने हैं. और विकास के लंपटीकरण के मेल से अब ये जनविरोधी सियासत का त्रिकोण गठित हो गया है. स्थानीय संसाधनों, उनसे जुड़ी जन आकांक्षाओं और संघर्षों पर इस त्रिकोण की नोकें धंस गई हैं. और उधर आंदोलनों का स्वरूप क्या से क्या हुआ जा रहा है. अपने जंगल पहाड़ नदी बचाने की वास्तविक लड़ाइयों की अनदेखी की जा रही है.

झन झन झन झन पायल मोरी बाजे


राग नट बिहाग में सुनिए पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर की एक शानदार रचना. उनके सुपुत्र राजशेखर उनके साथ गा रहे हैं. महमूद धौलपुरी हार्मिनियम पर हैं जबकि तबला नवाज़ हैं फैय्याज़ खान. इस लिंक को उपलब्ध कराने के लिए हमारे कबाड़ी इरफ़ान का शुक्रिया कीजिये.

Thursday, April 19, 2012

मोबाइल पर उस लड़की की सुबह



मोबाइल पर उस लड़की की सुबह

वीरेन डंगवाल
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सुबह-सवेरे
मुंह भी मैला
फिर भी बोले
चली जा रही
वह लड़की मोबाइल पर
रह-रह
चिहुंक-चिहुंक जाती है

कुछ नई-नई-सी विद्या पढ़ने को
दूर शहर से आकर रहने वाली
लड़कियों के लिए
एक घर में बने निजी छात्रावास की बालकनी है यह
नीचे सड़क पर
घर वापस लौट रहे भोर के बूढ़े अधेड़ सैलानी

परिंदे अपनी कारोबारी उड़ानों पर जा चुके

सत्र शुरू हो चुका
बादलों-भरी सुबह है ठण्‍डी-ठण्‍डी
ताजा चेहरों वाले बच्‍चे निकल चले स्‍कूलों को
उनकी गहमागहमी उनके रूदन-हास से
फिर से प्रमुदित-स्‍फूर्त हुए वे शहरी बन्‍दर और कुत्‍ते
छुट्टी भर थे जो अलसाये
मार कुदक्‍का लम्‍बी टांगों वाली

हरी-हरी घासाहारिन तक ने
उन ही का अभिनन्‍दन किया
इस सबसे बेखबर किंतु वह
उद्विग्‍न हाव-भाव बोले जाती है

कोई बात जरूरी होगी अथवा
बात जरूरी नहीं भी हो सकती है

मैंने जो संग तराशा वो खुदा हो बैठा


तीन सी डी वाली उस्ताद मेहदी हसन खान की क्लैसिकल महफ़िल का पहला खंड कल पूरा हुआ. अब दूसरे से सुनिए राग मियाँ की मल्हार में गई उस्ताद की गायी फ़रहत शहज़ाद की मशहूर गज़ल. उन्नीस सौ अस्सी के दशक में चर्चित हुए उस्ताद के रेकॉर्ड "कहना उसे" में संकलित सारी की सारी गज़लें फ़रहत शहज़ाद साहब की थीं. यह गज़ल पहले-पहल उसी रेकॉर्ड का हिस्सा थी.-

Wednesday, April 18, 2012

उमड़ घुमड़ घिर आए रे सजनी बदरा


मेहदी हसन साहेब की क्लैसिकल सीरीज़ जारी है. आज एक कम्पोजीशन - राग देस में एक पारंपरिक बंदिश.

 

Tuesday, April 17, 2012

लाल-झर-झर-लाल-झर-झर-लाल - वीरेन डंगवाल की दो कवितायेँ


बकरियों ने देखा जब बुरूँस वन वसन्‍त में

लाल-झर-झर-लाल-झर-झर-लाल 
हरा बस किंचित कहीं ही जरा-जरा
बहुत दूरी पर उकेरे वे शिखर-डांडे श्‍वेत-श्‍याम
ऐसा हाल!
अद्भुत
लाल!
बकरियों की निश्‍चल आंखों में
खुमार बन कर छा गया
आ गया
मौसम सुहाना आ गया

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जल की दुनिया में भी बहार आती है

जल की दुनिया में भी बहार आती है
मछली की आंखों की पुतली भी हरी हुई जाती है

जब आती हवा हांकती लेकर काले-काले जलद यूथ
प्राणों को हरा-भरा करती
बेताब बनाती बूढ़े-भारी पेड़ों तक को
धरती के जर्रे-जर्रे को
जीवन के निरूपमेय रस से भरती
अजब संगीत सुनाती है

यह शीतल राग हवा का, यह तो है खास हमारे पूरब का
यह राग पूरबी दुनिया का अनमोल राग
इसकी धुन जिंदा रखती है मेरे जन को
हैं जहां कहीं, अनवरत सताए जाते जो

जांगर करते
खटते पिटते
लड़ते-भिड़ते
गाने गाते

सन्‍तप्‍त हृदय-पीडित, प्रच्‍छन्‍न क्रोध से भरे
निस्‍सीम प्रेम से भरे, भरे विस्‍तीर्ण त्‍याग
मेरे जन जो यूं डूबे हैं गहरे पानी में
पर जिनके भीतर लपक रही खामोश आग

यह राग पूरबी की धुन उन सब की कथा सुनाती है
जल की दुनिया में भी बहार आती है
मछली की आंखों की पुतली भी हरी हुई जाती है

जाना बूझा रोग है यह तो समझे हुए को क्या समझाए


जनाब मेहदी हसन की क्लैसिकल कंसर्ट की तीसरी पेशकश. राग यमन कल्याण में तैयार की गयी यह गज़ल आरज़ू लखनवी की है. सारंगी पर उस्ताद सुलतान खान हैं और तबले  पर उस्ताद शौकत हुसैन खान. हारमोनियम पर साथ दे रहे हैं उस्ताद के सुपुत्र कामरान हसन.  ये रहे गज़ल के बोल -

मुग्हम बात पहेली ऐसी, बस वो ही बूझे जिसको बुझाये
भेद न पाये तो घबराए, भेद जो पाये तो घबराए 


जिसको अकेले में आ आ कर, ध्यान तेरा रह रह के सताए
चुपके चुपके बैठा रोये, आंसू पोंछे और रह जाए


सारी कहानी बेचैनी की माथे पे लिख देती है
ऐसी बात कि घुटते घुटते मुँह तक आए और रह जाए


आरज़ू अपनी धुन का है पक्का ठान चुका है मरने की 
जाना बूझा रोग है यह तो समझे हुए को क्या समझाए !



(मुग्हम का मतलब हुआ अस्पष्ट. बाकी गज़ल समझना आसान है.) 

केसरिया बालम - मेहदी हसन

कल से शुरू हुई मेहदी हसन साहब की सीरीज़ से पहली पेशकश -


Monday, April 16, 2012

गैरी लार्सन का एक कार्टून

अपने प्रिय कार्टूनिस्ट गैरी लार्सन का एक कार्टून लगा रहा हूँ. इधर मेरे पास बतौर उपहार लार्सन के सारे कार्टून पहुंचे हैं दो खण्डों के एक भारी भरकम संकलन की सूरत में. गैरी को लेकर उसमें  जो प्रस्तावना है, वह उनके कार्टूनों जैसी ही अद्वितीय है. कभी आपको पढ़वाता हूँ. फिलहाल यह कार्टून -


बड़ा देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें.

मेहदी हसन खान साहेब की एक दुर्लभ रिकॉर्डिंग


आज से उस्ताद मेहदी हसन खान साहेब की एक दुर्लभ रिकॉर्डिंग की श्रृंखला शुरू कर रहा हूँ. क्लैसिकल गज़ल्स नाम से तीन सी डी का यह सेट मेरे वास्ते अनमोल है. आज सुनिए इस कंसर्ट का पहला हिस्सा जिसमें उस्ताद कुछ अपने कुछ अपने संगीत के बारे में बतलाते हैं.




इस के आगे का हिस्सा कल और उसके बाद पूरा सुनवाया जाएगा.

डाउनलोड यहाँ से कीजिये -

http://www.divshare.com/download/17410335-a2e

Sunday, April 15, 2012

उन्मुक्त ने फिर किया सीना चौड़ा

ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ उन्मुक्त की नाबाद सेंचुरी ने ऑस्ट्रेलिया में चल रही अंडर १९ क्रिकेट टूर्नामेंट में भारत को चैम्पियन बना दिया है. ऑस्ट्रेलिया की टीम में दिग्गज गेंदबाज़ पैट कमिंस भी था जिसकी गेंदों ने भारत के धुरंधर बल्लेबाजों की ऐसी-तैसी कर दी थी. उसी कमिंस के उन्मुक्त ने दो दफा छक्के ठोके. १९८ के लक्ष्य का पीछा करते हुए तीसरे नंबर पर खेलने आए उन्मुक्त ने १४६ गेंदों पर नौ चौके और छः छक्के लगाकर नाबाद ११२ बनाए. ध्यान रहे कि सेमीफाइनल में पहली वरीयता प्राप्त इंग्लैण्ड के खिलाफ भी उन्मुक्त ने ९४ रनों की कप्तानी पारी खेली थी. बधाई पुत्तर! क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया की आधिकारिक वेबसाईट से एक खबर लगा रहा हूँ.



India take out quad series

India have taken out the 2012 International Under-19 Quadrangular Series, cruising to a seven-wicket win over Australia in Townsville on Sunday.

After being sent into bat by the Indians, the Aussies were restricted to just 9-194 from their 50 overs, with seamers Sandeep Sharma and Harmeet Singh taking 4-51 and 2-33 respectively. In reply, a brilliant unbeaten 112 from number three Unmukt Chand saw India mow down the target with few problems and they reached 3-198 in the 43rd over.

The Australian innings was on the back foot almost immediately, with medium pacer Kamal Passi drawing an edge from opener James Peirson (5), who was caught behind by India wicketkeeper Smit Patel. From there the wickets kept on tumbling for the Australians, with Kurtis Patterson (0), Travis Head (12) and Will Bosisto (5) making little impression on the scorers. When left-arm orthodox spinner Vikas Mashra had opener Meyrick Buchanan (59) caught behind the Australians were in deep trouble at 5-114. Nick Stevens showed some fight with a patient 24, and a gritty unbeaten 41 from Sam Hain gave the bowlers some runs to play with it, but it never looked like being enough.

The Australians had their tails up early, however, when speedster Pat Cummins removed openers Akhil Herwadkar (2) and Manan Vohra (23), but Chand's appearance immediately had the run rate moving in an upward direction. The right-hander guided the tourists home with a superb 112 from 146 balls, while paceman Gurinder Sandhu was the only other Aussie to take a wicket.

The win completed a remarkable turnaround for the Indians, who went winless in the group section of the competition before thumping first-placed England in their semi-final and then easing past the host nation in the final.

बस भात खाओ फुस्सैन मारो...


कल के अमर उजाला के हल्द्वानी से निकलने वाले संस्करण में स्थानीय संपादक जनाब सुनील शाह का ये लेख छपा है. मन में आया काश ऐसी बातें हफ्ते में एक बार ही सही देश के हर स्थानीय अखबार में छपा करतीं. आपसे बांटने का मन हुआ -




बस भात खाओ फुस्सैन मारो...

ईश्वर है या नहीं। इसका ठोस जवाब किसी के पास नहीं। लेकिन एक और सवाल है जो इसका जवाब है - सरकार है या नहीं। जो जवाब ईश्वर के होने या न होने का है, वही जवाब सरकार पर सवाल का है। दोनों नीली छतरी के इस या उस पार रहते हैं। कभी किरपा कर दी तो रियाया (यानि भक्तजन ) धन्य। ये भक्त या रियाया हमेशा दुखी ही रहते हैं, रुऊंटे हैं, कलपते रहते हैं। रोते-रोते आए हैं रोते-रोते जाएंगे। तूने ये नहीं दिया, तूने ये नहीं किया। पानी दे दो, गैस दे दो, बिजली दे दो, बच्चों को पढ़ा दो, फोड़े- फुंसी पक रहे हैं, डाक साब चीरा लगा दो।

जेब हमेशा खाली रहती है और पेट पीठ पर ही लगा रहता है, कभी भरता ही नहीं। चाहिए तारे, पेट में कुछ नहीं प्यारे। पीपली लाइव का नत्था याद है। नेताजी कहते हैं - बेटा इस देश में कुछ फ्री में नहीं मिलता। सरकार कैसे दे देगी। एक लाख रुपए मिलेंगे, लेकिन मरना पड़ेगा।

अरे रियाया कोई धंधा कर ले। स्कूल का चोखा है, कापी किताब ही बेच ले। काफी कट है। हर सीजन में लाखों बचते हैं। कोई महंगाई का रोना रोकर गिड़गिड़ाए तो और जोर से रोना शुरू कर देना- बचता ही क्या है, मिलता ही क्या है। तिजोरी कौन चेक कर रहा है। वैसे अब तो ये चढ़ दौड़ते हैं, लेना है तो लो नहीं तो आगे बढ़ो। सरकार कहती है कि मुक्त मंडी में ग्राहक का बाजार है वस्तु का नहीं पर, यहां तो फल वाला भी आगे बढ़ लो कहता है।

हां कुछ नहीं तो प्लाट काटो। नेता, अभिनेता, इल्लू, पिल्लू, जुल्मी, यानि हर दूसरा प्लाट काट रहा है। पहाड़ क्या प्लेन्स क्या। कौन-कौन ये धंधा कर रहा है और कौन-कौन खरीद रहा है अगर सुनोगे तो छोटे-मोटे स्विस बैंक सा पिटारा खुल जाएगा। अदने सा अदना अफसर रिजार्ट बनाने की औकात रखता है। छोड़ो सब चलता है।

सरकारी जमीन पर कब्जा भी कर सकते हो। फिक्र नहीं, अपने अब्बा ही की है। मोमो, चाउमिन एक्सपर्ट बन जाओ। कौन पूछ रहा है। हमारे पेट में इतना तेजाब है,  सब गल जाएगा। जिन पर तेजाब कम है उनके लिए सरकार ने ठेके खुलवा दिए हैं। मर मरा भी गए तो क्या फर्क। ऊधमसिंह नगर में सौ दिन में 118 लोग मर चुके हैं। एक और मर जाएगा। घर वाले भी तेरहवीं के बाद भूल जाते हैं। जो मर गया सो तर गया। अरे हां याद आया यहां तो सरकार मरने परभी कुछ नहीं दे रही। अच्छा हुआ नत्था ऊधमसिंह नगर में नहीं था।

फटे में पैर देने की आदत है तो पत्रकार बन जाओ। सड़क क्यों नहीं बनी, नहर नहीं ढकी, डाक्टर साब मर्ज पर नजर रखो जेब पर नहीं, इलाज क्यों नहीं हो रहा, कूड़ा क्यों नहीं उठ रहा। हर काम के लिए पूरा सरकारी अमला है। नहीं करता काम तो तुम क्यों दुबले हुए जा रहे हो। सरकार उसको तनखा दे तो देती ही है। पर माया तो ऊपरी की है। तनख्वाह के लिए तो गुल्लक है। ऊपरी इतनी माया भी है कि बैंक ही खोल दे।

कुछ और काम भी हैं। बड़ी तेजी से नमो नारायण आते हैं। गाड़ी- बंगला एक से बढ़कर एक, एक के बाद एक। कोई नहीं पूछता कहां से आया। कुछ दिन पहले तक तो चप्पलें चटकाता था।

वैसे चिंता न करो ऊपर वाला सब देख रहा है। बस थोड़ा कारपोरेट कल्चर आ गया है। काम का बंटवारा हो गया है । अलग अलग ठेके हैं, पहले आओ-पाओ भी है। जैसा रिश्ता वैसी मुंह दिखाई। कमीशन एजेंट भी हैं। पहले उनके पास जाओ, फिर ऊपर और ऊपर। तब भी बच गए तो सीधे ऊपर।

अच्छा रिरियाना बंद करो। तुम्हारे बस का कुछ है नहीं। आदि काल से चला आ रहा है, अनादि तक चलेगा। भात है न। तो मियां भात खाओ फुस्सैन मारो। कहीं ऐसा न हो ये भात भी मिलना बंद हो जाए।

Saturday, April 14, 2012

स्कॉटिश मशकबीन का जादू


स्कॉटलैंड की मशकबीनों पर बजाई जाने वाली सबसे मशहूर धुन स्कॉटलैंड द ब्रेव से अपने दिन का आगाज़ कीजिये. चर्चित फिल्म डैड पोयट्स सोसाइटी की शुरूआत में इस धुन का प्रयोग हुआ है.

 

डाउनलोड यहाँ से करें - http://www.divshare.com/download/17386661-600

Friday, April 13, 2012

उस्ताद मज़हर अली खान और उस्ताद जवाद अली खान - पटियाला घराने के ध्वजवाहक


बंगलादेश में रहनेवाले मेरे संगीतकार मित्र सानी जुबैर का नाम आप एकाधिक दफा कबाड़खाने में देख चुके हैं. जुबैर की मेरी दोस्ती १९९० से है जब वह मुझे नैनीताल में मिला था. उसके बाद शुरू हुआ अंतरंगता का सिलसिला आज तक कायम है. हमारी मुलाकातों के सिलसिले दिल्ली, विएना और प्राग और एम्स्टर्डम तक फैले हुए हैं. भारतीय शास्त्रीय संगीत का छात्र जुबैर एक मायने में अद्वितीय है कि एम्स्टर्डम के रॉयल स्कूल ऑफ म्यूजिक में छः साल की फैलोशिप पाने वाला वह पहला दक्षिण एशियाई रहा है.एम्स्टर्डम में उसने पाश्चात्य संगीत की बारीकियां सीखीं. फिलहाल वह ढाका में रहता है और बंगलादेश में उसे एक स्टार का दर्ज़ा हासिल है.

भारतीय शास्त्रीय संगीत में उसके गुरु हैं पटियाला घराने के बड़े गुलाम अली खान साहेब के पोते उस्ताद मज़हर अली खान और उस्ताद जवाद अली खान. उनके एक वीडियो का लिंक आज मुझे जुबैर ने भेजा है. आपके साथ बाँट रहा हूँ

आव म्हारा मनबसिया रे


वियोग- श्रृंगार का राग गुणकली. एक बेहद छोटी सी कम्पोजीशन. आवाज़ पंडित कुमार गन्धर्व की. जादू वही लगातार - लगातार

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तारीफ़ों की चाशनी में चिपचिपी नहीं हुई है हमारी आत्मा



राजेश सकलानी के संग्रह पुश्तों का बयान की शीर्षक कविता पढ़िए -


पुश्तों का बयान 

हम तो भाई पुश्तें हैं
दरकते पहाड़ की मनमानी
सँभालते हैं हमारे कंधे 

हम भी हैं सुन्दर, सुगठित और दृढ़ 

हम ठोस पत्थर हैं खुरदरी तराश में 
यही है हमारे जुड़ाव की ताकत 
हम विचार और युक्ति से आबद्ध हैं 

सुरक्षित रास्ते हैं जिंदगी के लिए
बेहद खराब मौसमों में सबसे बड़ा भरोसा है
घरों के लिए 

तारीफ़ों की चाशनी में चिपचिपी नहीं हुई है 
हमारी आत्मा 
हमारी खबर से बेखबर बहता चला आता 
है जीवन।

(पुश्ता : भूमिक्षरण रोकने के लिए पत्थरों की दीवार। पहाड़ों में सड़कें, मकान और खेत पुश्तों पर टिके रहते हैं।) 

आरज़ू अपनी धुन का है पक्का - राजेश सकलानी की कविता

कल आपने राजेश सकलानी के नए कविता-संग्रह 'पुश्तों का बयान' से एक कविता पढ़ी थी. आज उस संग्रह पर हमारे कबाड़ी मित्र शिवप्रसाद जोशी की एक टिप्पणी उनकी वेबसाईट हिलवाणी से साभार प्रस्तुत है और एक कविता भी. जल्द ही इस संग्रह से कुछ और कविताएँ आपको कबाड़खाने में और पढ़ने को मिलेंगी.

राजेश सकलानी का कविता संग्रहः पुश्तों का बयान 


-शिवप्रसाद जोशी 


किसी जगह की इस तस्वीर में किसी समय की धूप है तक़लीफ़ों से निपटकर आते हैं कुछ जने भीतर से ख़ुशी आती है और त्वचा में थोड़ा सा रंग पहचान में आती हैं आंखें फिर हवा आती है किसी दिन की चिड़िया गाती है. राजेश सकलानी की कविता ऐसे ही किसी दिन की कविता की तरह आती है. 20वीं सदी की समाप्ति पर उनका पहला संग्रह आया था. यानी 2000 में. 


21वीं सदी के दस साल पूरे होने के बाद उनका दूसरा संग्रह आया है. जिसका नाम ज़रा अटपटा सा है पुश्तों का बयान. जैसे ये नाम भी ज़रा जानबूझकर चुना गया लगता है. पुश्तों के हवाले से राजेश अपनी कवि उपस्थिति की सार्थकता को भी रेखांकित करना चाहते हैं. और ये जायज़ भी है. राजेश हिंदी के समारोही और अलंकरणी वातावरण से दूर ही देहरादून में रहते आए हैं. वो ज़रा हिंदी के सत्ता विमर्शों के जहां जहां हैं उन नवकेंद्रों से भी दूरदूर ही रहते आए हैं. उनकी कविता में किसी दिन की चिड़िया गाती है. हर दिन का शोर नहीं बजबजाता रहता है. राजेश किसी दिन की शिनाख़्त में रहने वाले कवि हैं. 


वो हर दिन की चतुराई से बचे रहने का अनुशासन जानते हैं. उनकी कविता में पुश्तों का बयान है कि हम तो भाई पुश्ते हैं दरकते पहाड़ की मनमानी संभालते हैं हमारे कंधे. राजेश सकलानी की कविता के बारे में वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी का कहना है कि वो बड़े हल्के हाथ से लिखते हैं. यानी उसमें कलात्मकता बौद्धिकता और फ़लसफ़ाई शुद्धता की ऐंठन नहीं है. उनकी रचनाएं पुश्तों की तरह ही टेढे़ मेढे़ से अटपटे से एक के ऊपर एक यूं ही रखी हुई सी जान पड़ती हैं. लेकिन आंतरिक रूप से मज़बूत और बंधी हुई. मुकम्मल. कम्प्लीट. रात यूं ही नहीं जाती कविता श्रम और रोमान का एक गीत है. इस पूरी कविता में लयबद्धता है. रात के बारे में हिंदी में जो अच्छी कविताएं हैं उनमें राजेश सकलानी की ये कविता ज़रूर याद रखे जाने लायक है. 


रात को हमारे समय के साधारण संघर्षों, चिंताओं और सरोकारों से जोड़ते हैं. उनकी कविता में जो रात गुज़रती है उसमें एक आम मनुष्य का इत्मीनान भी है. जैसे जैसे रात गहराती जाती है हमारे सामने उसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी खुलती जाती है. नींद खुलती है तो लगता है उजाला अपने आप आया है... राजेश की कविता में धीरज और सहनशीलता और चुप्पी का फैलाव है. उनकी ज़्यादातर कविताएं इन्हीं ख़ूबियों से जैसे बनी हैं. 


बलदेव कविता पलायन की विडम्बना का शोर नहीं मचाती वो इतने पैने ढंग से चुप कविता है कि आप उसे पूरा पढ़कर तनाव महूसस करते हैं. बलदेव उसमें चला गया बलदेव है. जाते हुए आदमी के बारे में ये कविता एक एक सिनेमाई इफ़ेक्ट भी पैदा करती है. आखिर में बलदेव की हड़बड़ी भी इतिहास के विरुद्ध एक भाषा है जिसे वह शब्दों में बयान नहीं करता और पहाड़ जैसे विषय पर चुप रह जाता है. एक कविता है अमरीकाः कोई आसान सा किस्सा अमरीका का नहीं मिलता कोई बंदा नहीं मिलता पानी पीते लापरवाही से कमीज़ भीग जाती हो कोई बात बने जिसे मैं अपनी तरह से कह डालना चाहता हूं वह चले और ज़मीन पर चलते हुए कोई याद बनती हो़ कभी वह आए मेरी तरफ और मैं भूलता रह जाऊं पिछले सारे शिकवे


राजेश सकलानी इतने शेड्स और इतनी रंगतों और इतने कथनों में अपनी कविता को ले जाते हैं कि सहसा वो पकड़ में नहीं आती. क्योंकि आप कविता को एक तैयारी से पढ़ने का उपक्रम करते हैं. राजेश ऐसी किसी तैयारी और साजसज्जा विहीन कविता के रचनाकार हैं. वहां आपको उपक्रम नहीं करने होते. वहां लापरवाही है खटके हैं, भूले हैं संकोच हैं और इन सबके समांतर एक अमेरिका है, दमन है, फ़ौज है, जबड़े हैं और हिंसा है. 


राजेश सकलानी की कविता सार्वजनिक जीवन की उन सहजताओं आम लोगों की दिनचर्या के प्रसंगों और वंचितों ग़रीबों के उस स्वाभिमान को उन मौलिकताओं को सामने लाती है, बाज़ार के उन किनारों के बारे में बताती है जहां से हर वक़्त के लंपट और ख़ुदगर्ज़ लोग भी थोड़ा सहज और मनुष्य बनकर ही गुज़रते हैं. वो डीएल रोड के एलेक्ज़ेडर की कविता है, पल्टन बाज़ार के पास पेशाब वाली गली के बारे में बताती है. वो अमरूद वाले से लेकर शेर मोहम्मद की ज़िंदगियों का मुआयना करती हुई एक आहत उद्वेलित आत्मा की तरह पूरे शहर का चक्कर काटती है. 


शहर को, उसके जीवन को, उसके आम लोगों को उसके नवधनाढ्य को इतनी बेचैनी और इतनी तीव्र अनुभूति और इतनी निष्कपटता और इतनी इमोश्नल इंटेलिजेंस से देखने वाली ये विरल कविताएं हैं. एक कवि के रूप में राजेश की ये उपलब्धि है कि वो भावुकता और निष्क्रिय क्रोध की विक्टिम होने से कविता को बचा पाए हैं. राजेश सकलानी की कविता शहर के तमाम हाशिए का रुख़ करती है जहां भाई जी ज़रा जैसा अधूरा सा वाक्य बोलना ही काफ़ी है और बोलकर कोई प्यासा पानी पी सकता है.


वहां लाचारी बेकारी भुखमरी बदहाली फैली हुई है लेकिन इन पर रोने के बजाय राजेश की कविता उन्हें प्रतिरोध के औजारों में बदल देती है. उस अन्याय की शिनाख़्त का रास्ता और उससे लड़ने की एकजुटता उस कविता के आसपास बनने लगती है. लेकिन ये काम ख़ामोशी से होता है जैसे रात गुज़रती है जैसे नल से पानी बहता है जैसे बस चलना होता है. शहरी निम्नमध्यवर्ग और ग़रीब जीवन की इस निराली एकजुटता को दिखाने वाली राजेश सकलानी की कविता हिंदी में अपनी तरह की है. 


इस कविता में सबसे अलग बात ये भी है कि भाषाई बाज़ीगरी से परहेज़ करती हुई ये जीवन की खिलंदड़ियों में भी आवाजाही करती रहती है. राजेश ने भाषा का पराक्रम नहीं गढ़ा है उन्होंने जीवन को देखने की सामर्थ्य बढ़ाई है. जो यूं इन दिनों की भाषा समाज राजनीति में कितनी क्षीण होती जाती है. 


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पेश है संग्रह से एक कविता


अमरूद वाला


लुंगी बनियान पहिने अमरूद वाले की विनम्र मुस्कराहट में 
मोटी धार थी, हम जैसे आटे के लौंदे की तरह बेढब 
आसानी से घोंपे गए 


पहुँचे सीधे उसकी बस्ती में 
मामूली गर्द भरी चीजों को उलटते-पुलटते 
थोड़े से बर्तन बिल्कुल बर्तन जैसे
बेतरतीबी में लुढ़के हुए
बच्चे काम पर गए कई बार का 
उनका छोड़ दिया रोना फैला


फ़र्श पर एक तीखी गंध अपनी राह बनाती, 
भरोसा नहीं उसे हमारी आवाज़ का।

Thursday, April 12, 2012

माए नी माए मेरे गीतां दे नैणा विच बिरहों दी रड़क पवे


शिव बटालवी की विख्यात रचना जगजीत सिंह की आवाज़ में. रिकॉर्डिंग बी बी सी के लिए की गयी थी. वीडियो लिंक उपलब्ध कराने के लिए प्यारे दोस्त सानी जुबैर का शुक्रिया -

पप्पू जी का इतिहास ज्ञान


"पुश्तों का बयान" राजेश सकलानी का नया कविता संग्रह है. किताब के ब्लर्ब पर असद ज़ैदी लिखते हैं - "अपनी तरह का होना ऐसी नेमत (या की बला) है जो हर कवि को मयस्सर नहीं होती, या मुआफ़िक़ नहीं आती. राजेश हर ऐतबार से अपनी तरह के कवि हैं. वह जब जैसा जी में आता है वैसी कविता लिखने के लिए पाबन्द हैं, और यही चीज़ उनकी कविताओं में अनोखी लेकिन अनुशासित अराजकता पैदा करती है."


इस संग्रह से आज एक कविता -

पप्पू जी का इतिहास ज्ञान

सरदार पटेल अगर प्रधानमंत्री बन गए होते
देश का नक्शा कुछ और होता

गांधी और नेहरु ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा
महमूद गजनवी और औरंगजेब
मध्यकाल से दो नाम उन्हें बिद्काते हैं
बहुत से अनुमान उनके वैदिक काल के बारे में हैं

सारा ज्ञान अँग्रेज़ चोर कर ले गए
कुछ भी नहीं बचा पप्पू जी के पास!