Friday, December 21, 2007

भारतीय समाज का दा विंची कोड!

मैकाले पुराण इस समय छेड़ने की वजह अक्टूबर महीने में यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनिया से मेरे पास आया एक निमंत्रण है। निमंत्रण एक पार्टीनुमा कार्यक्रम में शामिल होने का था। कार्यक्रम 26 अक्टूबर के लिए था। ये पढ़कर मैं चौंका कि ये निमंत्रण मैकाले का जन्मदिन मनाने के लिए किया जा रहा है। इसे डे ऑफ रिजन यानी तर्क-दिवस नाम दिया गया था। कार्यक्रम मैकाले के जन्मदिन के एक दिन बाद के लिए था। निमंत्रण में ये साफ लिखा था कि इसमें फिलाडेल्फिया की कंपनी टेंपसॉल्यूशंस के मालिक माइकल थेवर भी शामिल होंगे। माइकल थेवर मुंबई के स्लम में बड़े हुए और और अब वो अमेरिका में अफर्मेटिव एक्शन के चैंपियन हैं।

उस निमंत्रण पत्र की कुछ पंक्तियां यहां रख रहा हूं। पार्टी में मैं जा नहीं पाया, इसलिए वहां क्या हुआ, इसका ब्यौरा देना संभव नहीं है। आप भी पढ़िए और चौंकने के लिए तैयार हो जाइए -

मैकाले शायद पहला शख्स था जिसने भारत के स्वतंत्र होने की कल्पना की थी। मैकाले का 10 जुलाई, 1833 को ब्रिटिश संसद में दिया गया भाषण देखिए - "भारत के लोग कुशासन में रहें और हमारे गुलाम रहें, इससे बेहतर है कि वो आजाद हों और अपना शासन अच्छे से चलाएं।"

इसी भाषण में मैकाले कहते हैं- "हमें कहा जाता है कि ऐसा समय कभी नहीं आएगा जब भारतीय लोग सिविल और मिलिट्री सर्विस में ऊंचे पदों पर आसीन होंगे। मैं इस सोच का कड़ा प्रतिवाद करता हूं।"

रंग में भारतीय पर विचार में अंग्रेज वाला बार बार दोहराया जाने वाला पूरा कोट इस तरह है-

“"In point, I fully agree with the gentlemen to whose general views I am opposed to. I feel with them that it is impossible for us, with our limited means, to attempt to educate the body of the people. We must at present do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern; a class of persons, Indian in blood and colour, but English in taste, in opinions, in morals, and in intellect. To that class we may leave it to refine the vernacular dialects of the country, to enrich those dialects with terms of science borrowed from the Western nomenclature, and to render them by degrees fit vehicles for conveying knowledge to the great mass of the population”.

भारतीय इतिहास की हर किताब में इस कोटेशन की पहली और आखिरी लाइन का जिक्र नहीं होता। पहली लाइन में इस बयान का संदर्भ है कि "जब तक हम भारत के सभी लोगों को शिक्षा दे पाने में समर्थ नहीं हो पाते हैं" जबकि आखिरी लाइन में बताया गया है कि किस तरह भारतीय भाषाओं में पश्चिमी शब्दावलियों का समावेश किया जाएगा ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक ज्ञान पहुंचाया जा सके।

भारतीय और अरबी साहित्य को नीचे दर्जे का मानने वाले मैकाले अपने देश के पुराने साहित्य के बारे में भी अच्छी राय नहीं रखते थे। इसलिए इस बारे में उनका विचार नस्लीय भेदभाव से कहीं ज्यादा नवीन और प्राचीन के टकराव का नतीजा है।

मैकाले का भारत पर दो कारणों से निर्णायक असर हुआ है। पहला तो शिक्षा के क्षेत्र में उनके विचारों को अंग्रेजी सरकार ने माना और देश में उच्च शिक्षा के लिए अंग्रेजी माध्यम को मान्यता मिली। उनका दूसरा योगदान देश में आईपीसी और सीआरपीसी लागू करने की दिशा में था, जिसकी वजह से लगभग कई हजार साल बाद भारत में अलग अलग जाति के द्वारा किए गए समान अपराध के लिए समान दंड के कानून का चलन शुरू हुआ।
(मेरी टिप्पणी- मैकाले से नफरत करने के बावजूद भारत में आज भी ये दो चीजें बदली नहीं हैं।)

1933 के उसी भाषण के ये अंश देखिए।

"…सबसे बुरी व्यवस्था वो है जिसमें ब्राह्मणों के लिए हल्के दंड का प्रावधान है क्योंकि वो सृष्टिकर्ता के मुंह से उत्पन्न हुए हैं। जबकि पैरों से उत्पन्न शूद्रों के लिए कड़े दंड का प्रावधान हैं। जाति विभेद और भेदभाव के कारण भारत का काफी नुकसान हो चुका है।"

हिंदू धर्म और शिक्षा के बारे में मैकाले प्राच्यविदों को जवाब देते हैं -

" (आपकी बात मानें तो) हमें उन्हें गलत इतहास, गलत खगोलशास्त्र, गलत चिकित्साशास्त्र पढ़ाना होगा क्योंकि गलत बातें सिखाने वाला धर्म इनसे जुड़ा है... भारतीय युवकों को ये सिखाना उनका समय नष्ट करना होगा कि गधे को छूने के कैसे खुद के पवित्र करें और बकरी मारने के पाप से मुक्त कैसे मिलेगी।"

इस निमंत्रण पत्र के मुताबिक क्लाइव ने हिंदुस्तानियों को हराकर उन्हें गुलाम बनाया, ये बात हिंदू मुख्यधारा (सवर्ण चिंतन) बर्दास्त कर सकती है, करती है। इसलिए क्लाइव से नफरत करने की बात हमें नहीं सिखाई जाती। लेकिन भारतीय संस्कृति, जातिव्यवस्था, शिक्षा प्रणाली और धर्म को चुनौती देने वाला मैकाले को बर्दास्त कैसे किया जा सकता है?

(मेरी टिप्पणी)
एक सवाल है आपसे। आज कल्पना कीजिए अगर ब्रिटिश संसद की उस बहस में मैकाले की हार हो गई होती और प्राच्यविद जीत गए होते। उस आधुनिक भारत कि कल्पना कीजिए जहां के सभी विश्वविद्यालयों और इंस्टिट्यूट में संस्कृत और फारसी और ऊर्दू में पढ़ाई हो रही हो। और कल्पना कीजिए उस भारत की जहां एक ही अपराध के लिए ब्राहा्ण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र अलग-अलग सजाएं भुगत रहे होते।

यानी इस मैकाले में अभी बहुत जान है! कई सवाल खड़े करता है ये मसला। बहस में बने रहिए हमारे साथ। आगे इस निमंत्रण पत्र में लिखी बातों की सच्चाई जानेंगे और उस कोड को ब्रेक करने की कोशिश करेंगे, जिसका नाम आधुनिक भारतीय इतिहास है। अभी किसी फैसले पर मत पहुंचिए। मानस खुला रखिए और हो सके तो किसी कोने में पड़ी इतिहास की किताबों की धूल झाड़िए। क्योंकि हमारे ही देश के कुछ लोग मैकाले की तस्वीर को जूते नहीं मार रहे हैं, उसकी पूजा कर रहे हैं।

तो दोस्त, सतरंगी भारतीय समाज जितने जवाब देता है उससे कहीं ज्यादा सवाल खड़े करता है। हम सभी भाग्यशाली है कि इतने रोचक और तेजी से बदलते समय को देख पा रहे हैं। जारी रहेगी ये चर्चा।

2 comments:

स्वप्नदर्शी said...

बहुत अच्छी जानकारी आप दे रहे है. हमारा स्वदेसी राग भी लम्पटपने मे ही लिपटा हुया है, और कई परतो मे अपनी गन्दगी ढ्कने का प्रयास भर है. खास्तौर पर लिंग और जातीगत भेद्भभवो को बरकरार रखने का सबसे कारगर् हथियार.

बहुत पहले एक प्रो. जिनका मै बहुत आदर करती थी, एक दिन किसी बात पर उन्होने कहा कि भारत मे दो चीज़े ज़रूर काम करती है, भले ही देरी से, एक पोस्ट ओफिस , दूसरा रैल, और ये दोनो ही अंग्रेज़ो की देन है. उस दिन मुझे थोडा गुस्सा आया कि ये पढा-लिखा आदमी हमारी दो सो साल की गुलामी के लाभ बता रहा है. पर फिर सोचने पर लगता है, कि हमने अपने बूते पर कुछ भी तो ऐसा नही बनाया है, जिससे हिन्दुस्तान एक सूत्र मे जुड सके.

हमारी गुलामी बुरी थी, पर उसके साथ-साथ, कुछ अच्छी बाते भी इस समय काल मे भारत आयी, जो हमारी उन्नती के लिये कारगर है. निसन्देह खुले दिमाग से उनके बारे मे सोचने की ज़रूरत है. और स्वीकार करने की भी, इससे हम देश्द्रोही नही बन जाते....

अजेय said...

सोचिए.... , सोचते क्यों नहीं. अच्छी जानकारियाँ. मज़ा आया दिलीप भाई.