Saturday, November 28, 2009

एक हिमालयी यात्रा: चौथा हिस्सा



(पिछली किस्त से जारी)

कैम्प का कमान्डैन्ट उत्तर भारतीय नौजवान है. उसकी यूनिट में दर्ज़न भर सिपाही हैं. शुरुआती जांच पड़ताल के बाद हमारे साथ उसका सुलूक दोस्ताना हो जाता है. सुरज कभी भी डूबने वाला है - हमारे चारों तरफ़ का लैन्डस्केप बहुत शानदार है. कमान्डैन्ट एक चोटी की तरफ़ इशारा कर के बतलाता है कि व्यांस घाटी पहुंचने के लिए हमें वहां से होकर जाना होगा - "वो सिन-ला है और ये दाईं तरफ़ को पंचचूली टू" हमने इतने पास से हिमालय को पहले कभी नहीं देखा है.

हमें यह भी बताया जाता है कि तिब्बती जनजाति खम्पा का भारत में स्थित इकलौता मन्दिर बीदांग में है. खम्पा लोग अपने साहस और शौर्य के लिए जाने जाते रहे हैं.



किसान और घुमन्तू खम्पा लोग तिब्बती प्रान्त सिचुआन के पश्चिमी इलाके के मूल निवासी हैं. खाम उनकी मातृभूमि का नाम है. एक ज़माने में समूचे हिमालयी इलाके में खम्पाओं का कहर था. ’सेवेन ईयर्स इन तिब्बत’ लिखने वाले हाइनरिख हैरर ने कहीं इस बात का ज़िक्र किया है. कई और यात्रियों ने भी खम्पाओं के बारे में लिखा है. १९६० के दशक के एक मानवशास्त्री माइकेल पेइसेल ने उनका वर्णन करते हुए लिखा है: "खम्पा लोग छः फ़ीट लम्बे होते हैं ... भारी जूते, खाकी पहनावे और चाल-ढाल में एक आदिम आकर्षण ... अन्य तिब्बतियों की तुलना में उनके नक्श कम मंगोल होते हैं - बड़ी-बड़ी आंखें और सपाट चेहरे ..." उनमें से कई अब नेपाल और भारत में रहने लगे हैं.

मुझे खम्पा लोगों के रीति-रिवाज़ों पर पढ़े किसी लेख की धुंधली सी स्मृति है - मुझे इतना ही याद है कि उसमें रोते हुए सियारों और हाड़ कंपा देने वाली ठण्डी रातों की विकट छवियां अटी पड़ी थीं.

एक सिपाही बताता है कि खम्पा लोग अब भी हर साल पूजापाठ के लिए यहां आते हैं. हमारे सामने सूखी बंजर ज़मीन का फैलाव है - यहीं कहीं उनका मन्दिर होगा. मैं वहां जाना चाहूंगा पर सम्भवतः उसके लिए पर्याप्त समय नहीं बचा है.

हम अब भी बाहर ही बैठे हैं. थोड़ी ठण्ड भी पड़ने लगी है. कमान्डैन्ट हमें अपने जीवन की तकलीफ़ों के बारे में बता रहा है लगातार. इस दुर्गम स्थान पर उसे और उसके साथियों को रोज़ बिसियों कष्ट झेलने होते हैं. कैम्प में दो बैरकें हैं. टिन की बनी इन लम्बी बैरकों को देखना उत्साह को निचोड़ लेने का काम करता है. पास ही डेढ़ कमरे का एक स्थाई मकान भी है - यह कमान्डैन्ट साहब का आवास है.

कमान्डैन्ट हमें एक सस्ती सिगरेट पेश करता है और फिर वही शिकायतें कि यहां तो तमीज़ की सिगरेट तक नहीं मिलती वगैरह वगैरह. वह और खुल जाता है और अपने घर, परिवार, पढ़ाई और आई.टी.बी.पी.. में अपने चयन की प्रक्रिया के वर्णन प्रस्तुत देता जाता है.

सबीने के चेहरे पर असहायता मुझे साफ़ नज़र आ रही है - इस एकतरफ़ा बातचीत से तो बेहतर होता हमें अपनी पीठ टिकाने को ज़रा सी जगह मिल पाती. हमारी किस्मत से अन्धेरा जल्दी हो जाता है.

उदार सिपाहियों ने हमारे लिए एक बैरक खाली कर दी है. यह सूचना मिलते ही हम कमान्डैन्ट की अनुमति लेकर बैरक की तरफ़ चल पड़ते हैं. बैरक काफ़ी बड़ी और ऊंची है. नीचे की तरफ़ लकड़ी के तख़्ते ठुंके हुए हैं - यही सिपाहियों के लिए चारपाई का काम करते हैं. हमने आज तक स्लीपिंग बैग के अलावा कुछ भी गरम बिस्तर साथ नहीं रखा है और हम जानते हैं कि रात भयंकर ठण्ड से सामना होना है.



बाहर अन्धेरा है. जयसिंह और लाटू काकू के सोने का रसोई में हो गया है. कमान्डैन्ट हमें अपने निवास पर आने का आमन्त्रण देता है. इस ऊबे हुए नौजवान के साथ बैठकर हम दो व्हिस्की पीते हैं. इतने हफ़्तों लगातार च्यक्ती पीते रहने के बाद व्हिस्की का स्वाद थोड़ा अजीब लगता है पर परिणाम वांछित ही होता है. कमान्डैन्ट अब पूरे जोश में है और अपनी सैन्य उपलब्धियों के बारे में बता रहा है. वह बताता है कि यहां रहना कैसी बहादुरी और जीवट का काम है. सच भी है. सर्दियों के मौसम में यहां रह पाने की कल्पना कर पाना भी असम्भव है.

एक सिपाही आकर बता जाता है कि खाना पन्द्रह मिनट में तैयार हो जाएगा. हम खाने से पहले थोड़ा हाथ-मुंह धोने के बहाने से अपनी बैरक में चले जाते हैं. हम जैसे ही वहां पहुंचते हैं, एक सिपाही विनम्रतापूर्वक हमारे पीछे-पीछे आता है और ठेठ कुमाऊंनी में मुझसे मुखातिब होता है: "मैं भी कुमाऊंनी हुआ साहब! बागेश्वर का हूं. इतनी ठण्ड में आप रात कैसे काटोगे? अभी तो आपको बस यही दे सकता हूं." वह अपने ओवरकोट के भीतर से एक गर्म शॉल निकालता है. "और शायद यह भी आपके काम आए" इस बार वह व्हिस्की की बोतल निकालता है.

"नहीं, नहीं. हमने पी ली है थोड़ी. आप रखिये इसे. मैं यह नहीं ले सकता." मैं उसे मना करता हूं पर उसके चेहरे के भाव साफ़ बताते हैं कि कोई आदमी इतने प्यार से दी जा रही चीज़ को कैसे लौटा सकता है - वो भी शराब की बोतल!

"आप को बाद में ज़रूरत पड़ सकती है. उस तरफ़ जौलिंगकौंग में कुछ नहीं मिलेगा. और मैं आपका भाई नहीं हूं क्या?" अब इमोशनल ब्लैकमेल किया जाता है. "और एक कुमाऊंनी दूसरे कुमाऊंनी के लिए इतना तो कर ही सकने वाला हुआ."

"ठीक है, ठीक है, अगर आप ऐसा ही चाहते हैं तो. पर आपको एक पैग हमारे साथ पीना पड़ेगा." मैं मान जाता हूं.

वह अपने ओवरकोट के अन्दर से स्टील के तीन गिलास निकालता है. उसे शायद पता था कि ऐसा ही होगा. वह बाहर जाता है पानी लाने के लिए.

यह सब इतनी तेज़ी से हुआ है कि सबीने की समझ में कुछ नहीं आया. मैं उसे संक्षेप में बताता हूं - सिपाही की आहट सुनकर चुप होना पड़ता है.

वह बहुत शालीनता से एक बड़ा पैग पीकर जल्दी-जल्दी चला जाता है. शायद अब हम उसे नहीं देख पाएंगे.

वापस कमान्डैन्ट के कमरे में. कमान्डैन्ट बताता है कि हमें सुबह चार बजे जगा दिया जाएगा. अब उसकी आवाज़ थोड़ा लड़खड़ा रही है. वह बताता है कि उस तरफ़ जौलिंगकौंग की आई.टी.बी.पी. पोस्ट को हमारे बारे में सूचित कर दिया जाएगा. और हमारे रास्ते के लिए लन्च पैक कर दिया जाएगा. मैं कृतज्ञता जताता हूं. अचानक उसका स्वर गम्भीर हो जाता है - "अगर आप को रात को बाहर जाना हो तो निश्चित कर लें कि आपने पहरे पर तैनात सिपाही को बतला दिया है. यदि आप ऐसा न कर पाएं और ’थम’ की आवाज़ सुनें तो जहां-जैसे खड़े हैं वहीं जम जाएं. एक कदम न हिलें. वरना वह गोली चला देगा. आप बस वहीं रहें, वह आपके पास आएगा और सब ठीक हो जाएगा."

कमान्डैन्ट के थम कहने का तरीका मुझे मनोरंजक लगता है.

"जी सर! हम ध्यान रखेंगे!"

"तो याद रहे. थम की आवाज़ सुनते ही आप जहां-जैसे हैं वहीं खड़े रहें."

"हां सर वरना पहरेदार गोली चला देगा और हमारी जान भी जा सकती है. हम ध्यान रखेंगे सर." खाना बहुत बेमन से पकाया गया है और नमक का अतिरेक है. कमान्डैन्ट काफ़ी टुन्न हो चुका है और ठीक से खाना भी नहीं खा पा रहा.

"हम जाएं सर? हमें सुबह निकलना होगा."

वह लड़खड़ाता हुआ हमें छोड़ने दरवाज़े तक आता है और गुडनाइट कहने से पहले कुछ अस्पष्ट वाक्य बुदबुदाता है. फिर कहता है - "ओके. गुडनाइट मैडम! गुडनाइट ब्रदर! आपकी यात्रा शुभ हो! ... पर याद रहे आपको बाहर जाना हो और थम की आवाज़ आए ..."

"हां सर" मेरी हंसी छूटने को है "हम तुरन्त रुक जाएंगे सर वरना पहरेदार ... गुडनाइट सर!"

बैरक के अन्दर हम कुछ देर को हंसते हैं. भीतर बहुत ठण्ड है और सो पाना नामुमकिन. हम बैरक के पिछले दरवाज़े से बाहर आ जाते हैं. चांद की रोशनी में सिन-ला की बर्फ़ चमक रही है. आकाश चमकीले सितारों से अटा पड़ा है. यह सब जादू सरीखा है. हम बहुत देर तक पहाड़ों और आसमान को ताकते रहते हैं. अभी नौ भी नहीं बजा है. हमें अब भी थोड़ा अनिश्चिततापूर्ण डर तो है ही. सिन-ला और उसके बारे में सुनी कथाओं ने हमें इतने दिनों से काफ़ी सहमा रखा है.

लेकिन मेरे भीतर कोई चीज़ बहुत प्रसन्न है. मैं दांतू गांव की बुढ़िया पूनी, उनके परिवार के बारे में सोच रहा हूं. मुझे कुमाऊंनी सिपाही और प्यारे और भले कमान्डैन्ट का भी ख़्याल आ रहा है. दिन भर की ऐसी ही और अच्छी बातें - जीवन इतना बड़ा लैन्डस्केप होता है - भलाई करने के लिए अपार सम्भावनाओं से भरा हुआ.

हालांकि बारिश के कोई आसार नहीं पर हम मन ही मन प्रार्थना करते हैं कि कल बारिश न हो.

बैरक के भीतर थोड़ी देर गर्मी का अहसास होता है पर जल्दी ही ग़ायब हो जाता है. सोना बहुत ही कठिन है. हमारे पास ओढ़ने को पर्याप्त बिस्तर नहीं पर एक रात की ही तो बात है. हम देर रात तक बातें करते हैं - फिर किसी पल नींद आ जाती है.

सुबह टिन के दरवाज़े पर हो रही निरन्तर खटखट से हमारी आंख खुलती है. एक सिपाही हमारे लिए गाढ़ी चाय का एक जग और गरम पानी की बाल्टी लेकर आया है. चाय का शरबत जैसा स्वाद फ़ौजी कैम्पों में अक्सर मिलने वाली चाय जैसा ही है. मैं उसे न पीने का फ़ैसला करता हूं. अपनी आज तक की सबसे कठिन यात्रा के बीच में, मैं नहीं चाहूंगा मेरा हाजमा बिगड़ जाए.

लेकिन सबीने की हालत खराब है. उसके पेट में भयंकर दर्द है. मैं राय देता हूं कि हमें एक दिन रुक जाना चाहिए पर वह कहती है वह सम्हाल लेगी.

सुबह बेहद चमकीली है. कल शाम के धुंधलाए रंग इस समय पूरी तरह निखर गए हैं. साढ़े पांच के आसपास तमाम सिपाही हमें गर्मजोशी से विदा करते हैं. हमारे लन्च के लिए परांठे और अचार की बोतल रख दिए गए हैं. मैं तेज़ तेज़ चलना शुरू कर देता हूं पर याद आता है कि सबीने अस्वस्थ है. रुकता हूं और धीमा होकर उसके साथसाथ चलता हूं. जयसिंह और लाटू काकू हमारे आगे आगे चल रहे हैं. थोड़ी सी घास और नन्ही झाड़ियों के अलावा कोई वनस्पति नहीं है. ज़मीन पथरीली होती जा रही है. भोजन की तलाश में कुछेक तितलियां उड़ रही हैं. जल्द ही वे भी नहीं होंगी. लगातार ऊपर चढ़ते हुए हम उस पहाड़ की तली पर पहुंच जाते हैं जिसकी चोटी पर सिन-ला है. हमें करीब दो घन्टे लग गए हैं. कैम्प से यह इतना नज़दीक लग रही थी. लाटू काकू हमसे रुकते रहने को कहता है ताकि सांस लेने में तकलीफ़ न हो. ज़मीन अब बिल्कुल सूखी और बंजर है. मैं आंख उठाकर पहाड़ को देखता हूं - कई जगहों पर बर्फ़ है.

सबीने का हाल बुरा है. वह चार कदम चलती है. रुकती है, चलती है, फिर रुकती है. मैं जान रहा हूं पेट में दर्द हो और उन्नीस-बीस हज़ार फ़ीट की ऊंचाई चढ़नी हो तो श्रम बहुत तकलीफ़देह होना है. लेकिन और कोई चारा भी तो नहीं है. मैं उसे चढ़ते रहने को उत्साहित करता रहता हूं. वह थके हुए हाथ से इशारा करके मुझसे कहती है कि मैं उसकी चिन्ता करना छोड़ दूं. अब रास्ते जैसी कोई चीज़ नहीं है. हमें पहाड़ की पथरीली सतह पर पैर जमाते हुए सावधानी से चलते जाना है. हम पहाड़ की पसलियों पर चढ़ रहे हैं. अचानक एक विस्फोट की आवाज़ आती है. हम रुक जाते हैं और पलटकर देखते हैं.

अलौकिक! हम काफ़ी ऊपर चढ़ चुके हैं और हमारे ठीक सामने पंचचूली की गरिमामय चोटियां हैं. आई.टी.बी.पी. के कैम्प की छतें नज़र आ रही हैं. विस्फोट की आवाज़ पंचचूली श्रृंखला में कहीं पर बर्फ़ टूटने से आई थी. अजीब भयमिश्रित प्रसन्नता में हम अवाक खड़े हैं. अचानक एक और विस्फोट की आवाज़ आती है. इस बार यह कानफोड़ू है. पंचचूली की चोटी से टनों बर्फ़ टूटकर गिर रही है - वह सरसराती हुई ढाल पर रपटती आ रही है.



बर्फ़ टूटने की आवाज़ से बड़ी, ज़्यादा कड़कदार और डरावनी आवाज़ मैंने आज तक नहीं सुनी है. यह बहरा कर देने वाली चीख जैसी होती है. यही है हिमालय! मैं अपने आप को बताता हूं और चारों तरफ़ देखता हूं. इन विराट पहाड़ों के बीच हम चार लोग कितने असहाय लग रहे होंगे - चींटियों जैसे. मान लिया इस पहाड़ की चोटी से बर्फ़ टूट कर गिरे तो! - शायद हमारे बचने की कोई राह तो नहीं ही होगी. यह विचार मेरी रीढ़ में झनझनाहट पैदा करता है. पर मुझे साहस दिखाना होगा. मैं अपने को डपटता हूं. हमें धैर्यपूर्वक चढ़ते जाना है. चोटी पर पहुंचने के बाद सब ठीक हो जाएगा. पहली बार मेरा जूता ताज़ी बर्फ़ पर पड़ता है. बर्फ़ धीरे धीरे बढ़्ती जा रही है. - एक इंच, फिर दो इंच, फिर पिंडलियों तक. मुझे अपने पैर जमते महसूस होना शुरू हो गए हैं.

(जारी)

6 comments:

अजेय said...

दिलचस्प!
दोनो किश्तें एक साथ पढ़ीं. "मरती" शब्द पर अटका. ये कौन सा पेय होगा ? वैसे मेरी बोली मे "मर" मक्खन् या घी को कहते हैं . और "ती" क अर्थ है पानी. मुझे लगा था मक्खन वाली नम्कीन चाय पेश की जा रही है.
पर आप को वह वाईन और बीयर जैसी लगी. बाद मे वह बोतल मे दिखाई देती है.
एक और बात ! हमारे यहाँ "चग्ति " जौ से बनी brewed पेय होती है. बीयर जैसी. शराब तो उसे डिस्टिल कर के बनती है उसे अरक, (सरा),कहते हैं. आप लोगों ने क्या पी?
इस लिए पूछ रहा हूँ कि भीतरी हिमालय की संस्कृति मे जौ से बने मादक द्रव्यों की बड़ी अहमियत है.
चलते रहिए मैं ऊपर जोत पर इंतज़ार कर रहा हूँ.

Ashok Pande said...

भाई अजेय

कुमाऊं के शौका समाज में भी ’मर’ और ’ती’ के वही अर्थ हैं जो आपके यहां हैं. मक्खन वाली चाय को यहां मरज्या कहते हैं - ’ज्या’ माने चाय.

मरती (इसे चौंदास घाटी में ’छं’ कहा जाता है) जौ से ही बनाई जाती है और बीयर जैसी ही पोटैन्सी रखती है. ’च्यक्ती’ तमाम तरह के खाद्यान्नों जैसे पलथी, सिली इत्यादि को डिस्टिल करके बनाई जाती है.

इससे ज़्यादा तकनीकी जानकारी मैंने इकठ्ठा नहीं की. आप चाहें तो अपने शौका मित्रों से पूछ कर इस बाबत एक पोस्ट अलग से कभी लगा सकता हूं.

sanjay vyas said...

बिलकुल अपरिचित भूगोल का यात्रा वृत्तान्त एक रोमांच की सी अनुभूति दे रहा है.
गवाक्षों में तीन भिन्न मुद्राओं में युवती जैसलमेर के अलंकृत हवेली-गोखों में खड़ी किसी युवती से साम्य जगा रहा है,यद्यपि ये बिलकुल अलग है पर अपनी स्मृति से कुछ भी जोड़ने में क्या बुराई है!
अलग ही लावण्य है इस श्रृंखला का,नमकीन चाय की तरह.

विजय गौड़ said...

अशोक भाई, सच छोटा कैलाश दिखाई दे रहा है मुझे। सिनला दर्रे को कभी सिंगोला दर्रा कहने लगने की स्थिति में हूं इस वक्त तो मैं। एक तथ्यात्मकता को जरा देख लीजिए, तो बहुत से ऎसे पाठक जिनके लिए ऎसी यात्राएं सिर्फ़ ऊंचाईयों को छू लेने का जूनून होती हैं, उनके लिए भी यह उप्योगी ही होगी- सिन्ला की ऊंचाई मेरे हिसाब से १७५०० फ़ीट के आसपास ही है। स्थानीय निवासियों के एक घाटी से दूसरी घाटी में जाने वाले जो अधिकतम ऊंचाईयों के पैदल मार्ग हैं, वे लगभग इसी के आसपास हैं। सिंगोला जो जांसकर का प्रवेश द्वार है और जहां से पहली बार अपने साथियों के साथ अभियान पर गुजरते हुए जब मुझे जांसकर का एक एक स्थानीय यात्री मिला जो अपने ८-९ साल के बच्चे के साथ जाता हुआ मिला तो मैं अपने ऊपर बहुत हंसा था, अपने साथियों पर भ॥ हमारे लिए वह ऊंचाई अभियान थी जबकि आपको ताज्जुब न हो तो उस स्थानीय यात्री के लिए सिर्फ़ अपने कुत्ते बेचने का मार्ग था। वही कुत्ते जो उसने गद्दियों को मात्र ४० रूपये में बेचे थे। ऊंचाइयों के जुनूनि यात्रियों के लिए १९००० फ़ुट की ऊंचाई पर स्थित कालिंदी खाल मौजूद है- गंगोत्री से बद्रिनाथ का रस्ता।
जारी रहिये।

Pratyaksha said...

badhia aur dilchasp ..

मुनीश ( munish ) said...

Women standing in Jharokhas surely had some Rajasthan connection .